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भारतीय संस्कृति में श्राद्ध संस्कार व तर्पण का महत्व

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भारतीय सनातन परम्परा में श्राद्ध और तर्पण कर्म का विशेष महत्व है। इसे धर्माचरण के अंग के रूप में परिगणित किया गया है। वैदिककाल, सूत्रकाल अथवा पुराणकाल से लेकर मध्यकाल के धर्मशास्त्रकारों तक सभी लोगों ने श्राद्ध और तर्पण की महत्व की व्याख्या की है।

‘श्राद्ध’ क्या हैं- 
वेदों में ‘उपास्य’ (जिसकी उपासना या पूजा की जाती है) देवता बताए गए हैं और यज्ञ में भी ‘उपास्य’ देवता ही होते हैं। यज्ञ का मुख्य उद्देश्य देवताओं का तृप्त करना था। इसी प्रकार पुराणकाल में पितरों की तृप्ति व संतुष्टि के लिए श्राद्ध व तर्पण का विधान बताया गया है। जिस प्रकार यज्ञ से देवतृप्त होते हैं, उसी प्रकार श्राद्ध व तर्पण से पितरों की संतुष्टि होती है। वेद और उपनिषद में यज्ञ से देवों की तृप्ति के रहस्य का वर्णन है, वहाँ दूसरी और पुराण व स्मृतियों में श्राद्ध व तर्पण से पितरों की तृप्ति के रहस्य का वर्णन है।

वैदिक ग्रन्थों में ‘श्राद्ध’ शब्द का उल्लेख नहीं है किन्तु एक शब्द ‘पितृयज्ञ’  का उल्लेख है जिसे पितरों से जोड़ा गया है- किन्तु यह ज्ञातव्य है कि‘श्राद्ध’ शब्द किसी भी प्राचीन वैदिक ग्रन्थ में नहीं पाया जाता, यद्यपि पिण्ड-पितृयज्ञ (जो आहिताग्नि द्वारा प्रत्येक मास की अमावस्या को सम्पादित होता था), महा-पितृयज्ञ (चातुर्मास्य या सकमेघ में सम्पादित) एवं अष्ट का आरम्भिक वैदिक साहित्य में पाये जाते हैं।

वेदानुसार यज्ञ 5 प्रकार के होते हैं- 1. ब्रह्म यज्ञ, 2. देवयज्ञ, 3. पितृयज्ञ, 4. वैश्वदेव यज्ञ, 5. अतिथि यज्ञ। उक्त 5 यज्ञों को पुराणों और अन्य ग्रंथों में विस्तार दिया गया है। उक्त 5 यज्ञों में से ही एक यज्ञ है पितृयज्ञ। इसे पुराण में श्राद्ध कर्म की संज्ञा दी गई है।

  • “पितृयज्ञ” शब्द ऋग्वेद में आया है मनुस्मृति में वर्णन है कि पितृयज्ञ तीन प्रकार से सम्पादित होता है। तर्पण द्वारा, बलिहरण द्वारा, जिसमें बलि का शेषांश पितरों को दिया जाता है एवं प्रतिदिन श्राद्ध द्वारा- जिसमें कम से कम एक ब्राह्मण को खिलाया जाता था।
  • गृहस्थाश्रमी के लिए विहित पंचमहायज्ञों का अन्तिम अंग पितृयज्ञ है-पितृयज्ञ में श्राद्ध और तर्पण को महत्वपूर्ण स्थान दिया गया है।इसके द्वारा पितरों को सन्तुष्ट किया जाता है। जल के अन्दर सशिर स्नान करने के उपरान्त जल में खड़े होकर तर्पण किया जाता है। श्राद्ध पितृयज्ञ तर्पण के बाद दूसरा महत्वपूर्ण अंग है। धर्मसूत्रकारों ने तर्पण को स्नान तथा ब्रह्मयज्ञ का अग माना है। देवताओं, पितरों तथा ऋषियों को जल देना ही तर्पण कहलाता है। सभी धर्माचार्यों ने श्राद्ध और तर्पण का विस्तृत विवेचन किया है।

अथर्ववेद में उल्लेख है-

अहमेवास्म्यमावास्या… समगच्छन्त सर्वे।। -अथर्व 7/79/2

अर्थात- सूर्य-चन्द्र दोनों अमा साथ-साथ बसते हों, वह तिथि अमावस्या मैं हूं। मुझमें सब साध्यगण, पितृविशेष और इन्द्र प्रभृति देवता इकट्ठे होते हैं।

परा यात पितर… अधा मासि पुनरा यात नो गृहान्…।। -अथर्व18/4/63

अर्थात- हे सोमपानकर्ता पितृगण! आप अपने पितृलोक के गंभीर असाध्य पितृयाण मार्गों से अपने लोक को जाएं। मास की पूर्णता पर अमावस्या के दिन हविष्य का सेवन करने के लिए हमारे घरों में आप पुन: आएं। हे पितृगण! आप ही हमें उत्तम प्रजा और श्रेष्ठ संतति प्रदान करने में सक्षम हैं।

