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सीताफल की उन्नत बागवानी कैसे करें ?

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यह खाने में स्वाद और सूखी ज़मीन का फल है। यह विटामिन सी, पोटाशियम, मैगनीज़ और आयरन का उच्च स्त्रोत है। इस फल में कुछ मात्रा में संतृप्त वसा, सोडियम और कोलैस्ट्रोल की मात्रा होती है। अच्छे पोषक तत्व होने के कारण इसे सेहत के लिए आदर्श फल के रूप में भी जाना जाता है। यह ज्यादातर फिलिपिन्स, मिस्र, केंद्रीय अमेरिका और भारत में उगाया जाता है। कोलकाता, महाराष्ट्र, छत्तीसगढ़, मध्य प्रदेश, केरला, कर्नाटक, गुजरात, तेलंगना, आंध्र प्रदेश, अंडेमान और निकोबार मिज़ोरम भारत के सीताफल उगाने वाले मुख्य राज्य हैं। यह फल कब्ज का उपचार करने के लिए उपयोगी है, गठिया को कम करने और मांसपेशियों की कमज़ोरी से लड़ने में मदद करता है। इस फल को ताजे फल के रूप में खाया जा सकता है और इसे कस्टर्ड पाउडर, आइसक्रीम आदि बनाने के लिए भी उपयोग किया जाता है।

सीताफल (शरीफा) अत्यंत पौष्टिक तथा स्वादिष्ट फल है। इसे गरीबों का फल कहा जाता हैं। इसका उत्पत्ति स्थल उष्ण अमरीका माना जाता हैं। अमरिका में इसका नामकरण इसके स्वाद के अनुरूप् ‘‘शुगर एप्पिल‘‘ दिया गया हैं। सीताफल के नियमित उद्यान कम हैं। यह मध्यप्रदेश में जंगली रूप में सर्वत्र पाया जाता हैं। अतः इसके विकास की काफी अच्छी संभावनायें हैं।

मानक किस्मों का अभाव है, अतः उन्नतशील किस्मों का विकास चयन विधि द्वारा किया जाना अपेक्षित हैं। यह मध्यप्रदेश के अलावा आन्ध्रप्रदेश, अत्तरप्रदेश, आसाम राज्यों के जंगलों में बहुतायत से उपलब्ध हैं।

यह फल दुनिया के सभी उष्ण तथा उपोष्ण देशों में जहाँ पाले का प्रकोप नही होता है, पैदा किया जाता हैं। अब विभिन्न देशों में इसकी खेती हो रही हैं, जैसे आस्ट्रेलिया, ब्राजील, म्यांमार, भारत, चिली, इजराइल, मैक्सिको, स्पेन एवं फिलीपीन्स आदि।

सीताफल मुख्यतः ताजे फल के रूप में खाने के काम आता है। परंतु फल में बीज अधिक संख्या में होने के कारण खानें में अरूचि पैदा करता है। साथ ही फल पकने के बाद शीघ्र ही खराब होने लगता है। इसका गूदा दूध में मिला कर पेय के रूप में उपयोग किया जाता है। गूदे से आइस्क्रीम भी बनाई जाती है तथा इसे कुछ समय के लिये जैम व जेली के रूप में भी रखा जा सकता है।

आन्ध्र प्रदेश में फलों को भून कर खाते हैं। फल में शर्करा, कैल्शियम, फाॅस्फोरस तथा विटामिन ‘‘बी‘‘ समूह अधिकता से पाया जाता है। इसके फलों में 1.6 प्रतिशत प्रोटीन, 0.3 प्रतिशत वसा, 2.4 प्रतिशत रेशे के अतिरिक्त 24.2 प्रतिशत अन्य कार्बोहाइड्रेट्स पाये जाते हैं। इसका 100 ग्राम भोज्य पदार्थ, 114 कैलोरी उर्जा प्रदान करता हैं।

फल मीठा, स्वादिष्ट श्रेष्ठ बलवर्धक, रक्तवर्धक, शीतलता दायक, दाहशामक, पित्तरोधक, वमनरोधी तथा हृदय के लिये औशधि हैं। इसके बीज से प्राप्त तेल का उपयोग साबुन तथा रंग उद्योग में होता हैं।सीताफल का वृक्ष पर्णपाती सहनशील 5-6 मी. उंचा होता है।

