ए.के.-47 दुनिया की सबसे अच्छी असाल्ट राइफल मानी जाती है। इसका निर्माण रूस ने किया। इसके डिजाइनर मिखाइल क्लाशनिकोव हैं उसके डिजाइनकर्ता के नाम के कारण इसको क्लाशनिकोव राइफल भी कहा जाता है।
द्वितीय विश्वयुद्ध (1939-1945 ई०) के समय जर्मन सेना ने असाल्ट राइफल की संकल्पना विकसित की थी। उन्होंने देखा कि ज्यादातर मुठभेड़ें 300 मीटर के दायरे के भीतर ही होती हैं जबकि उस जमाने में जो राइफलें और कारतूस मिलते थे उनकी शक्ति कम दूरी की थी इसलिए सेना ने इस प्रकार की राइफल और कारतूस की मांग की जिसमें सबमशीन के गुण (बड़ी मैगजीन और कई मोड़ पर गोली चलाने की सुविधा हो) भी हो और यह 300 मीटर के दायरे में काम करती हो।
इसके परिणामस्वरूप जर्मन सेना की एस टी जी 44 राइफल सामने आयी। हालांकि ये इस प्रकार की पहली राइफल नहीं थी, इटली की सेना की सेई-रिगोटी और सोवियत सेना की फेदारोव एव्तामोट राइफल भी इसी श्रेणी की थी। लेकिन जर्मन सेना ने ये राइफलें बड़े पैमाने पर प्रयोग की थी जिससे उन्हें इनका मूल्यांकन करने का मौका मिल गया।
सोवियत सेना भी जर्मन सेना के सिद्धान्तों और दर्शन से प्रभावित हुई और द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद इनका पालन शुरू कर दिया।
मिखाइल क्लाशिनिकोव ने अपना हथियार डिजाइनर का कैरियर हॉस्पिटल में जख्मी मरीज के रूप में भर्ती होने के बाद शुरू किया था। उनके द्वारा विकसित किए गए पहले कार्बाइन डिजाइन को अस्वीकार कर दिया गया लेकिन उन्होंने 1945 में हुए असाल्ट राइफल डिजाइन प्रतियोगिता में भाग लिया। उनका मॉडल 30 गोलियों वाला गैस बेस डिजाइन था। इसे एके 1 और एके 2 का कोड नाम दिया गया था। 1946 में उनके एक सहायक अलेक्जेण्डर जाय्स्तव ने इसमें कई सुधार सुझाए जो उन्होंने आनाकानी के बाद मान लिए। अंत में उनके 1947 मॉडल में सादगी, भरोसेमंदी और हर काल में काम करने की विशेषता थी। 1949 में उनके इस मॉडल को सोवियत सेना ने 7.62 क्लाशनिकोव राइफल के रूप में स्वीकार कर लिया।
इस राइफल की खासियत है-इसका सरल डिजाइन, छोटा आकार और बहुत कम लागत में बड़ी संख्या में निर्माण करने की सुविधा, इसकी कठोरता और भरोसेमंदी मिथक बन चुकी है। इसे आर्कटिक जैसी सर्दी पड़ने वाले इलाके को ध्यान में रखकर बनाया गया था। इसमें बहुत ज्यादा कचरा फंसने के बाद भी ये काम कर सकती है, लेकिन इसके चलते इसके निशाने उतने अच्छे नहीं रह जाते हैं। सोवियत सेना इसे समूह में प्रयोग करने वाला हथियार मानती थी। इसका सामान्य जीवन काल 20 से 40 साल माना जाता है जो इसके रख-रखाव पर निर्भर करता है। कुछ एके-47 के साथ संगीन भी लगाकर दी जाती हैं।
इस राइफल में निशाने लेने में आसानी हेतु एक लोहे का गेज पीछे की तरफ लगा होता है। राइफल के अगले सिरे पर भी निशाना लगाने में सहूलियत देने के लिए गेज लगा होता है। इनको समायोजित करने के उपरांत प्रयोगकर्ता 250 मीटर तक निशाना आसानी से लगा सकता है। इसके अंदरूनी भागों, जैसे-गैस चेम्बर, बोर आदि पर क्रोमियम की प्लेटिंग की जाती है, जिससे इस राइफल की जिन्दगी बढ़ जाती है और इसमें जंग नहीं लगती है।


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