गंगा माहात्म्य का वर्णन करते हुए विष्णु पुराण में कहा है किजो मनुष्य गंगा में स्नान करके पितृगण का आदर पूर्वक अर्चन करते हैं, वह सभी पापों से मुक्त हो जाते हैं। पितृगण भी पुण्यतीर्थों को जलाञ्जलि की कामना करते रहते हैं। गंगा प्रवाह में पुत्रों द्वारा किया गया एक दिन का तर्पण, उन्हें सौ वर्ष तक दुर्लभ तृप्ति प्रदान करता है।
  • पितरों के लिये अंजलि में जल लेकर उसे भूस्खधा ओ सुवस्सवधा ओ सुवस्स्वधा ओ ओसुवस्स्वधा भूर्भुवस्सुवर्म हर्नम!’ आदिमन्त्र के साथ तर्पण करना चाहिये। तर्पण करने के उपरान्त सूर्यदेव की स्तुति करे।

‘हिन्दू कोश’ में श्रद्धा पूर्वक पितरों की तृप्ति के लिए किये गये धार्मिक कृत्य को श्राद्ध कहते हैं। इसे ही ‘पितृयज्ञ’ भी कहते हैं। ‘स्वामी दयानन्द’ ने पितृयज्ञ के तर्पण एवं श्राद्ध नामक दो भेद हैं जबकि कुछ विद्वानों के अनुसार श्राद्ध और तर्पण पृथक्-पृथक्कर्म नहीं है अपितु पितृयज्ञ के ही दो रूप है।

‘कठोपनिषद्’ में श्राद्ध शब्द आया है, जो भी कोई इस अत्यन्त विशिष्ट सिद्धान्त को ब्राह्मणों की सभा में या श्राद्ध के समय उद्घोषित करता है वह अमरता को प्राप्त करता है। ‘श्राद्ध’ शब्द का आरम्भिक प्रयोग सूत्र साहित्य में प्राप्त होता हैं।

श्राद्ध शब्द की उत्पत्ति ‘श्रद्धा’ शब्द में ‘अण्’ प्रत्यय के संयोग से होती है। पाणिनि के मतानुसार-

श्रद्धाप्रयोजनमस्य इति श्राद्धम्‘ अथवा ‘श्रद्धया यत्क्रियते तच्छ्राद्धम्

अर्थात्- श्रद्धा ही श्राद्ध का प्रयोजन है। प्रायः धार्मिक कृत्यों के मूल में अटूट विश्वास एवं दृढ़ संकल्पितभाव का नाम ही श्रद्धा है।

श्राद्ध शब्द के मूल में ‘श्रद्धा’ शब्द निहित है क्योंकि यह श्रद्धा का विषय है… श्रद्धा के यथार्थ स्वरूप का नाम ही विश्वास है। विश्वास के अर्थ में श्रद्धा का ऋग्वेद में अनेक बार उल्लेख हुआ है। श्रद्धाभक्ति पूर्वक पितरों को लक्षित करके जो कुछ ब्राह्मणों को प्रदान किया जाता है, वह श्राद्ध कहलाता है।

याज्ञवल्क्य स्मृति में उल्लिखित है-

‘श्राद्धं नामादनीयस्य तत्स्थानीयस्य वा। द्रव्यस्य प्रेतोद्देशेन श्रद्धया त्यागः।।

अर्थात्- पितरों को उद्देश्य करके उनके निमित्त अथवा उनके प्रतिनिधियों(ब्राह्मणों) को श्रद्धापूर्वक किया गया द्रव्य का त्याग ही, ‘श्राद्ध’ है।

श्राद्ध के सन्दर्भ में पारस्कर गृह्यसूत्र में उल्लेख किया गया है –

‘श्रद्धया दीयते यस्मात् तेन श्राद्धं निगद्यते’

अर्थात् – जिसमें श्रद्धापूर्वक दिया जाता है, उसे श्राद्ध करते हैं।

ऋग्वेद के कौषीतकि गृह्यसूत्र में उल्लेखित है-

दिवताः पितरो नित्यं गच्छन्ति गृहमेधिनम् ।।
भागार्थमतिथिश्चापि तेभ्यो निर्वप्तुमर्हति ।।

अर्थात्- देवता, पितर व अतिथि नित्यप्रति अपने-अपने भाग की अपेक्षा से गृहस्थके यहाँ आते हैं तथा वे उन्हें अपनी सामर्थ्यानुसार तृप्त करते हैं। शांखायन ने भी इस उक्तिका यथावत् समर्थन किया है।

‘ब्रह्मपुराण’ में श्राद्ध की परिभाषा देते हुए कहा गया है किजो कुछ उचित काल, पात्र एवं स्थान के अनुसार उचित(शास्त्रानुमोदित) विधि द्वारा पितरों को लक्ष्य करके श्रद्धापूर्वक ब्राह्मणोंको दिया जाता है वह ‘ श्राद्ध’ कहलाता है।