पौधे लगाने के चार से पाँच वर्ष में यह फलने लगते हैं। पूर्ण विकसित वृक्ष से 70-90 फल प्रति वृक्ष प्राप्त होते हैं। जो नवम्बर, दिसम्बर एवं जनवरी में प्राप्त होते हैं। फलों का औसत भार 150 ग्राम से 250 ग्राम तक होता है। औसत उपज 250 क्विंटल प्रति हेक्टेयर तक हो सकती हैं। ऐसे स्थानों में जहाँ पानी की कमी है और भूमि कम उपजाउ तथा अनुपयोगी है, इस फल को लगाया जा सकता है। उन्नतशील किस्मों के प्रसार की मध्यप्रदेश में प्राथमिक आवश्यकता हैं।

उपयुक्त मिट्टी
सीताफल की खेती लगभग सभी तरह की मिट्टी में की जा सकती हैं. लेकिन अच्छी पैदावार के लिए उचित जल निकासी वाली दोमट मिट्टी सबसे उपयुक्त होती है. जबकि जल भराव वाली काली चिकनी मिट्टी में इसकी खेती नही की जा सकती. क्योंकि जल भराव होने पर उत्त्पन्न  होने वाले कीटों के कारण पौधों  में कई तरह के रोग लगने की संभावना बढ़ जाती है. इसकी खेती के लिए जमीन का पी.एच. मान 5.5 से 7 के बीच होना चाहिए.

जलवायु और तापमान
सीताफल की खेती के लिए शुष्क जलवायु वाले क्षेत्र उपयुक्त होते हैं. इसके पौधे अधिक गर्मी में आसानी से विकास करते हैं. लेकिन अधिक समय तक पड़ने वाली तेज़ सर्दी इसके लिए उपयुक्त नही होती. इससे इसके फलों का स्वाद कड़ा हो जाता है. इसके फलों को पकने के लिए गर्मी के मौसम की जरूरत होती है. लेकिन गर्मी में पकने के बाद भी इसके फल बहुत ठंडे होते हैं.

इसके पौधे को अंकुरण के लिए सामान्य तापमान की जरूरत होती है. और विकास के टाइम ये 40 डिग्री तापमान को भी सहन कर लेता है. लेकिन जब इस पर फूल और फल बनते हैं, उस वक्त 40 डिग्री से ज्यादा तापमान होता है तो इसके फूल और फल दोनों झड़ने लगते हैं.

प्रसिद्ध किस्में और पैदावार

अर्का सहन
अर्का सहन सीताफल की एक संकर किस्म है. इस किस्म के फल बहुत रसदार होते हैं. जो बहुत धीमी गति से पकते हैं. इस किस्म के फलों में बीज की मात्रा कम और आकार छोटा होता है. इसके गूदे अंदर से बर्फ की तरह सफ़ेद दिखाई देते हैं. जो स्वाद में बहुत मीठे होते हैं. इनमें सुगंध मध्यम प्रकार की आती है.

लाल सीताफल
इस किस्म के पौधों को बीज के माध्यम से उगाने पर फलों में शुद्धता बनी रहती है. इसके फलों का रंग हल्का लाल गुलाबी होता है. इस किस्म के एक पौधे से एक वर्ष में 40 से 50 फल ही प्राप्त किया जा सकते हैं. जो समय के साथ साथ बढ़ते जाते हैं. इस किस्म के फलों में बीज काफी कम मात्रा में पाए जाते है.

मैमथ
इस किस्म का उत्पादन लाल शरीफे से ज्यादा होता है. इसके एक पौधे से सालभर में 60 से ज्यादा सीताफल प्राप्त होते हैं. इस किस्म के फलों में बीज की मात्रा भी कम पाई जाती है. इसके फलों की फाँके गोलाकार और बड़ी होती हैं. जिनमें गूदे की मात्रा अधिक पाई जाती है.

बाला नगर
इस किस्म के सीताफल की खेती ज्यादातर झारखंड में की जाती है. झारखण्ड के जंगलों में यह सामान्य रूप से पाया जाता है. इसके फलों का रंग हल्का हरा होता है. इस किस्म के फलों में बीज की मात्रा अधिक पाई जाती है. इसके एक पौधे की पैदावार 5 किलो के आसपास पाई जाती है.

