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पारस भेंट करने की कथा

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बरस सात को भयौं है जबही, नौधा भक्ति चलाई तब ही।
अस भगवन की सेवा करई, सतगुरु कहो सो सीव न तरई॥

गुरु रविदास जब सात वर्ष के हुए तो श्रदूधालु जन उनके पास आकर भक्ति का आनंद प्राप्त करने लगे।
बरस सात और चलि गइ्आ, बहुत प्रीति केसो सु भइआ।

ऐसी ही प्रभु भक्ति में सात वर्ष और व्यतीत हो गए। प्रभु से उनकी बहुत गहरी प्रीति लग गई। वे रोज सद्कर्मों में तत्पर रहते थे। अपने हाथों से मेहनत करके संगत में आए संतों की सेवा किया करते थे।

सीधो चाम मोलि ले आवे।
ताकी पनही अधिक बनावे।
टुटे फाटे जरवा जोरे।
समकति करे काहू न निहौरे।

गुरु रविदास स्वयं चमड़े के सुंदर-सुंदर जूते तैयार करते थे। कई बार संतों को तथा जनसाधारण को बिना कीमत लिये ही पनही भेंट कर दिया करते थे। इस ढंग से उन्होंने संदेश दिया कि सबको अपनी आजीविका के लिए तन-मन से मेहनत करनी चाहिए। संतों की संगत और सेवा करके हरि-भजन का लाभ लेना यही मनुष्य जीवन की सार्थकता है।

बरस सात ऐसी विधि गईआ, केसो के मन उपजी दईआ।
तब हरि भक्त रूप धरि आयो, जन रविदास बहुत मन भायौ॥

गुरु रविदास जब 21 वर्ष के हो गए तो एक दिन प्रभु साधु के वेश में उनके पास आए गुरु रविदास उनके दर्शन कर बहुत प्रसन्‍न हुए। उन्होंने साधु के वेश में भगवान्‌ का प्रेमपूर्वक स्वागत किया और श्रद्धा के साथ आसन पर बिठाया। उन्होंने कहा--आपने बहुत कृपा की, दर्शन दिए, आज मेरे भाग्य धन्य हो गए। उन्होंने साधु के वेश में आए भगवान्‌ के चरणों को जल से धोया। इसके बाद एक घड़ी तक सत्संग हुआ, फिर भगवान्‌ को भोजन करवाया गया। भोजन के बाद आपसी चर्चा शुरू हो गई। हरि कहने लगे कि आपके पास कुछ संपत्ति तो दिखाई नहीं देती, आप अपना निर्वाह किस प्रकार करते हैं? तब गुरु रविदास ने कहा--

कोटि लक्ष्मी जाकै चरना।
दुष दारिद्र नहीं तिहे सरना॥

करोड़ों की गिनती में लक्ष्मी (धन) प्रभु के चरण में निवास करती है। उनकी शरण में गरीबी कैसे हो सकती है। यह उत्तर सुनकर प्रभु प्रसन्‍न हुए। प्रभु ने कहा--मेरी एक बात मानो तो तुम्हारी सारी गरीबी दूर हो जाएगी। मैं बचपन से ही वैरागी हूँ। जब मैं तुम्हारे घर आ रहा था तो रास्ते में मुझे एक पारस पत्थर मिला। यह मेरे लिए किसी काम का नहीं है। इसीलिए तुम्हें योग्य समझकर यह पत्थर देना चाहता हूँ। इस पारस पत्थर से जब लोहे का स्पर्श होता है, तो लोहा सोना बन जाता है। इससे सोना बनाकर सुंदर घर बनवाओ और आराम से जीवन व्यतीत करो। यह वचन सुनकर गुरु रविदास चुप हो गए।

घरी एक रविदास न बोल्य, हरि जी गाँठि ते पारस खोल्य।
तु जिनि माने डहकै हमको, निहचै कीया देत हैं तुमको ॥

तब प्रभु ने पारस गाँठ से निकाला और कहा कि तुम जैसा भी समझो, मैंने तुमको योग्य समझा है! इसीलिए यह पारस पत्थर मैं तुमको ही दूँगा। हरि ने पत्थर से एक सुई का स्पर्श किया तो वह सोने की हो गई। तब गुरु रविदास ने कहा कि इसको लेना तो दूर की बात है, इसकी तरफ कभी आँखें उठाकर भी नहीं देखूँगा। यदि सोने से ही सब काम बन जाए तो इतने सारे राजाओं ने राज्य क्‍यों छोड़े हैं। उन्होंने भिक्षा माँगकर अपना जीवन-निर्वाह किया है और कामना को दोष रूप कहा है।

तब हरि ने कहा कि कंचन को दोष मत दो। कंचन से बैकुंठ पुरी बनाई जा सकती है, तब गुरु रविदास ने कहा कि कंचन से बहुत पाप होते हैं और जीव नरक में जाता है।

यह सुनकर हरि ने कहा कि यह मेरी अमानत तुम अपने पास रख लो। मैं कुछ दिनों के लिए यात्रा पर निकला हूँ। वापस आकर इसे ले जाऊँगा।
तेरह महीने बीत गए मगर गुरु रविदास ने उस पत्थर की ओर आँखें उठाकर देखा तक नहीं।

जन रविदास न देखे काई।
पास तेरुवें बहुटयो आई॥
तब हरि ने लौटकर पूछा कि इस पारस को तुमने क्यों नहीं निकाला, इसमें क्या दोष है?

काहे स्वामी काढि न जीना, कौन दोष पारस को दीना।
जन रविदास कहे करि जोरे, मैं छाड़ियो पाथर कै मोरे॥

गुरु रविदास ने कहा कि यह पत्थर मेरे किसी काम का नहीं है। मेरे पास हरि के नाम का पारस है, जो सर्वश्रेष्ठ है--

पारस मोरे हरि को नामूं।
पत्थर सों मोहि नाहिं कामू।
दृष्टि पारस कंचन की रासी।
अवस सकल माया की पासी।
अंगीकार रविदास न कीनौ।
तब हरि अपनौ पारस लीनौ।

जब गुरु रविदास ने पारस को स्वीकार नहीं किया, तब हरि पारस लेकर वहाँ से अंतर्ध्यान हो गए।

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