कुआँ अभी-अभी पाट दिया गया है। यह समाचार गाँव में फैलते देर नहीं लगी। अभी कुएँ में डाली गई मिट्टी एकदम पोली थी। कहीं-कहीं पानी ऊपर उछलकर मिट्टी को गीला भी कर गया था। आखिर कुएँ का पानी सारा गाँव पीता था; थोड़ी सी छटपटाहट तो उसे होनी ही थी। गधे अपनी पीठ पर मिट्टी से लदे हुए बोरे अभी-अभी डालकर गए थे। कुएँ में मिट्टी तब तक डाली जाती रहेगी, जब तक उसका नामोनिशान नहीं मिट जाता।
कुएँ के किनारे लगा मेहँदी का बड़ा सा बूटा अपनी शाखाएँ फैलाए डटा हुआ था। दोनों तरफ से औरतें उसकी पत्तियाँ लेने आती थीं। कुएँ के बंद होते ही दोनों तरफ की औरतों की जबान पर ताले लग गए थे। जिन औरतों को कुएँ के पटने का पता नहीं था, वे अपने सिरों पर घड़े, गगरियाँ, रस्सी, बालटी लटकाए स्तब्ध खड़ी थीं। किसी की बगल में बच्चा था, सिर पर बटलोई, कंधे पर रस्सी; किसी के हाथ में आसपास से तोड़ा गया सागर, किसी की उँगली से लगी आँखों में प्रश्न लिये कोई कन्या। दोनों तरफ जुबानों पर ताले लग गए थे। आँखें मुखरित हो गई थीं। कभी दूर से धड़ाम-धड़ाम गोलों के फटने की आवाज आती; इसे सुनकर कोई भी नहीं डरता था। गोला पाकिस्तान का है या हिंदोस्तान का, ये जान पाना मुश्किल था। तभी गेंद खेलते बच्चे की गेंद कुएँ की मिट्टी पर गिरी। लड़का गेंद उठाकर भागने लगा तो गीली मिट्टी से पाँव रपट गया। उसकी माँ वहीं खड़ी थी। बच्चे को उठाते हुए उसने दो धौल उसकी पीठ पर जमाकर कहा, ''मुए, वहाँ पाकिस्तान की तरफ क्या लेने गया था?''
बच्चा हैरान हो गया। यह तो कुआँ था, पाकिस्तान बीच में कहाँ से आ गया। कल तक तो सब यहीं पानी भरती थीं। आज कुआँ ही पाट दिया, वह भी मिट्टी के साथ। माँ ने उसे बाँह से पकड़कर हिंदोस्तान की तरफ धकेल दिया। औरतें कुएँ की तरफ एक हसरत भरी नजर डालकर अपने-अपने घरों को चली गई। बेरी के दरख्त के नीचे बैठी सोमा को किसी ने अपने साथ आने को नहीं कहा। हो सकता है, उसे किसी ने देखा भी न हो। सोमा घर से एक बड़ी बटलोई लाकर कुएँ की जगत पर रख देती। गाँव की कोई भी बहू-बेटी उसकी बटलोई भरकर उसके घर छोड़ आती थी। जिस बेरी के नीचे सोमा बैठती, वह उगी तो हिंदोस्तान की सरजमी पर थी, पर उसकी टहनियाँ पाकिस्तान पर बिछी जातो थीं। जब बेरी फलों से लद जाती तो दोनों मुल्कों के बच्चे अपनी-अपनी तरफ के बेर खा लेते। तोते भी इस बात का ध्यान रखते थे। बेरी हर बरस जवान होती थी, पर सोमा अब हर बरस बुढ़ा रही थी। इसी बेरी के नीचे दो बैठने लायक पत्थर थे : एक हिंदोस्तान की तरफ, एक पाकिस्तान की तरफ। यहीं बैठकर रज्जो यानी रजिया और सोमा घंटों बातें किया करती थीं। यह नियम पिछले पचास सालों से चला आ रहा था। सोमा ने अपनी छड़ी से धूल में हिलते हुए कीड़े को टटोला। छड़ी लगते ही वह कीड़ा पाकिस्तान की तरफ भागा। सोमा चिंतित हो उठी, कहीं यह मुआ रज्जो के घर न चला जाए, लगता तो साँप ही का बच्चा है। आज पहली बार नियम टूटा है। उसके मुए मर्द ने न आने दिया होगा। मर्दों की कौम होती ही दिल की काली है। सोमा वहीं बैठी रही अकेली। उसे मिलिटरीवाले भी एक पिल्लर से ज्यादा न समझते थे। उसका दिल काँप रहा था। आँखें दूर पगडंडी पर लगी थीं, जहाँ से रज्जो सिर पर घड़ा रखे या कभी सिर्फ पोते को उँगली से लगाए आया करती थी। नहीं, आज रज्जो नहीं आएगी। मरे कमीनी, मुझे क्या। उसने आँखें बंद कीं। रील घूमने लगी।
