कणाद एक ऋषि थे। वायुपुराण में उनका जन्म स्थान प्रभास पाटण बताया है। स्वतंत्र भौतिक विज्ञानवादी दर्शन प्रकार के आत्मदर्शन के विचारों का सबसे पहले महर्षि कणाद ने सूत्र रूप में लिखा। ये "उच्छवृत्ति" थे और धान्य के कणों का संग्रह कर उसी को खाकर तपस्या करते थे। इसी लिए इन्हें "कणाद" या "कणभुक्" कहते थे। किसी का कहना है कि कण अर्थात् परमाणु तत्व का सूक्ष्म विचार इन्होंने किया है, इसलिए इन्हें "कणाद" कहते हैं। किसी का मत है कि दिन भर ये समाधि में रहते थे और रात्रि को कणों का संग्रह करते थे। यह वृत्ति "उल्लू" पक्षी की है। किस का कहना है कि इनकी तपस्या से प्रसन्न होकर ईश्वर ने उलूक पक्षी के रूप में इन्हें शास्त्र का उपदेश दिया।
आधुनिक दौर में अणु विज्ञानी जॉन डाल्टन के भी हजारों साल पहले महर्षि कणाद ने यह रहस्य उजागर किया कि द्रव्य के परमाणु होते हैं।
उनके अनासक्त जीवन के बारे में यह रोचक मान्यता भी है कि किसी काम से बाहर जाते तो घर लौटते वक्त रास्तों में पड़ी चीजों या अन्न के कणों को बटोरकर अपना जीवनयापन करते थे। इसीलिए उनका नाम कणाद भी प्रसिद्ध हुआ।
आधुनिक दौर में अणु विज्ञानी जॉन डाल्टन के भी हजारों साल पहले महर्षि कणाद ने यह रहस्य उजागर किया कि द्रव्य के परमाणु होते हैं।
उनके अनासक्त जीवन के बारे में यह रोचक मान्यता भी है कि किसी काम से बाहर जाते तो घर लौटते वक्त रास्तों में पड़ी चीजों या अन्न के कणों को बटोरकर अपना जीवनयापन करते थे। इसीलिए उनका नाम कणाद भी प्रसिद्ध हुआ।
भौतिक जगत की उत्पत्ति सूक्ष्मातिसूक्ष्म कण परमाणुओं के संघनन से होती है- इस सिद्धांत के जनक महर्षि कणाद थे।
इसके अलावा महर्षि कणाद ने ही न्यूटन से पूर्व गति के तीन नियम बताए थे।
वेगः निमित्तविशेषात कर्मणो जायते। वेगः निमित्तापेक्षात कर्मणो जायते नियतदिक क्रियाप्रबन्धहेतु। वेगः संयोगविशेषविरोधी॥ वैशेषिक दर्शन
अर्थात् वेग या मोशन (motion) पांचों द्रव्यों पर निमित्त व विशेष कर्म के कारण उत्पन्न होता है तथा नियमित दिशा में क्रिया होने के कारण संयोग विशेष से नष्ट होता है या उत्पन्न होता है।
कौन थे महर्षि कणाद ? कणाद ऋषि को उनकी परमाणु आविष्कार के लिए जाना जाता है। आज का परमाण्विक सिद्धांत (Atomic Theory) का मूल आधार महर्षि कणाद का ” वैशेषिक दर्शन” ही है. भारतीय ॠषि कणाद ने सबसे पहले ईश्वरीय कण (आज जिसकी चर्चा लगभग सभी जगह है।) प्रतिपादन किये थे। वैशेषिक एक दर्शन है जिसके प्रवर्तक ऋषि कणाद ही हैं। महर्षि कणाद ने द्वयाणुक (दो अणु वाले) तथा त्रयाणुक की चर्चा की है। उनका समय छठी शदी ईसापूर्व है। किन्तु कुछ लोग उन्हे दूसरी शताब्दी ईसापूर्व का मानते हैं। ऐसा विश्वास है कि वे गुजरात के प्रभास क्षेत्र (द्वारका के निकट) में जन्मे थे। इस वैशेषिक दर्शन का सार है – “पदार्थ का परमाणु सिद्धांत”। कणाद ऋषि को उनकी परमाणु आविष्कार के लिए जाना जाता है उन्होंने ही पदार्थ अविभाजित होने वाले सुक्षम्तम कण को परमाणु नाम दिया था। इस सिद्धांत के अनुसार समस्त वस्तुए परमाणु से बनी हैं। और कोई भी पदार्थ का जब विभाजन होना समाप्त हो जाता है तो उस अंतिम अविभाज्य कण को ही परमाणु कहतें हैं।यह ना तो मुक्त स्थिति में रहता है और ना ही इसे मानवीय नेत्रों से अनुभव किया जा सकता है। यह शाश्वत और नस्त ना किये जाने वाला तत्व है। कणाद के अनुसार जितने प्रकार के पदार्थ होते हैं उतने ही प्रकार के परमाणु होते हैं, प्रत्येक पदार्थ की अपनी ही प्रवृति और गुण होतें है। जो उस परमाणु के वर्ग में आने वाले पदार्थ के समानहोती है,इसलिए इसे वैशेषिक सूत्र सिद्धांत कहते हैं ! कणाद के एटमिक थ्योरी को तात्कालिक यूनानी दार्शनिकों से कहीं अधिक उन्नत और प्रमाणिक थी।