‘याज्ञवल्क्यस्मृति‘ में ‘मिताक्षरा’ ने श्राद्ध की परिभाषा देते हुएकहा है कि पितरों का उद्देश्य करके (उनके कल्याण के लिए) श्रद्धापूर्वक किसी वस्तु का या उनसे सम्बन्धित किसी द्रव्य का त्याग* श्राद्ध’ है।

‘स्कन्दपुराण के अनुसार श्राद्ध’ नाम इसलिए पड़ा है कि उस कृत्य में श्रद्धा मूल में निहित होती है। इसका तात्पर्य यह है किइसमें न केवल विश्वास है, अपितु एक अटल धारणा है कि व्यक्तिको यह करना ही है।

वैदिकोत्तरकालीन साहित्य में ‘पाणिनि‘ ने ‘श्राद्धिन्’ और‘श्राद्धिक’ को -वह जिसने श्राद्ध-भोजन कर लिया हो’ के अर्थ में निश्चित किया है। ‘श्राद्ध’ शब्द ‘श्रद्धा’ से निकाला जा सकता है।

‘मार्कण्डेयपुराण’ में ‘श्राद्ध’ का सम्बन्ध श्रद्धा से द्योतित किया गया है और कहा गया है कि श्राद्ध में जो कुछ भी दिया जाता है।वह पितरों द्वारा प्रयुक्त होने वाले उस भोजन में परिवर्तित हो जाताहै जिसे वे कर्म एवं पुनर्जन्म के सिद्धान्त के अनुसार नए शरीर के रूप में पाते हैं।

देवों और पितरों की दिशा- पितरों एवं देवी-देवताओं के निमित्त सम्पन्न किए जाने वाले कार्यों के समय दिशाओं का विचार किया जाता है। इस सन्दर्भ में उल्लेख है कि प्राचीन काल में देवों तथा मनुष्यों ने दिशाओं का विभाजन कर लिया था जिसमें देवों ने पूर्व, पितरों ने दक्षिण, मनुष्यों ने पश्चिम एवं रुद्रों ने उत्तर दिशा को स्वीकार किया था।

सामान्यत: यह आज भी देखा जाता है कि देव-पूजा पूर्वाभिमुख तथा पितर-पूजा दक्षिणाभिमुख की जाती है। यह कर्मकाण्ड का नियम है कि देवों के निमित्त यज्ञ मध्याह्न से पहले प्रारम्भ किए जाते हैं तथा पितृयज्ञ अपराह्न में किए जाते हैं।

श्राद्ध (पितृ-पूजा) एवं देव पूजा में यज्ञोपवीत (जनेऊ) का विशेष महत्त्व है- यह जानना आवश्यक है कि यज्ञोपवीत देव यज्ञ में बायें कन्धे के ऊपर एवं दाहिने हाथ के नीचे से रहता है। तथा पितृ-कृत्य के समय इसमें विपरीत अर्थात् दायें कन्धे के ऊपर तथा बायें हाथ के नीचे रहता है।