सोमा का रंग तब ऊँची उठती आग जैसा था। इस मैंदे सिंदूर को अपनी पतली सी ओढ़नी में छुपाए वह कुहनी के सहारे लेटी-लेटी पता नहीं क्या सोच रही थी। शायद इस बारे में, जब भागती भीड़ का रेला उसे अकेली छोड़ गया था। भीड़ में गिरी तो उसे पता नहीं किसने घसीटकर कोने में उगी घास के एक टुकड़े पर लिटा दिया था। उसे जब होश आया तो वह इस कैंप में थी। यहीं उसे रजिया भी मिली थी। कई औरतें थीं, जो अपने-अपने रिश्तेदारों का इंतजार कर रही थीं, पर कोई नहीं आया था। पता नहीं कोई बचा भी या नहीं। तभी भागकर आती रजिया ने उसके मुँह पर चूल्हे की राख मलकर उसे काला कर दिया था।
“क्या कर रही हो रज्जो?"
“चुप करके लेटी रह! ऐसा दमकता मुँह क्या अँधेरे में भी किसी की नजर से बच सकता है!” वह कुछ और कहे, उसके पहले ही धड़-धड़ करते हुए लोग कैंप में घुस आए थे। वे सबके मुँह पर टॉर्च की रोशनी डालते। जो भी मुँह दमकता, उसे उठाकर दीवार के सहारे खड़ा कर देते। सात-आठ औरतों को वे साथ ले गए। सुबह रात-भर जलती लालटेन की तरह धुआँई हुई ये औरतें लौटकर वहीं आ जातीं। मुरदों में मुरदा। फिर एक दिन कई ट्रक आकर अपनी- अपनी मिल्कियत सँभाले हिंदोस्तान व पाकिस्तान को रवाना हो गए।
रजिया इस गाँव के कैंप में आई तो उसे पता चल गया था कि उसके घर का कोई नहीं बचा है। यह कैंप सरहद के पास था। वहीं एक जुलाहे के साथ उसका निकाह कर दिया गया। जुलाहा खासी उम्र का था, पर कुँआरा था। उसने निकाह की सारी उम्मीदें छोड़ दी थीं, पर भला हो बँटवारे का, कुँआरा मरने से बच गया। उसने रजिया को बड़ी इज्जत से स्वीकार किया।
सोमा का ब्याह भी सरहद के पार एक रंडुजे दरजी से हो गया। उसके घर के किसी भी व्यक्ति के जिंदा होने की खबर न थी। दरजी को घर से खाना खाने के सिवा कोई मतलब न था। उसका कहना था, मेरा वंश चलना चाहिए। वंश चलाने के लिए सोमा बुरी न थी। उसने चार बेटों को जन्म दिया। दरजी ने सोचा, चार मशीनें खरीद दूँगा सालों को। दुकान चमकने लगेगी। पट्ठे मुझ पर ही तो जाएँगे। जरा सी हँसी सोमा। कैसे-कैसे पाले हैं ये मैंने, पर बाप तो वही है। नई-नई शादी हुई थी तो कितनी रीझ करता था।
“सोमा, दिन के उजाले में कुएँ पर न जाया करो, लोग तुम्हें देखकर नजर लगा देंगे।"' सोमा सुबह तारों की रोशनी में उठकर कुएँ पर नहाती और पानी भर लाती। कपड़े धोने दरजी का चेला जाता था। चलो, ये तो आराम ही है, सोमा को कोई एतराज न होता और फिर एक दिन मुँहअँधेरे नहाकर जब घर पर पानी ले जाने के लिए उसने गागर कुएँ में डाली तो दूसरी तरफ से भी एक बरतन कुएँ में जा गिरा। सोमा का दिल धक्क से रह गया। इतने अँधेरे में न आना चाहिए। उसने कड़ककर पूछा, “इतनी सुबह पानी भरने आई हो, कौन हो तुम? '' सोमा ने देख लिया। हाँ, कोई औरत ही है। घड़ा जहाँ था, वहीं रुक गया। ऊपर खींचकर उसने जमीन पर रखा और भागकर सोमा के गले लग गई। तब सरहद पर बत्तियाँ न थीं।
उस औरत ने रोते-रोते कहा, ''मैं हूँ तुम्हारी रज्जो। डेढ़ महीना उस कैंप में थी। कभी सोचा भी न था, फिर तुम्हें देखूँगी सोमा! नसीब हमें फिर एक जगह ले आया है। मैं सामनेवाले गाँव में हूँ। इस कुएँ का पानी बड़ा मीठा है। कभी-कभी यहाँ पानी भरने आती हूँ, पर तुम्हें तो कभी नहीं देखा।'!
