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दान भावना - कर्नाटक की लोक-कथा

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श्रीनिवास नाम का एक बालक अपनी दादी के साथ एक नए गाँव में रहने आया। वे दोनों गाँव के साहूकार के पास पहुँचे। साहूकार अपनी तोंद फुलाए कुरसी पर बैठा था। दादी और पोते ने साहूकार को प्रणाम किया।

दादी ने उससे कहा, “मालिक! हम दूसरे गाँव से आए हैं। अब यहीं रहना चाहते हैं। आप हमें सिर छिपाने की जगह दे दें। बदले में हम आपके घर के काम कर देंगे।”

साहूकार ने मन में सोचा-- 'बिना दाम के दो मज़दूर मिल रहे हैं। इन्हें क्‍यों छोड़ा जाए?' वह मान गया। उसने घर के पिछवाड़े उन्हें रहने की जगह दे दी।
दादी ने पूछा, “साहूकार जी! इसका किराया क्‍या लगेगा?”

साहूकार ने झट से बताया, “मेरे घर में चार भैंसें, तीन बैल और चार गायें हैं। उन सबको चराना होगा। उनके गोबर को पाथकर उपले बनाने होंगे और उपले बेचकर उनके पैसे मुझे देने होंगे। वही उसका किराया होगा।”
दादी और पोते ने साहूकार की शर्त मान ली।

उसी दिन से दादी तो साहूकार के घर का काम करने लगी और पोते ने गाँव में ही कोई काम ढूँढ़ लिया। उनका जीवन चलने लगा।

एक दिन की बात है। साहूकार के दरवाज़े पर फटेहाल एक भिखारी आ गया। साहूकार ऊँची आवाज़ में बोला, “चलो-चलो, आगे बढ़ो! मेरे पास कुछ नहीं है ।

वह भिखारी घूमकर पिछवाड़े की ओर आ गया। दादी को उसपर दया आ गई। घर में जो खाना बना हुआ रखा था, वह उसने भिखारी को दे दिया।

विदा होने से पहले भिखारी दादी की हथेली पर एक दमड़ी रखते हुए बोला, “माँ, तुम इससे अपने पोते के लिए मुरमुरे खरीद लेना।”

दादी ने उस दमड़ी को अपनी संदूकची में रख दिया। वह सोच में थी कि आज अपने पोते को क्‍या खिलाएगी! तभी उसका पोता खेत से आया। वह भूखा था। दादी ने पोते को सारी बात बताई और कहा, “संदूकची में से दमड़ी लेकर कुछ खरीद ला।”
जैसे ही पोते ने संदूकची खोली, सोने की चमक से सारी झोंपड़ी जगमगा उठी।
उन्होंने सोना बेचकर सुंदर मकान बनाया, ज़मीन खरीदी, बैल खरीदे और बड़े किसान बन गए।
उनकी समृद्धि देखकर सेठ ने सोचा, 'काश, मैंने उस भिखारी को न भगाया होता।'

एक दिन वही भिखारी फिर उसके द्वार पर आया जिसे बहुत समय पहले उसने भगा दिया था। साहूकार दौड़कर बाहर आया। भिखारी को सम्मान के साथ अंदर ले गया। इसके बाद थाली में छप्पन व्यंजन सजाकर उसके सामने ले आया। मुसकराते हुए भिखारी ने छककर भोजन किया। जाते हुए वह साहूकार को भी एक दमड़ी दे गया।

दमड़ी हाथ में आते ही साहूकार की खुशी का ठिकाना न रहा। उसने दमड़ी को बड़े जतन से अपनी तिजोरी में रखकर ताला लगा दिया।

उस रात उसे नींद नहीं आई। वह बार-बार तिजोरी के पास आता और फिर बिस्तर पर लेट जाता। इस तरह पूरी रात घूमते हुए बीती।

पौ फटते ही साहूकार तिजोरी खोलने आया। सोना मिलने की खुशी में उसने अपनी आँखें बंद कर ली थीं। वह सोच रहा था कि उसकी पूरी तिजोरी जगमग कर रही होगी। लेकिन यह क्‍या! हुआ तो बिलकुल उलटा। उसकी तिजोरी में रखा हुआ धन कोयला बन चुका था!

साहूकार समझ गया कि यह सब करनी का फल है। दादी ने निस्स्वार्थ भाव से भिखारी को भोजन कराया था, इसलिए उन्हें वैसा ही फल मिला। उसने लालच में आकर भिखारी को भोजन दिया था सो ऐसा फल मिला।

इसके बाद से साहूकार का व्यवहार हमेशा के लिए बदल गया। दादी और पोते ने उसे अच्छा सबक सिखा दिया।

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