श्राद्ध के 12 प्रकार- 
प्रथम वर्गीकरण के अनुसार श्राद्धों को तीन भागों में बांटा गया है। 1. नित्य 2. नैमित्तिक एवं काम्य।’  हालांकि भविष्यपुराण के अन्तर्गत 12 प्रकार के श्राद्धों का वर्णन है-
  • नित्य- प्रतिदिन किए जाने वाले श्राद्ध को नित्य श्राद्ध कहते हैं।
  • नैमित्तिक- वार्षिक तिथि पर किए जाने वाले श्राद्ध को नैमित्तिक श्राद्ध कहते हैं।
  • काम्य- किसी कामना के लिए किए जाने वाले श्राद्ध को काम्य श्राद्ध कहते हैं।
  • नान्दी- किसी मांगलिक अवसर पर किए जाने वाले श्राद्ध को नान्दी श्राद्ध कहते हैं।
  • पार्वण – पितृपक्ष, अमावस्या एवं तिथि आदि पर किए जाने वाले श्राद्ध को पार्वण श्राद्ध कहते हैं।
  • सपिण्डन- त्रिवार्षिक श्राद्ध जिसमें प्रेतपिण्ड का पितृपिण्ड में सम्मिलन कराया जाता है
  • गोष्ठी- पारिवारिक या स्वजातीय समूह में जो श्राद्ध किया जाता है उसे गोष्ठी श्राद्ध कहते हैं।
  • शुद्धयर्थ- शुद्धि हेतु जो श्राद्ध किया जाता है उसे शुद्धयर्थ श्राद्ध कहते हैं। इसमें ब्राह्मण-भोज आवश्यक होता 
  • है।
  • कर्मांग- षोडष संस्कारों के निमित्त जो श्राद्ध किया जाता है उसे कर्मांग श्राद्ध कहते हैं।
  • दैविक – देवताओं के निमित्त जो श्राद्ध किया जाता है उसे दैविक श्राद्ध कहते हैं।
  • यात्रार्थ- तीर्थ स्थानों में जो श्राद्ध किया जाता है उसे यात्रार्थ श्राद्ध कहते हैं।
  • पुष्ट्यर्थ- स्वयं एवं पारिवारिक सुख-समृद्धि व उन्नति के लिए जो श्राद्ध किया जाता है।
किसको श्राद्ध करने का अधिकार-  
गौतमधर्मसूत्र’ का कथन है कि “पुत्रों के अभाव में सपिण्डलोग (भाई-भतीजे), माता के सपिण्ड लोग (मामा या ममेरा भाई) एवं शिष्य लोग श्राद्ध कर्म कर सकते हैं। अगर यह नहीं हैं तो कुल-पुरोहित एवं आचार्य (वेद-शिक्षक) श्राद्ध कर्म कर सकते हैं।
  • पिता के लिए पिण्डदान एवं जल-तर्पण पुत्र द्वारा होना चाहिए; पुत्राभाव में (अनुपस्थिति या मृत्यु पर) यह पत्नी का अधिकार है और पत्नी के अभाव में सगा भाई भी श्राद्ध कर्म कर सकता है।  ‘विष्णुपुराण’ में कहा गया है कि (मृत के) पुत्र, पौत्र, भाई की संतति पिण्डदान करने के अधिकारी होते हैं।
  • मार्कण्डेयपुराण’ में कहा गया है कि यदि व्यक्ति अपुत्र ही मर जाए तो पुत्री का पुत्र भी पिण्ड दान कर सकता है। नाना के लिए पुत्रि का पुत्र पिण्डदान कर सकता है। इन लोगों के अभाव में पत्नियाँ बिना मन्त्रों के श्राद्ध-कर्म कर सकती हैं, पत्नी के अभाव में कुल के किसी व्यक्ति द्वारा श्राद्ध कर्म किया जा सकता है।
  • पिता अपने पुत्र के श्राद्ध कर्म योग्य नहीं होता है और न बड़ा भाई छोटे भाई के श्राद्ध कर्म योग्य माना जाता है, ये लोग स्नेहवश वैसा कर सकते हैं किन्तु सपिण्डीकरण नहीं कर सकते।
  • माता-पिता कुमारी कन्याओं को पिण्ड दान कर सकते हैं, यहाँ तक कि वे किसी योग्य व्यक्ति के अभाव में विवाहित कन्याओं को भी पिण्ड दानकर सकते हैं। पुत्री का पुत्र एवं नाना एक-दूसरे को पिण्ड दानकर सकते हैं; इसी प्रकार दामाद और ससुर भी कर सकते हैं, पुत्रवधू सास को पिण्ड दानकर सकती है।
श्राद्ध कराने योग्य ब्राह्मण
  • श्राद्ध कर्ता चाहे जो भी हो लेकिन श्राद्ध योग्य ब्राह्मण श्राद्ध कर्म में विशेष महत्त्व रखते है। इस विषय में बहुत से ग्रन्थों में योग्य ब्राह्मणों का उल्लेख किया गया है-
  • ‘गौतमधर्मसूत्र’ के अनुसार- आमंत्रित ब्राह्मणों को वेदज्ञ, अत्यन्त संयमी, क्रोध एंव वासनाओं से मुक्त तथा मन एवं इन्द्रियों पर संयम करने वाले एवं शुद्धाचरण वाले, पवित्र होना चाहिए।
  • ‘शंख-लिखित’के अनुसार जो वेद अथवा वेदांगो का ज्ञाता हो, जो पंचाग्नियां रखता है; जो वेदस्वाध्यायी हो, जो सांख्य, योग, उपनिषदों एवं धर्मशास्त्र को जानता हो।
  • ‘मनुस्मृति’ में भी कहा गया है कि श्राद्ध के समय ऐसे ब्राह्मण को आमंत्रित करें जो न मित्र हो और न शत्रु, जो व्यक्ति केवल मित्र बनाने के उद्देश्य लिए श्राद्ध करता है और देवार्पण करता है।
आमन्त्रित ब्राह्मणों की संख्या- 
श्राद्ध में आमन्त्रित ब्राह्मणों की संख्या के विषय में विद्वानों में पर्याप्त मतभेद पाया जाता है। ‘आश्वलायनगृह्यसूत्र’ के अनुसार श्राद्ध में आमन्त्रित ब्राह्मणों की संख्या जितनी अधिक उतने ही अधिक फलकी प्राप्ति होती है। ‘शंखायनगृह्यसूत्र’ के अनुसार श्राद्ध में आमन्त्रित ब्राह्मणों की संख्या कम-से-कम तीन होनी चाहिए। ऋषि ‘गौतम’ के अनुसार भी ब्राह्मणों की संख्या कम-से-कम होनी चाहिए।