“मेरा दरजी उजाले में बाहर नहीं निकलने देता। मुझे नजर लग जाएगी न! रज्जो, उस दिन मेरे चेहरे पर तुमने राख न मल दी होती तो पता नहीं ये मुँह कहाँ-कहाँ काला होता। हाँ रज्जो, मुँह सिर्फ औरत का काला होता हैं। चलो जाने दो, बड़ा शुक्र है ऊपरवाले का। कैंप में तो लगता था सारी जिंदगी वहीं बीत जाएगी।"
“चलो भूल जाओ उन बातों को। कितना अच्छा है मेरा आदमी दरजी और तुम्हारा जुलाहा। एक कपड़ा बुनेगा, दूसरा सिएगा।"
दोनों खिलखिलाकर हँस पड़ीं। जवान हँसी पर सुबह उठने की कोशिश करते पर्रिदे हड़बड़ी में भागे।
"रज्जो, वादा करो, रोज आओगी। यहीं बैठकर बातें करेंगे। एक पत्थर बेरी के नीचे पड़ा है। तुम भी एक पत्थर पास में ले आओ। ठीक है।"
“हाँ सोमा, जिंदगी एक दरजी और जुलाहे के साथ निभ तो सकती है, काटनी मुश्किल है। सुबह खड्डी पर बैठता है तो दिन में खाना खाकर फिर बैठ जाता है। बात करने को तरस जाती हूं।
"चलो रज्जो, अब हम इसी बेरी के नीचे बातें किया करेंगे।''
ज्यों-ज्यों बेरी का दरख्त बड़ा होने लगा, सब इस कुएँ को बेरी का कुआँ कहते। सबसे ज्यादा रौनक सुबह और शाम को ही लगती। सुबह दोनों तरफ की औरतें बेरी की टहनियों पर दुपट्टा डालकर नहा लेतीं, एक-दूसरी से चुहलें करतीं। अगर कोई पानी भरने लगती तो वह छपाछप सारे बरतन भर डालती। देखा-देखी दूसरी ओर भी यही होता। होड़ सी लग जाती, पहले कौन सारे बरतन भर लेगी। बरतन भरते रहते, कुआँ खाली होता रहता। कुँआरी लड़कियाँ कपड़ा बदन पर रखकर मल-मलकर नहाती और बहुएँ परदे की ओट में। सबको पवित्र करता कुआँ।
रजिया ने सोमा को बताया था, “'मेरा मर्द जुलाहा है। जमीं ढेरी भी है, अच्छी गुजर हो जाती है। उम्र तो खासी है, पर खटता बहुत है। देखने में भी बुरा नहीं है।''
सोमा ने कहा, “अरे, मेरे दरजी को तो सब छैला कहते हैं, पर जब हमारे नसीब में आया तो उतना छैला न था।''
रजिया ने कहा, ''चलो जिंदगी कट जाएगी। सिर छुपाने की जगह औरत के लिए सबसे बड़ी चीज होती है। गोद में क्या है?''
प्रफुल्लित होकर सोमा ने कहा, ''बेटा है और तुम्हारे?"
