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क्या है जनेऊ संस्कार से जुड़े रहस्य, क्यों किया जाता है जनेऊ धारण ?

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आज हम बात करेंगे हिन्दू धर्म में उल्लेखित 16 संस्कारों में से एक जनेऊ संस्कार की सोलह संस्कारों में इस संस्कार को दसवां स्थान प्राप्त है इस संस्कार का मुख्य उद्देश्य जातक की भौतिक एवं आध्यात्मिक उन्नति का मार्ग प्रशस्त करना है इस संस्कार से बालक के मन में अध्यात्म चेतना जागृत होती है ऐसा कहा जाता है कि जब बालक ज्ञान अर्जित करने योग्य हो जाता है, तब विद्या ग्रहण से पूर्व जनेऊ संस्कार करना आवश्यक है। कालांतर से इस संस्कार का विधि-पूर्वक निर्वाह किया जा रहा है। खासकर ब्राह्मणों में इस संस्कार का अति विशेष महत्व है। इस संस्कार के बारे में विस्तारपूर्वक बताने से पहले आपको ये जानकारी दे देते हैं कि जनेऊ क्या होता है दरअसल, जनेऊ उस धागे को कहते हैं जिसे बाएं कांधे से दाएं बाजू की ओर धारण किया जाता है। जनेऊ तीन धागों में लपटे 9 धागों वाला एक सूत्र होता है यह सूत से बना पवित्र धागा होता है, जिसे व्यक्ति केवल संस्कार अनुष्ठान पूर्ण होने के बाद ही पहन सकता है

क्या है जनेऊ संस्कार ?

जनेऊ संस्कार को नवम संस्कार कर्णभेद यानि कर्णछेदन संस्कार के पश्चात किया जाता है ऐसा कहा जाता है कि जब बालक ज्ञान हासिल करने योग्य हो जाए तो उसका सर्वप्रथम जनेऊ संस्कार कराना चाहिए इसके बाद ही उसे ज्ञान हासिल करने हेतु पाठशाला भेजना चाहिए प्राचीन समय में जिस बालक का जनेऊ संस्कार नहीं होता था उसे मूढ़ श्रेणी में रखा जाता था अर्थात मूर्ख माना जाता था बता दें कि, जनेऊ को कई अन्य नामों से भी जाना जाता है जैसे उपवीत, यज्ञसूत्र, व्रतबन्ध, बलबन्ध, मोनीबन्ध, ब्रह्मसूत्र आदि. लेकिन जिस दूसरे नाम से यह मुख्य रूप से प्रचलित है वह है उपनयन संस्कार जिसका अर्थ है ‘ईश्वर और ज्ञान के निकट ले जाना’

जनेऊ संस्कार के लिए निश्चित आयु

तत्कालीन समय में वर्ण व्यवस्था के अनुसार ही जनेऊ संस्कार हेतु आयु निर्धारित की जाती थी। इस व्यवस्था के अंतर्गत ब्राह्मण बालक का आठवें साल में, क्षत्रिय बालक का 11 वें साल में और वैश्य बालक का 15 वें साल में उपनयन संस्कार होता था इसके अलावा, जिन ब्राह्मण जातकों की तीव्र बुद्धि हो उनके लिये उपनयन संस्कार वर्णानुसार पांचवें, जो क्षत्रिय जातक शक्तिशाली हों उनका छठे व जो वैश्य जातक कृषि करने की इच्छा रखते हों उनका उपनयन आठवें वर्ष में किये जाने का भी रिवाज था। अगर बात कन्याओं की की जाए तो हिन्दू ग्रंथों के मुताबिक़, पहले के समय में बालिकाओं के लिए जनेऊ संस्कार पूर्ण रूप से वर्जित था किन्तु आज के समय में जनेऊ के साथ साथ सभी संस्कारों का स्वरूप बदल चुका है इसका कारण यह है कि अब विद्या ग्रहण करना सबका अधिकार है और जैसे ही बच्चा सोचने समझने चलने फिरने बोलने के लायक होता है माता-पिता उसे शिक्षा ग्रहण करने के लिये विद्यालय में दाखिल करवा देते हैं हाँ, ये बात अलग है कि इस बदलाव के बाद भी हिंदू धर्म को मानने वाले कुछ समुदायों में वर्तमान में भी इस संस्कार को विधि-विधान से किया जाता है।


जनेऊ पहने के प्रमुख 3 कारण हैं—
  • प्राचीनकाल में पहले शिष्य, संत और ब्राह्मण बनाने के लिए दीक्षा दी जाती थी। दीक्षा देने के तरीकों में से एक और कई अधिक महत्वपूर्ण है जनेऊ धारण करना। आज भी ब्राह्मण परिवारों में इस रीत का नुसरन होता है। 
  • द्विजत्व अर्थात दुसरे जन्म के लिए जनेऊ धारण करना आवश्यक माना गया है। स्वार्थ की संकीर्णता से निकलकर परमार्थ की महानता में प्रवेश करने को और पशुता को त्याग कर मनुष्यता ग्रहण करने को दूसरा जन्म कहते हैं। पूर्व जन्म की स्मृतियों को नष्ट करने और दूसरे जन्म के लिए जनेऊ उत्कृष्ट माना गया है।
  • जनेऊ एक पवित्र सुत से बना धागा है। अतः इसे धारण करने से पवित्रता का अहसास होता है। यह मन को बुरे विचारों से बचाता है और मनुष्य को बुरे कार्यों से दूर रखता है।