श्राद्ध में ब्राह्मण भोजन के बर्तन कैसे हो- 
सोने, चांदी, कांसे और तांबे के बर्तन भोजन के लिए सर्वोत्तम हैं। पितृ, चांदी के बर्तन से किए तर्पण से तृप्त होते हैं।
  • श्राद्ध और तर्पण में लोहे और स्टील के बर्तन का प्रयोग न करें।
  • केले के पत्ते पर श्राद्ध का भोजन नहीं कराना चाहिए।
  • शास्त्रों में लिखा है कि इससे पितरों को तृप्ति नहीं मिलती।
  • श्राद्ध तिथि पर भोजन के लिए, ब्राह्मणों को पहले से आमंत्रित करें।
  • दक्षिण दिशा में बैंठाएं, क्योंकि दक्षिण में पितरों का वास होता है।
  • हाथ में जल, अक्षत, फूल और तिल लेकर संकल्प कराएं।
  • कुत्ते, गाय, कौए, चींटी और देवता को भोजन कराने के बाद, ब्राह्मणों को भोजन कराएं।
  • भोजन दोनों हाथों से परोसें, एक हाथ से परोसा भोजन, राक्षस छीन लेते हैं।
  • बिना ब्राह्मण भोज के, पितृ भोजन नहीं करते और शाप देकर लौट जाते हैं।
  • ब्राह्मणों को तिलक लगाकर कपड़े, अनाज और दक्षिणा देकर आशीर्वाद लें।
  • भोजन कराने के बाद, ब्राह्मणों को द्वार तक छोड़ें।
  • ब्राह्मणों के साथ पितरों की भी विदाई होती हैं।
  • ब्राह्मण भोजन के बाद, स्वयं और रिश्तेदारों को भोजन कराएं।
  • श्राद्ध में कोई भिक्षा मांगे, तो आदर से उसे भोजन कराएं।
  • कुत्ते और कौए का भोजन, कुत्ते और कौए को ही खिलाएं, गाय को नहीं।
श्राद्ध के भोजन में क्या परोसें क्या नहीं
क्या  पकाएं
  • खीर पूरी अनिवार्य है।
  • जौ, मटर और सरसों का उपयोग श्रेष्ठ है।
  • ज़्य़ादा पकवान पितरों की पसंद के होने चाहिए।
  • गंगाजल, दूध, शहद, कुश और तिल सबसे ज्यादा ज़रूरी है।
  • तिल ज़्यादा होने से उसका फल अक्षय होता है।
  • तिल पिशाचों से श्राद्ध की रक्षा करते हैं।
क्या न पकाएं
  • चना, मसूर, उड़द, कुलथी, सत्तू, मूली, काला जीरा।
  • कचनार, खीरा, काला उड़द, काला नमक, लौकी,प्याज और लहसन।
  • बड़ी सरसों, काले सरसों की पत्ती और बासी, खराब अन्न, फल और मेवे।
श्राद्ध और तर्पण कर्म के प्रचलन की प्राचीनता: 
आरम्भिक काल में पूर्वजों को प्रसन्न करने के लिए जो आहुतियाँ दी जाती थी अथवा उत्सव किए किए जाते थे वे कालान्तर में श्रद्धा एवं स्मरण चिह्नों के रूप में प्रचलित हो गए।

प्राक्वैदिक इतिहास में पितरों के विषय में कतिपय विश्वास प्रकट किए गए हैं। ‘बौधायनधर्मसूत्र’ ने एक ब्राह्मण ग्रन्थ से निष्कर्ष निकाला है कि पितर लोग पक्षियों के रूप में विचरण करते हैं।

‘वायुपुराण’ में ऐसा कहा गया है कि श्राद्ध के समय पितर लोग आमन्त्रित ब्राह्मणों में वायु रूप से प्रविष्ट हो जाते हैं और जब योग्य ब्राह्मण वस्त्रों, अन्नों, भक्ष्यों, पेयों, गायों, अश्वों और ग्रामों आदि से सम्पूजित हो जाते हैं तो वे प्रसन्न होते हैं।

मनु का भी कथन है। कि पितर लोग आमन्त्रित ब्राह्मणों में प्रवेश करते हैं।

‘आपस्तम्बधर्मसूत्र’ में कहा गया है कि पुराने काल में मनुष्य एवं देव इसी लोक में रहते थे। देव यज्ञों के कारण स्वर्ग चले गए, किन्तु मनुष्य यहाँ रह गए। जो मनुष्य देवों के समान यज्ञ करते हैं वे परलोक (स्वर्ग) में देवों एवं ब्रह्म के साथ निवास करते हैं। तब मनु ने मनुष्यों को पीछे रहते देखकर उस कृत्य का आरम्भ किया जिसे श्राद्ध’ की संज्ञा मिली है जो मानव जाति को श्रेय (मुक्ति या आनन्द) की ओर ले जाता है।