शरमाकर रजिया बोली, “जुड़वाँ हो गए थे। दोनों ठीक हैं। एक तरफ एक लग जाता है, दूसरी तरफ दूसरा। ऊपर के दूध को तो मुँह ही नहीं लगाते। घर में दो भैंसें भी हैं।''
हँसकर सोमा ने कहा, “पर उन्हें तो गाय का दूध ही पसंद है।"
“चल हट कमीनी, मैं गाय हूँ क्या?” दोनों हँस पड़ीं।
फिर रजिया और सोमा पानी भरने आर्ती तो कितनी देर बातें करती रहतीं। ज्यों-ज्यों बच्चे बड़े होते गए, कुएँ पर उनका बैठने का समय भी बढ़ता गया। अपने-अपने इलाके में पत्थरों पर वे दोनों सिर से सिर जोड़े पता नहीं क्या-क्या खुसुर-फुसुर करती रहतीं। अब उनके होने पर कोई ध्यान नहीं देता था।
1965 की भारत-पाक लड़ाई में दोनों तरफ से गोले भी चले, सिपाही भी मरे और सीमा पर मिलिटरी की गश्त से डर के मारे कुआँ वीरान होता गया। आर-पार रहनेवाले एक-दूसरे की माँ- बहनों को गाली देते, एक-दूसरे की तरफ गए अपने गाय-गोरुओं पर सारा गुस्सा निकालते और शाम को उन्हें अपने-अपने घर ले जाते। इन गाय-भैंसों को लड़ाई का मतलब पता न था, इसी तरह रजिया और सोमा की समझ में भी न आता था, अब किस चीज की लड़ाई थी। मुल्क बाँट लिया। अब अपने-अपने इलाके में जाकर मरो, लेकिन नहीं, लड़ाई जरूर करेंगे। सीमा पर आए, दिन गाय-गोरुओं को लेकर तो लड़ाई होती ही थी। कभी-कभी वहाँ की मुरगी इस तरफ आ जाती, कभी कोई बंदरी ही नाममात्र की सीमा लाँघ जाती। अकसर यहाँ की गाय-भैंसें चरते-चरते वहाँ चली जातीं और वहाँ की यहाँ आ जातीं। दोनों के पेट भरे रहते। कौन सी घास किस मुल्क की है, उन्हें इससे मतलब न था। जब कोई गाय-भैंस गाभिन हो जाती, तब भी पता न चलता कि बच्चा पाकिस्तान का है या हिंदोस्तान का। जब लड़ाई न होती, लड़ाई करने की कोई खास वजह किसी को दिखाई न देती। लड़ाई शुरू होते ही एक-दूसरे के दुश्मन बने लोग अपनी गाय-भैंसों को अपनी हद में रखने की कोशिश करते।
सोमा का बड़ा बेटा फौज में चला गया तो रज्जो का बेटा भी फौज में ड्राइवर हो गया। कुएँ पर बैठकर दोनों कहतीं, “क्या कहूँ कहीं मुए आपस में ही लड़कर न मर जाएँ।'' रज्जो बड़ी संजीदगी से सोमा के कान में कहती, “देखो सोमा, ये सब नंबरदारों की करतूतें हैं। यही लड़वाते हैं मुल्कों को। असली गुनाहगार यही हैं। हमने बेटे एक-दूसरे के साथ लड़ने को पैदा नहीं किए।"
सोमा ने बहुत उदास होकर कहा, “मैंने बहुत मना किया था। असल में एक कप्तान ने इससे कपड़े सिलवाए थे। उसको इसके सिले कपड़े बहुत पसंद थे। इसने उसे कहा था, मेरे एक बेटे को सिपाही लगवा दीजिए। उसे याद रहा और जगह निकलने पर इसे लगवा दिया। क्या कहूँ दम्मों का लोभी है इनका बाप। ये भी मुआ दरजी की औलाद, अच्छा-भला कॉलेज जाता था, 'फौज में चला गया।''
“मेरे भी दूसरे ने दुकान खोल ली है। उसकी छीटें लेने तो चोरी-छिपे हिंदोस्तान से भी औरतें आती हैं।"
“देख रज्जो, एक कमीज का कपड़ा मेरे लिए फड़वा लाना। पिछले साल की एक सुत्थन पड़ी है, उसके साथ कुरता नहीं है। मोतिया रंग पर लाल छापा हो तो खूब बनेगी।''
“सोमा, मैं खुद दुकान पर जाकर अपनी पसंद के छाप की कमीज फड़वा लाऊँगी। कुरता तो तुम्हें मेरा जीजा खूब फिटिंगवाला सी देगा।"