अनेक विद्वानों ने धर्म की अनेक परिभाषाएँ दी हैं किन्तु महान भारतीय दार्शनिक कणाद भौतिक तथा आध्यात्मिक रूप से “सर्वांगीण उन्नति” को ही धर्म मानते हैं। अपने वैशेषिक दर्शन में वे कहते हैं – “यतो भ्युदयनि:श्रेय स सिद्धि:स धर्म:” (जिस माध्यम से अभ्युदय अर्थात् भौतिक दृष्टि और आध्यात्मिक दोनों ही दृष्टि से सभी प्रकार की उन्नति प्राप्त होती है, उसे ही धर्म कहते हैं।) और अभ्युदय कैसे हो यह बताते हुए महर्षि कणाद कहते हैं – दृष्टानां दृष्ट प्रयोजनानां दृष्टाभावे प्रयोगोऽभ्युदयाय‘ (गूढ़ ज्ञान प्राप्त करने हेतु प्रत्यक्ष देखने या अन्यों को दिखाने के उद्देश्य से किए गए प्रयोगों से अभ्युदय का मार्ग प्रशस्त होता है।)
महर्षि कणाद आज के वैज्ञानिकों की भाँति प्रयोगों पर ही जोर देते हैं,वे एक महान दार्शनिक होते हुए भी प्राचीन भारत के एक महान वैज्ञानिक भी थे। उनकी दृष्टि में द्रव्य या पदार्थ धर्म के ही रूप थे। आइंस्टीन के “सापेक्षता के विशेष सिद्धान्त (special theory of relativity) के प्रतिपादित होने के पूर्व तक आधुनिक भौतिक शास्त्र द्रव्य और ऊर्जा को अलग अलग ही मानता था किन्तु महर्षि कणाद ने आरम्भ से ही ऊर्जा को भी द्रव्य की ही संज्ञा दी थी इसीलिए तो उन्होंने अग्नि याने कि ताप (heat) को तत्व ही कहा था। कणाद के वैशेषिक दर्शन के अनुसार पदार्थ छः होते हैं- द्रव्य,गुण, कर्म,सामान्य,विशेष और समवाय। महर्षि कणाद के दर्शन के अनुसार संसार की प्रत्येक उस वस्तु को जिसका हम अपने इन्द्रियों के माध्यम से अनुभव कर सकते हैं को इन्हीं छः वर्गो में रखा जा सकता है। सर्वप्रथम उन्होंने ही परमाणु की अवधारणा प्रतिपादित करते हुए कहा था कि परमाणु तत्वों की लघुतम अविभाज्य इकाई होती है जिसमें गुण उपस्थित होते हैं और वह स्वतन्त्र अवस्था में नहीं रह सकती।
वैशेषिक दर्शन में बताया गया है कि अति सूक्ष्म पदार्थ अर्थात् परमाणु ही जगत के मूल तत्व हैं। कणाद कहते हैं कि परमाणु स्वतन्त्र अवस्था में नहीं रह सकते इसलिए सदैव एक दूसरे से संयुक्त होते रहते हैं,संयुक्त होने के पश्चात् निर्मित पदार्थ का क्षरण होता है और वह पुनः परमाणु अवस्था को प्राप्त करता है तथा पुनः किसी अन्य परमाणु से संयुक्त होता है, यह प्रक्रिया निरन्तर चलती रहती है। एक प्रकार के दो,तीन .. परमाणु संयुक्त होकर क्रमशः ‘द्वयाणुक‘ और ‘त्रयाणुक‘… का निर्माण करते हैं। स्पष्ट है कि द्वयाणुक ही आज के रसायनज्ञों का ‘बायनरी मालिक्यूल‘ है।
कणाद का वैशेषिक दर्शन स्पष्ट रूप से तत्वों के रासायनिक बन्धन को दर्शाता है। महर्षि कणाद ने इन छः वर्गों के अन्तर्गत् आने वाले द्रव्यों के भी अनेक प्रकार बताए हैं। उनके दर्शन के अनुसार द्रव्य नौ प्रकार के होते हैं – पृथ्वी, जल,अग्नि,वायु,आकाश,काल,दिशा,आत्मा,परमात्मा और मन। यहाँ पर विशेष ध्यान देने योग्य बात यह है कि महर्षि कणाद ने आकाश, काल और दिशा को हजारों वर्ष पूर्व ही द्रव्य की ही संज्ञा दे दी थी और आज आइंस्टीन के “सापेक्षता के विशेष सिद्धान्त (special theory of relativity) से भी यही निष्कर्ष निकलता है। आज आत्मा, परमात्मा और मन के अस्तित्व को स्वीकार नहीं किया जाता किन्तु वैशेषिक दर्शन का अध्ययन करने पर ऐसा प्रतीत होता है कि आत्मा,परमात्मा, मन इत्यादि को भी ताप,चुम्बकत्व,विद्युत,ध्वनि जैसे ही ऊर्जा के ही रूप ही होने चाहिए।
इस दिशा में अन्वेषण एवं शोध की अत्यन्त आवश्यकता है। इस ब्रह्माण्ड में पाए जाने वाले समस्त तत्व आश्चर्यजनक रूप से हमारे शरीर में भी पाए जाते हैं और यह तथ्य वैशेषिक दर्शन में बताए गए इस बात की पुष्ट है कि “द्रव्य की दो स्थितियाँ होती हैं एक आणविक और दूसरी महत्; आणविक स्थिति सूक्ष्मतम है तथा महत् यानी विशाल व्रह्माण्ड। ऐसा प्रतीत होता है कि प्राचीन भारत के वैज्ञानिकों ने इस तथ्य को ध्यान में रखकर अपने शरीर को ही प्रयोगशाला का रूप दिया रहा होगा और इस प्रकार से अपने शरीर का अध्ययन कर के समस्त ब्रह्माण्ड का अध्ययन करने का प्रयास किया रहा होता।
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