इसी प्रकार ‘महाभारत’ एवं ‘विष्णुधर्मोत्तरपुराण’ में आया है कि श्राद्ध-प्रथा का संस्थापन विष्णु के वराहावतार के समय हुआ और विष्णु को पिता, पितामह एवं प्रपितामह को दिए गए तीनों पिण्डों में अवस्थित मानना चाहिए।

आपस्तम्बधर्मसूत्र’ के वचन से ऐसा अनुमान लगाया जा सकता है। कि ईसा की कई शताब्दियों पूर्व श्राद्ध प्रथा स्थापित हो चुकी थी और यह मानवजाति के पिता मनु के समान ही प्राचीन है, किन्तु यह ज्ञातव्य है कि ‘श्राद्ध’ शब्द किसी भी प्राचीन वैदिक ग्रन्थ में नहीं पाया जाता यद्यपि पिण्डपितृयज्ञ (जो आहिताग्नि द्वारा प्रत्येक मास की अमावस्या को सम्पादित होता था), महापितृयज्ञ (चातुर्मास्य या साकमेध में सम्पादित) एवं अष्टका आरम्भिक वैदिक साहित्य में ज्ञात थे।

श्राद्ध-तर्पण से जुड़ी अलग-अलग कथाएं
सर्वप्रथम राजा भगीरथ ने अपने पूर्वजों का गंगाजल-अक्षत-तिल से श्राद्ध-तर्पण किया था- 
राजा भगीरथ सूर्यवंशी थे, जिन्होंने तपकर मां गंगा को धरती पर लाकर कपिल मुनि के शाप से अपने 60 हजार पूर्वजों को मोक्ष प्रदान करवाया था। राजा भगीरथ ने अपने पूर्वजों का गंगाजल, अक्षत, तिल से श्राद्ध तर्पण किया था। तब से माघ मकर संक्रांति में स्नान और तिल का महत्व आजतक चला आ रहा है। कपिल मुनि के आश्रम पर जिस दिन मां गंगा आई थीं, वह मकर संक्रांति का ही दिन था। मां गंगा के जल से राजा भगीरथ के पूर्वजों को स्वर्ग की प्राप्ति हुई थी। तब कपिल मुनि ने वरदान देते हुए कहा था, ‘मातु गंगे त्रिकाल तक जन-जन का पापहरण करेंगी और भक्तजनों की सात पीढिय़ों को मुक्ति एवं मोक्ष प्रदान करेंगी।

सबसे पहले भगवान श्रीराम ने किया था पुनपुन नदी के तट पर पूर्वजों का पिंडदान- 
पुनपुन का घाट प्रथम पिंडदान स्थल है, जहां देश-विदेश के श्रद्धालु अपने पितरों के लिए पूजा एवं तर्पण करते हैं। पौराणिक मान्यताओं के अनुसार, पुनपुन नदी (पटना से करीब 13 किलोमीटर दूर पुनपुन) को पितृ तर्पण की प्रथम वेदी के रूप में स्वीकार किया गया है। ऐसा कहा जाता है कि मर्यादा पुरुषोत्तम भगवान श्रीराम ने सबसे पहले पुनपुन नदी के तट पर ही अपने पूर्वजों का पिंडदान किया था। उसके बाद ही उन्होंने गया में फल्गु नदी के तट पर पिंडदान किया था। परंपरा के अनुसार, पितृ पक्ष के दौरान पितरों के मोक्ष दिलाने के लिए गया में पिंडदान से पहले पितृ-तर्पण की प्रथम वेदी के रूप में मशहूर पुनपुन नदी में प्रथम पिंडदान का विधान है। पुराणों में वर्णित ‘आदि गंगा’ पुन: पुन: कहकर पुनपुन को आदि गंगा के रूप में महिमामंडित किया गया है और इसकी महत्ता सर्वविदित है।