दोनों हँसने लगीं।
लड़ाई खत्म होने पर वैसे ही एक-दूसरी तरफ के लोग मिल जाते थे जैसे दूध और पानी। फिर सब वही जीने के अंदाज शुरू हो जाते।
1965 की लड़ाई में कुएँ पर एक बार सन्नाटा छा गया। फौजियों की आवाज के डर से कोई पानी भरने न आती। फौजी ट्रकों में पानी लाद-लादकर छावनियों में पहुँचाते रहते। लड़ाई की वजह से आरपार होनेवाले सब रिश्तेदारों की शादियाँ रुक जातीं। लड़ाई का झमेला हटते ही पार का फकीरा अपने सगे भाई मुहम्मद के घर बरात ले गया। लड़ाई के बाद यह पहला खुशगवार वाकया था। वहीं शादी में सोमा और रजिया मिलीं तो एक-दूसरी के गले लग गई। लड़ाई के बाद दोनों के बच्चे सही सलामत थे।
रजिया ने रोते-रोते कहा, “अल्लाह का शुक्र है, मेरा बच्चा जंग से जीता-जागता लौट आया।"
“शुक्र है रजिया, तेरा भाँजा भी सही सलामत वापस लौटा है। मुओं ने इसके पाँव पर गोली चलाई थी। वह तो जानो बूट बड़ा पक्का था, उसी के ऊपर से होकर निकल गई। मैं कल ही पंजपीर में नियाज देकर आई हूँ।''
पंजपीर हिंदोस्तान में था। रजिया ने कहा, “सोमा, मन्नत तो मैंने भी वही मानी हुई है। अब किसी दिन गश्त कम होगी तो दे आऊँगी। मुझे जम्मू से खरीदारी भी करनी है।''
“पता नहीं रजिया कब लड़ाइयाँ खत्म होंगी। हमारी जिंदगी इसी डर में बीत जाएगी। पता नहीं।"
“हाँ, अब हम दादी-नानी हो गई हैं। पता नहीं कितने दिन के और हैं। इधर-उधर मारकुटाई न हो तो पता ही नहीं चलता, दो मुल्क हैं।''
“पता तो तब चले, जब हम अलग हों। हमारे सुख-दु:ख साझे हैं। हमारी गरीबी एक है। हम इकट्ठे जवान हुए, इकट्ठे ही बूढ़े हो रहे हैं। तुम्हें क्या बताऊँ, अब आँखों से ठीक सुझाई नहीं देता। इतनी बार लड़कों का बाप शहर में आँखवाले डॉक्टर को दिखाने के लिए कहता है, फिर भूल जाता है। उसकी अपनी आँख भी खराब है।''
“आँखें तो हमारी भी खराब हैं। लड़ाई बंद हो तो मैं भी तुम्हारे डॉक्टर के पास ही चलूँगी। सुना है, बड़ा सयाना डॉक्टर है।''
“कुछ दिन रुको, फिर इकट्ठे चलेंगे। अच्छा, मैं चलती हूँ।'' रजिया ने घुटनों पर बोझ डालकर उठते हुए कहा।
“सोमा, नया सत्तू निकला है, तेरे लिए ले आऊँगी। अपने बुड़ूढे को भी पिला देना।''
कुएँ पर रौनक लगनी फिर शुरू हो गई। कोई नई बहुओं को कुआँ पूजने लाती तो सामनेवालियों को भी बताशे बाँटते। खूब रंगीन हो जाता कुआँ। उसका पानी बरतनों के डूबने से काँपता रहता। कभी-कभी कोई बरतन, किसी की चाबियाँ, कुएँ में से सामान निकालनेवाले यंत्र पर डालकर निकाले जाते। बरतनों पर झगड़ा होता।
“यह पाकिस्तान की बालटी है।''
“ये बटलोई हिंदोस्तान की है।"
पर पानी दोनों में एक रहता। जैसे आसमान दोनों का था। उस पर कोई लड़ाई न होती थी। इसके बावजूद सीमा पर छुटपुट वारदातें होती रहती थीं। इसका अभ्यास दोनों को था। इस पर कभी-कभी बहस भी होती, पर ज्यादातर इस तरह की बात कोई न करना चाहता। शाम से सुबह तक खूब चौकसी रहती, तब कुआँ सूना-सूना पड़ा रहता।
फिर सुनने में आया, हिंदोस्तान-पाकिस्तान में बस चल पड़ी है। रजिया ने पत्थर पर बैठते हुए कहा, “ऐ सोमा, यह बस चलने की क्या अफवाह है?"