इनके अलावा और भी कई किस्में हैं जिनका उत्पादन अलग अलग जगहों पर किया जाता है. इनमें वाशिंगटन पी.आई. 107, 005, ब्रिटिश ग्वाइना और बारबाड़ोज़ सीडलिंग जैसी कई किस्में मौजूद हैं.

Saraswati Seven: यह किस्म राजस्थान एग्रीकल्चर रिसर्च इंस्टीट्यूट द्वारा जारी की गई है। यह राजस्थान के कटिबंधीय क्षेत्रों जैसे दुंगरपुर, राजसामंद, चितौड़गढ़, उदयपुर, बंसवाड़ा, और जाहलावर में उगाया जाता है। इस किस्म के फल का भार 350-400 ग्राम होता है।

दूसरे राज्यों की किस्में
Red Sitaphal, Balanagar, Purandhar (Pune), Washington, Hybrid, Pink Mammoth and African pride भारत में उगाई जाने वाली किस्म हैं।

खेत की तैयारी

सीताफल की खेती के लिए शुरुआत में खेत में मौजूद पुरानी फसल के अवशेषों को हटाकर उसकी पलाऊ के माध्यम से गहरी जुताई कर दें. उसके बाद कल्टीवेटर के माध्यम से खेत की दो से तीन तिरछी जुताई कर उसमें पाटा लगा दें. पाटा लगाने से मिट्टी में मौजूद ढेले ख़त्म हो जाते हैं और भूमि समतल दिखाई देती है.

खेत के समतल हो जाने के बाद खेत में तीन से चार मीटर की दूरी रखते हुए दो फिट चौड़े और एक फिट गहरे गड्डे तैयार कर लें. गड्डों को पंक्ति में तैयार करें और प्रत्येक पंक्ति के बीच तीन मीटर की दूरी बनाकर रखे. गड्डों के तैयार हो जाने के बाद उसमें जैविक और रासायनिक खाद की उचित मात्रा डालकर उसे अच्छे से मिट्टी में मिला दें. उसके बाद गड्डों की सिंचाई कर दें.

पौध तैयार करना

सीताफल की लाल किस्म को छोड़कर बाकी किस्मों को कलम के माध्यम से तैयार करना चाहिए. क्योंकि कलम के माध्यम से तैयार करने पर इसका फल दो साल बाद ही बनना शुरू हो जाता है. जबकि बीज के माध्यम से तैयार की हुई पौध पर चार से पांच साल बाद फल लगने शुरू होते हैं.

कलम के माध्यम से इसकी पौध तैयार करने के लिए शील्ड बडिंग और ग्राफ्टिंग विधि का इस्तेमाल करते हैं. ये दोनों विधि अलग अलग समय पर की जाती है. शील्ड बडिंग के लिए जनवरी से जून का महीना उपयुक्त होता है. जबकि ग्राफ्टिंग के लिए अक्टूबर और नवम्बर का महीना उपयुक्त होता है. इसकी कलम तैयार करने के बजाय इसे बाज़ार में रजिस्टर्ड नर्सरी से खरीदकर भी लगा सकते हैं. पौधे को खरीदकर लगाने से टाइम की बचत होती है और फल भी जल्दी लगने लगते हैं.

बीज के माध्यम से पौध तैयार करने के लिए इसके बीज को पहले तीन से चार दिन तक पानी मे भिगोकर रखा जाता है. जिससे बीज जल्दी अंकुरित हो जाता है. तीन से चार दिन बाद नर्सरी में इसके दो से तीन बीजों को मिट्टी और खाद के मिश्रण से भरी पॉलीथिन में लगा देते हैं. जिसके कुछ दिन बाद ये अंकुरित होने लग जाते हैं.  अंकुरित होने के बाद जब पौधे अच्छे से विकास करने लगते है तब उनमें सबसे ज्यादा विकास कर रहे एक पौधे को रखकर बाकी पौधों को नष्ट कर देते हैं.  बीज के माध्यम से इसके पौधे लगाने के लिए इसके बीज को चार महीने पहले मिट्टी में उगाकर पौध तैयार की जाती है.