गया में श्राद्ध का महत्व
  • दो विशेष स्थानों के कारण गया का महत्व काफी बढ़ जाता है। विष्णुपद मन्दिर और फल्गु नदी तट गया को विशेष बनाते हैं। पौराणिक कथाओं के अनुसार, भगवान विष्णु के चरण कमल विष्णुपद मंदिर में विराजमान हैं, जिसकी पूजा के लिए लोग दुनिया के कोने कोने से आते हैं।
  • दूसरा सबसे महत्वपूर्ण स्थान है फल्गु नदी का तट। पौराणिक मान्यताओं के अनुसार, यहां पर श्राद्ध कर्म करने से पितरों को बैकुंठ प्राप्त होता है। इस कारण से हिन्दू अपने पितरों को पिंडदान और तर्पण के लिए एक बार गया जरूर आते हैं। गया में पिंडदान करने वाला व्यक्ति भी स्वयं परमगति को प्राप्त करता है।
  • कहा जाता है कि भगवान राम ने अपने पिता राजा दशरथ के आत्मा की शांति के लिए सीता जी के साथ गया में पिंडदान किया था। तब से ऐसी मान्यता है कि जो भी गया में अपने पितरों को पिंडदान करेगा, उसके पितर तृप्त हो जाएंगे। वह व्यक्ति पितृ ऋण से मुक्त हो जाएगा।
महाभारत के अनुशासन पर्व के अनुसार ऐसे शुरू हुआ था श्राद्ध पूजन-
महाभारत के ‘अनुशासन पर्व’ में भी भीष्म पितामह ने युधिष्ठिर को श्राद्ध के संबंध में कई ऐसी बातें बताई हैं, जो वर्तमान समय में बहुत कम लोग जानते हैं. सबसे पहले श्राद्ध का उपदेश महर्षि निमि को महातपस्वी अत्रि मुनि ने दिया था. इस प्रकार पहले निमि ने श्राद्ध का आरंभ किया, उसके बाद अन्य महर्षि भी श्राद्ध करने लगे. धीरे-धीरे चारों वर्णों के लोग श्राद्ध में पितरों को अन्न देने लगे. लगातार श्राद्ध का भोजन करते-करते देवता और पितर पूर्ण तृप्त हो गए. श्राद्ध का भोजन लगातार करने से पितरों को अजीर्ण (भोजन न पचना) रोग हो गया और इससे उन्हें कष्ट होने लगा. तब वे ब्रह्माजी के पास गए और उनसे कहा कि ‘श्राद्ध का अन्न खाते-खाते हमें अजीर्ण रोग हो गया है. इससे हमें कष्ट हो रहा है. आप हमारा कल्याण कीजिए.’ देवताओं की बात सुनकर ब्रह्माजी बोले- ‘मेरे निकट ये अग्निदेव बैठे हैं. ये ही आपका कल्याण करेंगे.’ अग्निदेव बोले- ‘देवताओं और पितरों अब से श्राद्ध में हम लोग साथ ही भोजन किया करेंगे. मेरे साथ रहने से आप लोगों का अजीर्ण दूर हो जाएगा.’ यह सुनकर देवता व पितर प्रसन्न हुए. इसलिए श्राद्ध में सबसे पहले अग्नि का भाग दिया जाता है. महाभारत के अनुसार श्राद्ध में जो तीन पिंडों का विधान है उनमें से पहला जल में डाल देना चाहिए. दूसरा पिंड श्राद्धकर्ता की पत्नी को खिला देना चाहिए और तीसरे पिंड की अग्नि में छोड़ देना चाहिए. यही श्राद्ध का विधान है. जो इसका पालन करता है उसके पितर सदा प्रसन्नचित्त और संतुष्ट रहते हैं और उसका दिया हुआ दान अक्षय होता है.

कर्ण की वजह से मनता है पितृपक्ष, कर्ण की पौराणिक कथा- 
महाभारत के दौरान, कर्ण की मृत्यु हो जाने के बाद जब उनकी आत्मा स्वर्ग में पहुंची तो उन्हें बहुत सारा सोना और गहने दिए गए। कर्ण की आत्मा को कुछ समझ नहीं आया, वह तो आहार तलाश रहे थे। उन्होंने देवता इंद्र से पूछा किउन्हें भोजन की जगह सोना क्यों दिया गया। तब देवता इंद्र ने कर्ण को बताया कि उसने अपने जीवित रहते हुए पूरा जीवन सोना दान किया लेकिन अपने पूर्वजों को कभी भी खाना दान नहीं किया। तब कर्ण ने इंद्र से कहा उन्हें यह ज्ञात नहीं था कि उनके पूर्वज कौन थे और इसी वजह से वह कभी उन्हें कुछ दान नहीं कर सकें। इस सबके बाद कर्ण को उनकी गलती सुधारने का मौका दिया गया और 16 दिन के लिए पृथ्वी पर वापस भेजा गया, जहां उन्होंने अपने पूर्वजों को याद करते हुए उनका श्राद्ध कर उन्हें आहार दान किया। तर्पण किया, इन्हीं 16 दिन की अवधि को पितृ पक्ष कहा गया। ब्राह्मण साक्षात् अग्नि स्वरूप हैं क्योंकि जिस प्रकार अग्नि में सम्पादित आज्य, चरु एवं अन्य विविध होम वह (अग्नि) आत्मसातकरके अभीष्ट देवी-देवताओं को तृप्त करता है। ठीक उसी प्रकार पितर श्राद्ध में आमन्त्रित

