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बूँद-बावड़ी (एक अंश) पद्मा सचदेव

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मैं एक बार फिर बच गयी हूँ। इस बार तो मौत के जबड़े खोलकर बाहर आना पड़ा, पर मजा आ गया।

मर-मरकर जी जाने का सुख जीवन की कद्र बढ़ा देता है। ज़िन्दगी ज़्यादा कीमती, ज़्यादा अनमोल हो उठती है। यूँ लगा, मौत अपने पीछे-पीछे आने को कह रही थी। मैंने अपने पीछे दरवाज़ा बन्द करने के बहाने भीतर घुसकर दरवाज़ा अन्दर से बन्द कर लिया।
यही हुआ होगा, नहीं तो कौन कहता था ये बचेगी।
आज भी अशक्त होकर लुढ़क जाती हूँ तो वो दृश्य साकार होकर आँखों के सामने आ जाता है।

धूमिल-सा आसमान। बेरंग, बेनूर और उदास। कोई पक्षी नहीं उड़ रहा था। कोई पतंग नहीं डोल रही थी, न ही बादलों के रंग असंख्य मूर्तियाँ बनाते हुए आ-जा रहे थे। रात में तारों की मौजूदगी का कोई निशान बाकी न था। ठहरे हुए समुद्र या कैनवस पर मृत पड़ा। कोई फीका-सा चित्र। न हवा के बहने का कोई शोर, न आसमान के साँस लेने की कोई आहट, न ही सूर्योदय से पहले उषा की चुनरी का चम्पई आलोक, न ही चाँद के आने-जाने से पहले का फीका-सा उजास, न ही आसमान की छाती में सुराख करके झूलता कोई देवदार, न ही पहाड़ की तीखी नोक में चमकती बर्फ़ की कोई परत, न ही बर्फ़ की आहों का घुट-घुटा धुआँ, न ही सूर्य की किरणों के चुभने से सी-सी करती धरती का स्वर।

इसी आसमान पर एक बहुत बड़ा समुद्री जहाज न जाने कैसे संतुलन बनाए खड़ा था। निश्चल, अटल, अडोल सिलपत्थर-सा, इसी फीके बदरंग आसमान के एक हिस्से की तरह। न ही जहाज के डैक पर कोई था, न ही किसी खिड़की के पल्ले से लहराता कोई आँचल, न ही रेलिंग से झुककर समुद्र को निहारता कोई चेहरा, न ही शोर, न ही धुआँ। सभी कुछ ठहरा हुआ, उदास, भयाक्रान्त। सबकी साँस जैसे किसी भयानक भय ने रोक दी हो पर मरने न दिया हो। ऐसा ही तो था वो आसमान।

इसी जहाज से सटकर एक चारपाई या तख़्तनुमा कोई चीज़ बिना सहारे के खड़ी थी। पता नहीं किसी ने उठाया हुआ था या नहीं, पर इसी पर में लेटी हुई थी। जैसे मौत की वादी का एक हिस्सा, विस्तृत नभ में जीने की आशा लिये कराहता एक स्पंदन।

इस समुद्री जहाज से सटी चारपाई के पीछे संरक्षक की तरह खड़े थे महान् दार्शनिक जे। कृष्णमूर्ति -साधु पुरुष, सौम्य, शालीन, अडिग- पर उनकी बावड़ी की तरह गहरी आँखों में चिन्ता हिलोरें ले रही थी। पूरे माहौल का जायज़ा लेते हुए वो कुछ सोच रहे-से लगते थे। अचानक उनका मौन टूटा, उन्होंने अपनी दृष्टि मेरी तरफ़ घुमाकर कहा -पद्मा जी, ये स्वर्ग है। फिर माहौल की चुप्पी को पीते हुए बोले -कितनी शान्ति है यहाँ।
मैं मानो भरी हुई बैठी थी। उनकी बात पूरी होते-न-होते मैंने कहा- मुझे यह शान्ति नहीं चाहिए। मुझे इस मृत स्वर्ग की चाह नहीं है।
उन्होंने कहा- यहाँ बड़ा सुख है।
मैंने तुरन्त कहा- नहीं, मुझे ये सुख नहीं चाहिए। मेरे स्वर में उद्दंडता थी। मैंने मचलकर कहा- मैं पृथ्वी पर जाऊँगी, ये अच्छी जगह नहीं है।
वो उदास हो गये। मैं प्रतीक्षा करने लगी, अब क्या कहेंगे।