पौध की रोपाई का तारिक और टाइम

सीताफल के पौधे को खेत में तैयार किये गए गड्डों में लगाते हैं. पौध को लगाने के लिए तैयार किये गए गड्डों में एक और छोटा गड्डा तैयार करना होता है. जिसमें पौधे को लगाया जाता है. इस तैयार किये गए नए गड्डे को पहले गोमूत्र से उपचारित कर लेना चाहिए. उसके बाद इसके पौधे को गड्डे में लगाकर उसे चारों तरफ से अच्छे से मिट्टी से दबा दें.

इसके पौधों की रोपाई का सबसे उपयुक्त टाइम जुलाई का महीना है. क्योंकि बारिश का मौसम होने की वजह से, इस दौरान पौधों को विकास करने के लिए आदर्श वातावरण मिलता है.

पौधों की सिंचाई

पौधों की रोपाई के तुरंत बाद इसकी सिंचाई कर देनी चाहिए. सीताफल के पौधे को सिंचाई की काफी कम जरूरत होती है. लेकिन फिर भी पौधे की साल भर में लगभग 10 से 12 सिंचाई कर देनी चाहिए. सर्दियों के मौसम में इसकी 15 से 20 दिन में सिंचाई करनी चाहिए. और गर्मियों के मौसम में इसके पौधे की सप्ताह में एक बार सिंचाई जरुर कर देनी चाहिए. जबकि बारिश के मौसम में इसके पौधे को सिंचाई की जरूरत नही होती. लेकिन जब पौधे पर फल बन रहे हो तब पौधे में नमी बनाए रखने के लिए पौधे को हल्का पानी देते रहना चाहिए.

उर्वरक की मात्रा

सीताफल के पौधे को उर्वरक की जरूरत होती है. इसके लिए गड्डों को तैयार करते वक्त प्रत्येक गड्डों में 5 से 10 किलो पुरानी गोबर की खाद डालकर उसे मिट्टी में मिला दें. इसके अलावा एन.पी.के. की 50 ग्राम मात्रा मिट्टी में मिलकर उसे गड्डों में भर दें. पौधों को खाद की ये मात्रा साल में एक बार तीन से चार साल तक देनी चाहिए. उसके बाद पौधे की वृद्धि के साथ साथ इसकी मात्रा में भी वृद्धि करते रहना चाहिए.

खरपतवार नियंत्रण
सीताफल के पौधों में खरपतवार नियंत्रण के लिए पौधों को गड्डों में लगाने के तीन से चार सप्ताह बाद उसकी हल्की नीलाई गुड़ाई कर दें. इससे पौधा अच्छे से विकास करता है. इसके पौधों की साल में दो से तीन नीलाई गुड़ाई करना अच्छा होता है. इसके अलावा बारिश के मौसम के बाद शेष बची बीच की जमीन अगर खाली हो तो उसकी जुताई कर दें. इससे खेत में उगने वाली खरपतवार नष्ट हो जाती है.

पौधे की देखभाल
हानिकारक कीट और रोकथाम
मिली बग : ये विकसित फलों में से रस चूसते हैं। परिणामस्वरूप फल का आकार कम हो जाता है और फल समय से पहले पककर गिरना शुरू हो जाते हैं। ये कीट पत्तों, फल के तने और नर्म टहनियों पर भी हमला करते हैं। जिसके कारण वे पीले रंग के हो जाते हैं और सूख जाते हैं।

यदि इसका हमला दिखे तो डाइक्लोरवास 2 मि.ली या एसीफेट 6 ग्राम को प्रति लीटर पानी में मिलाकर स्प्रे करें।
स्केल कीट : प्लूमोज़ स्केल कीट टहनियों और वृक्ष के तने पर हमला करते है जिसके कारण तनों और टहनियों पर गहरे भूरे रंग से सलेटी रंग के धब्बे देखे जा सकते हैं। फिलेफेडरा कीट पत्तों, नए तने और फलों पर हमला करते हैं। इसके कारण पत्ते भूरे रंग के हो जाते है जो अपने आप ही गिरने लगते हैं और तना मर जाता है।

रोकथाम : यदि इसका हमला खेत में दिखे तो कार्टैप हाइड्रोक्लोराइड 170 ग्राम या ट्राइज़ोफॉस 250 मि.ली. को 100 लीटर पानी में मिलाकर स्प्रे करें। 