तर्पण की पद्धति
  • बोधायन ने कहा है, ‘तर्पण नदी पर करें ।’ यह तर्पण नदी में नाभि तक पानी में खडे रहकर अथवा नदी के किनारे बैठकर करें ।
  • देवताओं तथा ऋषियों के लिए पूर्व की ओर मुख कर तथा पितरों के लिए दक्षिण की ओर मुख कर तर्पण करना चाहिए ।
  • धर्मशास्त्र बताता है, ‘देवताओं को तर्पण सव्य (यज्ञोपवीत बाएं कंधे पर रखकर) से, ऋषि को निवीत (यज्ञोपवीत गले में पहन कर) से एवं पितरों को अपसव्य (यज्ञोपवीत दाएं कंधे पर लेकर) से करें।’
  • तर्पण के लिए दर्भ (कुश) की आवश्यकता होती है । दर्भ के अग्रभाग से देवताओं के लिए, दर्भ को मध्य से मोडकर ऋषियों के लिए तथा दो दर्भ के मूल एवं अग्र भाग से पितरों के लिए तर्पण करें ।
  • हाथ की उंगलियों के अग्रभाग में स्थित देवतीर्थ से देवताओं को, अनामिका एवं कनिष्ठा के मूल से ऋषियों को और तर्जनी एवं अंगूठे के मध्यभाग से पितरों को जल दें (तर्पण करें ) ।
  • प्रत्येक देवता को एक, ऋषि को दो एवं पितर को तीन अंजली तर्पण दें । मातृत्रय को तीन अंजलि एवं अन्य स्रियों को एक अंजलि तर्पण दें ।’   (यहां‘एक अंजलि तर्पण दें’ से आशय है, ‘एक बार अंजुलि में जल लेकर तर्पण दें’।
तर्पण में इस बातों का रखें ख्याल
  • तर्पण में दूध, तिल, कुशा, पुष्प, गंध मिश्रित जल से पितरों को तृप्त किया जाता है।
  • ब्राह्मणों को भोजन और पिंड दान से, पितरों को भोजन दिया जाता है।
  • वस्त्रदान से पितरों तक वस्त्र पहुंचाया जाता है।
  • यज्ञ की पत्नी दक्षिणा है। श्राद्ध का फल, दक्षिणा देने पर ही मिलता है।
  • श्राद्ध के लिए दोपहर का कुतुप और रोहिण मुहूर्त श्रेष्ठ है। कुतुप मुहूर्त दोपहर 11:36 से 12:24 तक होता है। 
  • रोहिण मुहूर्त दोपहर 12:24 से दिन में 1:15 तक।
  • कुतप काल में किए गए दान का अक्षय फल मिलता है।
  • पूर्वजों का तर्पण, हर पूर्णिमा और अमावस्या पर करें।
  • श्राद्ध के दिनों में, कम से कम जल से तर्पण ज़रूर करें।
  • चंद्रलोक के ऊपर और सूर्यलोक के पास पितृलोक होने से, वहां पानी की कमी है।
  • जल के तर्पण से, पितरों की प्यास बुझती है वरना पितृ प्यासे रहते हैं।
  • पिता का श्राद्ध पुत्र करता है। पुत्र के न होने पर, पत्नी को श्राद्ध करना चाहिए।
  • पत्नी न होने पर, सगा भाई श्राद्ध कर सकता है।
  • एक से ज्य़ादा पुत्र होने पर, बड़े पुत्र को श्राद्ध करना चाहिए।
  • कभी भी रात में श्राद्ध न करें, क्योंकि रात्रि राक्षसी का समय है।
  • दोनों संध्याओं के समय भी श्राद्धकर्म नहीं किया जाता है।
श्राद्ध करते समय इन बातों के स्मृति में रखें
  • जिन व्यक्तियों की सामान्य एवं स्वाभाविक मृत्यु चतुर्दशी को हुई हो, उनका श्राद्ध चतुर्दशी तिथि को कदापि नहीं करना चाहिए, बल्कि पितृपक्ष की त्रयोदशी अथवा अमावस्या के दिन उनका श्राद्ध करना चाहिए।
  • अपमृत्यु, अर्थात किसी प्रकार की दुर्घटना, सर्पदंश, विष, शस्‍त्रप्रहार, हत्या, आत्महत्या या अन्य किसी प्रकार से अस्वा‍भाविक मृत्यु हुई हो, तो उनका श्राद्ध मृत्यु तिथि वाले दिन कदापि नहीं करना चाहिए।
  • अपमृत्यु वाले व्यक्तियों को श्राद्ध केवल चतुर्दशी तिथि को ही करना चाहिए, चाहे उनकी मृत्यु किसी भी ति‍थि को हुई हो।
  • संन्यासियों का श्राद्ध केवल पितृपक्ष की द्वादशी को ही किया जाता है, चाहे उनकी मृत्यु किसी भी तिथि को हुई हो।
  • नाना तथा नानी का श्राद्ध भी केवल अश्विन शुक्ल प्रतिपदा को ही करना चाहिए, चाहे उनकी मृत्यु किसी भी तिथि में हुई हो।
  • स्वाभाविक रूप से मरने वालों का श्राद्ध भाद्रपद शुक्ल पूर्णिमा अथवा आश्विन कृष्ण अमावस्या को करना चाहिए। (सब तिथियों की जानकारी ब्राह्मण और पंडितों को होती है)

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