जनेऊ धारक बनें

जनेऊ को हर उस हिन्दू को धारण करना चाहिए जो धर्म के नियम पर चलने के लिए उत्सुक हैं। कम से कम व्यक्ति को अपने बालक को जनेऊ तब तक तो धारण करवाना ही चाहिए जब तक कि वह शिक्षा ग्रहण कर रहा है। शास्त्रों के अनुसार, प्राचीन काल से ही जनेऊ संस्कार का बहुत महत्व है। ऐसा इसलिए क्योंकि न सिर्फ इस संस्कार के माध्यम से व्यक्ति वेदपाठ का अधिकारी बनता है बल्कि इस संस्कार में गायत्री मंत्र का जाप करने से बालक की आयु में वृद्धि भी होती है।

जनेऊ संस्कार विधि

जनेऊ संस्कार की मुख्य विधि शास्त्रों में लिखित है लेकिन इसकी सरल और सजह विधि यह है—
  • सबसे पहले जनेऊ संस्कार के लिए किसी पंडित द्वारा शुभ मुहूर्त निकलवाएँ।
  • शुभ मुहूर्त वाले दिन घर के आँगन में मंडप सजाएं।
  • उसी मंडप में सर्व प्रथम जिस बालक का जनेऊ संस्कार होना है उसका मुंडन कराएं।
  • मुंडन के बाद बालक के पूरे शरीर पर हल्दी लगाएं।
  • इसके बाद उसे स्नान कराएं।
  • स्नान के बाद बालक का शुद्ध और नवीन श्वेत वस्त्र(धोती व बगलबंदी) पहनना अनिवार्य है।
  • इसके बाद पंडित जी द्वारा हवन प्रारंभ किया जाता है।
  • हवन संपन्न होने के बाद बालक को पंडित जी गुरु मंत्र देते हैं, जिसमें गायत्री मंत्र का जाप विशेष है।
  • मंत्र का जाप करते करते बालक अपने स्थान से उठ कर संस्कार में आये सभी लोगों से भिक्षा मांगता है और लोग उसे दान दक्षिणा देते हैं. इसी के साथ जनेऊ संस्कार संपन्न होता है।
एक महत्वपूर्ण जानकारी— जब किसी बालक का जनेऊ संस्कार होता है तब उसे 3 तीन धागों से निर्मित जनेऊ धारण करवाया जाता है। जबकि विवाहित पुरुष 6 धागों से बना जनेऊ पहनते हैं।

जनेऊ धारण करने का धार्मिक महत्व

यज्ञोपवीत को व्रतबन्ध कहते हैं। धर्म शास्त्रों में यम-नियम को व्रत माना गया है। धार्मिक दृष्टि से माना जाता है कि जनेऊ धारण करने से शरीर शुद्ध और पवित्र होता है। शास्त्रों के अनुसार, आदित्य, वसु, रुद्र, वायु, अग्नि, धर्म, वेद, आप, सोम एवं सूर्य आदि देवताओं का निवास दाएं कान में होता है। अत: जनेऊ को दाएं हाथ से सिर्फ स्पर्श करने पर भी आचमन अर्थात पूजा करने के पूर्व जल से पवित्र होने की क्रिया का फल प्राप्त होता है।  जनेऊ में मुख्‍यरूप से तीन धागे होते हैं जो पांच विशिष्ट बातों की ओर संकेत करते हैं।

  • यह तीन सूत्र त्रिमूर्ति यानी कि ब्रह्मा, विष्णु और महेश के प्रतीक हैं।
  • यह तीन सूत्र देवऋण, पितृऋण और ऋषिऋण के प्रतीक हैं।
  • यह त्रिसूत्र सत्व, रज और तम का प्रतीक हैं।
  • यह त्रिसूत्र गायत्री मंत्र के तीन चरणों का प्रतीक हैं।
  • यह तीन धागे तीन आश्रमों का प्रतीक हैं। किन्तु संन्यास आश्रम में यज्ञोपवीत को उतार दिया जाता है।
  • जनेऊ के तीन धागों में तीन-तीन तार होते हैं। इस तरह कुल तारों की संख्‍या नौ होती है। एक मुख, दो नासिका, दो आंख, दो कान, मल और मूत्र के दो द्वार मिलाकर कुल नौ होते हैं।  हम मुख से अच्छा बोले और खाएं, आंखों से अच्छा देंखे और कानों से अच्छा सुनें. जनेऊ या यज्ञोपवीत में पांच गांठ लगाई जाती हैं जो ब्रह्म, धर्म, अर्ध, काम और मोक्ष का प्रतीक हैं। यह पांच यज्ञों, पांच ज्ञानेद्रियों और पंच कर्मों का भी प्रतीक भी है।  यज्ञोपवीत की लंबाई 96 अंगुल होती है. इसका अभिप्राय यह है कि जनेऊ धारण करने वाले को 64 कलाओं और 32 विद्याओं को सीखने का प्रयास करना चाहिए। चार वेद, चार उपवेद, छह अंग, छह दर्शन, तीन सूत्रग्रंथ, नौ अरण्यक मिलाकर कुल 32 विद्याएं होती हैं. 64 कलाओं में वास्तु निर्माण, व्यंजन कला, चित्रकारी, साहित्य कला, दस्तकारी, भाषा, यंत्र निर्माण, सिलाई, कढ़ाई, बुनाई, दस्तकारी, आभूषण निर्माण, कृषि ज्ञान आदि सब कलाएं आती हैं।