फल छेदक सुंडी : ये कीट फलों और पत्तों पर अंडे देते हैं जो नई टहनियों और पत्तों को अपना भोजन बनाते हैं।

रोकथाम : यदि इसका हमला खेत में दिखे तो कार्टैप हाइड्रोक्लोराइड 170 ग्राम या ट्राइज़ोफॉस 250 मि.ली. को 100 लीटर पानी में मिलाकर स्प्रे करें। 

बीमारियां और रोकथाम
पत्तों पर धब्बे : पत्तों पर बड़े, गोल और गहरे रंग के धब्बे देखे जा सकते हैं। इस बीमारी के ज्यादा हमले से पत्ते गिरने भी लग जाते हैं।

यदि इसका ज्यादा हमला दिखे तो कॉपर फंगसनाशी की स्प्र करें। इस बीमारी को कम करने के लिए मलचिंग भी एक प्रभावी तरीका है।

यदि इस बीमारी का हमला दिखे तो कार्बेनडाज़िम 300 ग्राम या 400 ग्राम एम-45 को 150 लीटर पानी में मिलाकर स्प्रे करें। 15 दिनों के अंतराल पर दोबारा स्प्रे करें।

काले धब्बे : यह मुख्य तौर पर बसंत के मौसम में विकसित होते हैं। पत्तों पर छोटे काले रंग के धब्बे देखे जा सकते हैं। काले धब्बों की बाहरी भाग पर पीले रंग के धब्बे विकसित होते हैं और अपने आप ही पूरे पत्ते पीले रंग के हो जाते हैं और गिर जाते हैं।

यदि इसका हमला दिखे तो कार्बेनडाज़िम 300 ग्राम या 400 ग्राम एम-45 को 150 लीटर पानी में मिलाकर स्प्रे करें। 15 दिनों के अंतराल पर दोबारा स्प्रे करें।

एंथ्राक्नोस : यह एक फंगस की  बीमारी है जिसके कारण हरे पत्तों, तने और फलों पर गहरे रंग के धब्बे पड़ जाते हैं।

यदि इस बीमारी का हमला दिखे तो कार्बेनडाज़िम 300 ग्राम को 150 लीटर पानी में मिलाकर स्प्रे करें। 15 दिनों के अंतराल पर दोबारा स्प्रे करें।

अतरिक्त कमाई
सीताफल के पौधे दो से तीन साल बाद फल देना शुरू करते हैं. लेकिन इसके पौधे पूर्ण रूप से तैयार होने में चार से पांच साल का वक्त लेते हैं. इस दौरान खेत में खाली बची जमीन में कई तरह की मसाला और सब्जी फसल को उगाया जा सकता हैं. जिससे किसान भाइयों की अच्छी खासी कमाई हो जाती है. और उन्हें आर्थिक परेशानियों का सामना भी नही करना पड़ता.

पौधों में लगने वाले रोग और उनकी रोकथाम
सीताफल के पौधे से एक विशेष प्रकार की महक आती है. जिससे इसके पौधे पर किसी प्रकार की बिमारी का नुक्सान देखने को नही मिलता. इसके पौधों से फलन के दौरान अगर फूल झड़ने लगे तो पौधों में पानी देना बंद कर दें. इसके फल पकने के बाद जल्दी सड़ जाते हैं. इस कारण इसके फलों को उचित समय रहते तोड़ लेना चाहिए.

पौधे की देखरेख और कटाई छटाई
सीताफल के पौधों की कटाई छटाई करना जरूरी होता है. इसके पौधों के बड़े होने के साथ साथ इनकी शाखाओं को सिरे पर से काट देना चाहिए. इससे नई शाखाएं निकलती हैं. जिन पर लगने वाले नए फलों के कारण पौधों की पैदावार में वृद्धि देखने को मिलती है. शाखाओं की कटिंग के दौरान सुखी हुई शाखाओं को भी काटकर अलग कर दें. इसके पौधे में आने वाली गंध के कारण पशुओं से इसकी सुरक्षा की भी जरूरत नही होती.