“यह अफवाह नहीं है। हमारे प्रधानमंत्री बस लेकर पाकिस्तान गए हैं। रास्ता खुल गया है, इसलिए एक बार जाकर कुजराँवाले (पाकिस्तान में एक शहर) में अपना घर देखना चाहती हूँ।''
“अरी सोमा, मेरी तो मुमानी सास वहाँ रहती है। मैं भी चलूँगी। हम दोनों उन्हीं के घर रहेंगे। बड़े खानदानी लोग हैं। एक बार मुमानी ने मुझे घी की पीपी भी भेजी थी। जब जुड़वाँ हुए तो किसी ने बता दिया होगा।"
“चलो अच्छा हुआ, कहीं माँ-जाए भी बिछड़ते हैं!"
अब बेरी के दरख्त के नीचे सिर्फ कुजराँवाले की बात होती थी। एक दिन सोमा ने शरमाते हुए कहा, ''कुजराँवाले में एक हलवाई की दुकान थी, पता नहीं अब है या नहीं! मैं सुबह दही लेने जाती थी तो हलवाई का बेटा मलाई से दोना भर देता था। पता नहीं अब वह कहाँ होगा?"
रजिया ने कहा, ''अरे, वहीं होगा। जाओगी तो मलाई का दोना लेकर बैठा मिलेगा।"
रजिया के हाथ पर पंखा मारकर सोमा ने कहा, “चल कमीनी कहीं की, शर्म नहीं आती। अरे, अब वे दिन कहाँ रहे। हम साथ-साथ बड़े हो रहे थे, जिंदगानियाँ बिछी हुई थीं। खाली वहाँ तक पहुँचना ही था कि यह मुआ पाकिस्तान बन गया।"
“मुई गाली तो मत दो। बाकी बँटवारे में तो हमारी रजामंदी न थी।''
“तुम्हें पूछने कौन सा बाप आया था। हम तो परजा हैं। बँटवारे के फैसले तो राजा लोग करते हैं।"
“हमने सरहद पर रहकर हमेशा मार-कुटाई ही देखी है सोमा, हर वक्त धड़का लगा रहता है।"
“चलो, अब तो लड़ाई खत्म हो जाएगी। रहना न मिले तो भी सब अपनी-अपनी जन्मभूमि देख आएँगे।”
फिर एक शाम जोर के गोले फटने से कुएँ पर जिंदगी थम गई। पानी भरने आईं औरतें अपने- अपने बरतन उठाए अपने घरों को भाग गईं। कइयों ने घड़े वहीं पटक दिए और अपने बच्चों को छाती से लगाकर भागीं। रजिया ने उठते हुए कहा, ''अल्लाह, मेरे हबीब को बख्शना।"
सोमा ने कहा, ''मेरा मोहन भी मिलिटरी में हैं। भगवान् उसकी रक्षा करना।''
आसमान की छाती को चीरते जहाज, जमीन की चुप्पी को दो फाड़ करते गोले; बस यही रह गया था। कितने दिन हो गए, कुएँ पर कोई नहीं गया।
सोमा के बेटे की बुरी खबर आ गई थी।
कुआँ पूरा भर गया था। उस पर एक बुत्ती सलीब की तरह खड़ी थी। सोमा ने अपनी आँखों को अपने आँचल से पोंछकर उसे देखा, फिर कहा, “मेरा मोहन मर गया है। मेरा कुआँ भी मर गया है। रजिया का हबीब ही कहाँ बचा होगा!"


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