अचानक वो पूरा परिवेश ऊपर उठा, जैसे किसी ने तोते का पिंजरा ऊपर उठा लिया हो। ऊपर एक और आसमान था। बेरंग, बेनूर। न अँधेरा न उजाला। अजीब उदासी भरा। रंग जैसे मौत के बाद का रंग होता है। न किसी गौरय्या के पीछे दौड़ता उसका जोड़ा, न रंग बदलते दृश्य, न ही ‘पी कहाँ- पी-कहाँ' की रट लगाकर उड़ता कोई पपीहा, न ही आम मंजरियों में रस घोलती कोई कोयल, न ही शरारत करके भागता कोई भ्रमर। पूरा आसमान किसी विधवा की चादर की तरह फैला था। बेदाग आसमान, जैसे सब कुछ खोकर लुटा-पिटा-सा बैठा हो। पूरा परिवेश फिर ठहर गया था। दार्शनिक मेरी उदंडता से आहत थे। फिर भी वो अन्तिम हीले की तरह एक बार बोले।
-पद्मा जी, ये बैकुंठ है। इसकी कामना कौन नहीं करता। यहाँ विष्णु का निवास...
मैंने सोचा, मुझे कौन-सा विष्णु ने निमन्त्रण देकर बुलाया है। अपने बड़प्पन और मेरी मनुष्य होने की मजबूरी का फायदा उठा रहे हैं।

मैं तड़पकर बोली- होगा, अगर ये बैकुंठ भी है तो भी मुझे इसकी कोई इच्छा नहीं है। बड़ा अंधेरा है यहाँ कोई चिराग जलानेवाला दिखाई नहीं देता। इस बेरंग आसमान पर कोई लहरियेदार दुपट्टे नहीं सुखाता। यहाँ न सूरज है, न चाँद, ये कैसा बैकुंठ है। बड़ा अँधेरा है। आप तो पृथ्वी से होकर आये हैं। क्या आप नहीं जानते पृथ्वी पर क्या-क्या है।
मैं मन-ही-मन जानती थी- यही एक लम्हा है, अगर मैं उदंड न हुई तो महान दार्शनिक जीत जाएँगे। फिर मैं पृथ्वी कैसे देखूंगी।

- मैं यहाँ नहीं रहूँगी। पृथ्वी पर लाखों-करोड़ों हाथ शाम की उदास वेला में चेहरे पर चमक लाने के लिए कितने ही चिराग जलाते हैं। आप तो पृथ्वी पर रहकर आये हैं। कभी पृथ्वी पर दीवाली तो देखी होगी। मैंने उनकी आँखों में भीतर तक झाँकते हुए कहा अगर देखी होती तो दीये की ओट में सुन्दरी बहू के चमकते मुखड़े की तीखी नाक पर दमकती कौधती लौंग आपको याद होती। लक्ष्मी के आगे जहाँ लक्ष्मी झुक जाती है, वही मेरी पृथ्वी है। वहाँ सूर्य है, चाँद है, चाँद- जैसे सुन्दर मुखड़े हैं, उन मुखड़ों पर कुरबान होते आशिक हैं, इन्हीं आशिकों ने बिजली बनाकर पूरी पृथ्वी को उजाले की दुलहिन की तरह सजा दिया है। नहीं, मैं यहाँ नहीं रहूँगी। मैं पृथ्वी पर जाऊँगी।

(पद्मा सचदेव की आत्मकथा 'बूँद-बावड़ी' से एक अंश)

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