हस्त परागण
सीताफल के पुष्प् अनाकर्षक होते है एवं इनमें मधु की मात्रा भी कम होती है जिससे कीट परागण की संभावना बेहद कम होती है। परागकणों के समूह में न होने के कारण वायुपरागण की सफलता भी सीमित होती है। इसलिये प्राकृतिक परागण के स्थान पर कृत्रिम हस्त परागण से बेहतर परिणाम प्राप्त होते है। फसल सुधार के लिये हाथ द्वारा परागण में काफी सफलता मिलती हैं।

अनुसंधान से यह सिद्ध हुआ है कि हाथ से परागण करने पर 44.4-60 प्रतिशत फूलों पर फल लगते हैं जबकि प्राकृतिक दशा में छोड़ देने पर केवल 1.3 से 3.8 प्रतिशत फूलों में ही फल आते हैं। इसके लिये एक प्लास्टिक के कप में सीताफल के नव विकसित एक दिन पहले के खिले फूल जिनकी पंखुड़ियाँ सूखना शुरू हो गयी हों, से परागकण इकट्ठा कर लें। पराग कण को इकट्ठा करने के लिये फूल को हिला कर या उंगलियों की बीच में रगड़ कर इकट्ठा करें।

पराग कण को इकट्ठा करने के लिये फूल को हिला कर या उंगलियों के बीच में रगड़ कर इकट्ठा करें। यह कार्य सुबह 6.00 से 7.00 बजे के बीच करें। तत्पश्चात एक पेन्टिंग ब्रश (2 या 3 नम्बर) लेकर उसको परागकणयुक्त कप में डाल कर परागकण की क्रिया करें। परागकण का कार्य करने के लिये सुबह 9.30 बजे के पहले का समय उत्तम माना गया है। सुविधा के लिये परागकणयुक्त कप को शर्ट की जेब में रखें और फिर ब्रश से परागकण की क्रिया करें।

फूल की पंखुड़ियों को एक हाथ की सहायता से दूर करें ताकि स्त्रीकेशर पर दूसरे हाथ से सरलता से पराग कण छिड़के जा सकें। यह ध्यान रखें कि जिस फूल के स्त्रीकेशर पर परागकण स्थापित करना है वह अधखुला हो या कुछ समय में खुलने वाला हो। इस विधि में विशेश सावधानी यह रखें कि जब अधिकतम पुष्प् विकसित हों तभी परागकण स्थापित करें। ऐसा करने पर फलों के बनने की अधिकतम संभावना रहती हैं।
फलों की तुड़ाई
सीताफल के फलों की बनने की अवधि काफी लम्बी होती है. इसके पौधों पर फूल मार्च के महीने में आने शुरू हो जाते हैं. जो जुलाई माह तक आते हैं. उसके बाद इसके फलों को बनने में चार महीने का वक्त लगता है. इसके फल सितम्बर माह के बाद पकने शुरू होते हैं. सीताफल के पौधे पर फूल खिलने के तुरन्त बाद 50 पी.पी.एम. जिब्रेलिक एसिड का छिडकाव कर दें. इससे पौधे पर फल अच्छे से बनते हैं.

इसका पूर्ण रूप से पका हुआ फल कठोर दिखाई देने लगता है. इस दौरान इसके फलों में बनी फांकों में खाली जगह दिखाई देने लगती है. तब इसका फल पूरी तरह पककर तैयार हो जाता है. इस दौरान इनकी तुड़ाई कर लेनी चाहिए. इसके कम पके फलों की तुड़ाई नही करनी चाहिए. क्योंकि कम पके फलों में कडवाहट आने लगती है.

पैदावार और लाभ
सीताफल के पौधे खेत में लगाने के दो से तीन साल बाद फल देना शुरू कर देते हैं. इसके प्रत्येक पौधे से शुरूआत में 60 के आसपास फल प्राप्त होते हैं. जो उम्र बढ़ने के साथ साथ बढ़ते हैं. कुछ सालों बाद इसके एक पौधे से 100 से ज्यादा फल प्राप्त होने लगते हैं. एक एकड़ में इसके 500 के आसपास पौधे लगाए जा सकते हैं. जिनसे सीताफल की सालाना 30 क्विंटल के आसपास पैदावार हो जाती हैं. जिनका बाज़ार भाव 40 रूपये किलो के आसपास पाया जाता है. जिससे किसान भाई एक साल में एक एकड़ से एक से सवा लाख तक की कमाई आसानी से कर लेता हैं.

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