ज्योतिषीय महत्व
बालक को उसके बालपन में 2 जनेऊ धारण कराए जाते हैं जो इस बात को निर्धारित करते हैं कि आगे चलकर भविष्य में उसे विवाह के बाद दो जिम्मेदारियां उठानी हैं, एक पत्नी पक्ष की और दूसरा खुद अपने पक्ष की. ज्योतिष शास्त्र के मुताबिक़।  ये पक्ष ग्रहों और नक्षत्रों के भार को दर्शाते हैं। जब कोई व्यक्ति अपने दोनों पक्षों का ऋण अथवा भार वहन कर लेता है मतलब अच्छे से निभा लेता है तो उसे असीम शान्ति का अनुभव होता है. जिसका अर्थ है उस व्यक्ति के जीवन में चन्द्रमा सुगम योग बना रहा है और चन्द्र की चाल कुछ शुभ घटित करने वाली है।

जनेऊ से सम्बंधित दिलचस्प बातें
  • 01--कान में क्यों और कब लगाते हैं जनेऊ
  • मल-मूत्र विसर्जन के पूर्व जनेऊ को कानों पर कस कर दो बार लपेटना शास्त्रोक्त नियम भी और पवित्रता के नज़रिए से ज़रूरी भी. इसके तीन कारण हैं—
  • पहला यह कि ऐसा करने से जनेऊ ऊपर की ओर हो जाता है जिसके चलते यह अपवित्र नहीं होता।
  • 02- दूसरा कारण यह है कि कान के पीछे की दो नसें, जिनका संबंध पेट की आंतों से होता है, आंतों पर दबाव डालकर उनको पूरा खोल देती है, जिससे मल विसर्जन आसानी से हो जाता है। इसके अलावा, कान के पास की ही एक नस से मल-मूत्र विसर्जन के समय कुछ द्रव्य विसर्जित होते हैं। जनेऊ उन द्रव्यों के वेग को रोक देता है, जिससे कब्ज, एसीडीटी, पेट रोग, रक्तचाप, हृदय रोग सहित अन्य संक्रामक रोग नहीं होते।
  • तीसरा कारण यह है कि कान पर जनेऊ लपेटने से मनुष्य में सूर्य नाड़ी का जाग्रण होता है।

जनेऊ पहनने के अन्य लाभ
कहते हैं कि यदि जनेऊ के सभी नियमों का पालन किया जाए तो इससे जीवाणुओं और कीटाणुओं से बचाव होता है।  गुर्दे की सुरक्षा होती है क्योंकि जनेऊधारी बैठकर जलपान और पेशाब करता है। इसके अलावा, इससे हृदय रोग व ब्लडप्रेशर कंट्रोल में रहता है।  साथ ही, जनेऊ लकवे से बचाव करने में भी सक्षम है। और तो और, इससे शुक्राणुओं की रक्षा होती है, स्मरण शक्ति बढ़ती है, आचरण की शुद्धता से मानसिक बल बढ़ता है और बुरे विचार व दुष्ट लोगों से रक्षा होती है।

अन्य धर्मों में भी जनेऊ संस्कार की रीत
हिन्दू धर्म से प्रेरित प्राचीनकाल से चली आ रही उपनयन संस्कार की परंपरा सभी धर्मों में किसी न किसी रूप में मनाई जाती है. जैसे—
  • मक्का में काबा की परिक्रमा से पूर्व यह संस्कार किया जाता है। इसके अलावा, यहूदी और इस्लाम धर्म में खतना करके दीक्षा दी जाती है।
  • बौद्ध धर्म से इस परंपरा के निभाए जाने के चिह्न मिलते हैं. सारनाथ की अति प्राचीन बुद्ध की प्रतिमा का सूक्ष्म निरीक्षण करने से उनकी छाती पर यज्ञोपवीत की सूक्ष्म रेखा दिखाई देती है।
  • जैन धर्म में भी इस संस्कार को किया जाता है।
  • वित्र मेखला अधोवसन (लुंगी) का सम्बन्ध पारसियों से भी है. पारसियों में भी जनेऊ संस्कार का चलन है।
  • सिख धर्म में जनेऊ संस्कार को अमृत संचार कहते हैं।
  • जनेऊ संस्कार को अपनाते हुए ईसाई धर्म ने भी इस परंपरा का स्वागत किया जिसे उनके धर्मानुसार बपस्तिमा कहते हैं।

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