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भेड़ पालन के बारे में सम्पूर्ण जानकारी

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भेड़ ग्रामीण अर्थव्यस्था एवं सामाजिक संरचना से जुड़ा है। इससे हमें मांस, दूध, ऊन, जैविक खाद तथा अन्य उपयोगी सामग्री मिलती है। इनके पालन-पोषण से भेड़ पालकों को अनेक फायदें हैं। गाय-भैंस के बाद भेड़ और बकरी पालन का व्यवसाय लोकप्रियता के मामले में तीसरे नंबर पर आता है. भारत का एक बड़ा वर्ग भेड़ों के सहारे अपना जीवन यापन कर रहा है. लाखों लोगों के लिए ये कमाई का मुख्य श्रोत हैं. कम लागत में ज्यादा मुनाफा होने के कारण आज युवा वर्ग भी भेड़ पालन के कार्य से जुड़ने लगे हैं. इससे मिलने वाले उत्पादों जैसे- मांस, ऊन, खाद, दूध, चमड़ा आदि की भारी मांग है. ऐसे में आप भी भेड़ पालन का कार्य कर सकते हैं. अतः निम्नलिखित बातों पर उचित ध्यान देना चाहिए-

प्रजनन एवं नस्लः -

अच्छी नस्लों की देशी, विदेशी एवं संकर प्रजातियों का चुनाव अपने उद्देश्य के अनुसार करनी चाहिए।
01-लोही-
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इसे प्रकन्नी भेड़ के नाम से भी जाना जाता है। यह नस्ल पश्चिमी पाकिस्तान के लायलपुर और मिंटगुमरी जिलों में पैदा हुई और पंजाब का मूल है। यह मांस के उत्पादन के लिए अच्छी है। इस नस्ल की ऊन लम्बी और मोटी होती है। यह ऊँची होती है और इसके कान भी लम्बे होते हैं। नर का भर 65 किलो और मादा 45 किलो की होती है। यह प्रतिदिन औसतन 1.2 लीटर दूध देती है।

02-नाली-
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यह नस्ल राजस्थान में झुन्झुनू, चूरू, गंगानगर, हरियाणा में रोहतक, हिसार और उत्तर प्रदेश में पायी जाती है। यह एक मध्यम आकार का जानवर होता है। इसके चेहरे का रंग हल्का भूरा, चमड़ी का रंग गुलाबी, मध्यम और  नलीदार कान, छोटी और पतली पूंछ और सफेद और घनी ऊन होती है। इस नसल का उपयोग ऊन और मीट उत्पादन के लिए किया जाता है और इसका उपयोग दूध उत्पादन के लिए नहीं किया जाता।इसकी औसत ऊन की उपज 1.5-3 किलोग्राम है।नर भेड़ का औसत वजन 39 किलोग्राम और मादा भेड़ का वजन 32 किलोग्राम होता है।

03-मैरीनो-
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यह भेड़ अपने उत्कृष्ट ऊन उत्पादन के लिए जानी जाती है और इसका दूध अच्छी गुणवत्ता वाले पनीर बनाने के लिए उपयोग किया जाता है। मुख्य रूप से यह भेड़ केवल 1 मेमने को जन्म देती है और केवल 10% संभावना है कि वे एक से अधिक मेमने को जन्म दे। यह एक मध्यम आकार का पशु है और इसके चेहरे और पैरों का रंग सफ़ेद होता है। भारत में यह हिसार में पाई जाती है। इनके सिर और पैर ऊन से ढके होते हैं। इसकी साहसी प्रकृति के कारण इसे किसी भी जलवायु में रखा जा सकता है।

04-मुंजाल-
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यह प्रजाति भारत में उत्पन्न हुई है लेकिन इसके मूल स्थान के बारे में कोई जानकारी नहीं है। यह अंबाला, हिसार, बठिंडा, पटियाला और गंगानगर जिलों में पायी जाती है। इसका शरीर ऊँचा, कान और सिर लम्बे, संकीर्ण माथा और मध्यम आकार के थन होते हैं। इसकी ऊन भारी और घनी होती है। वयस्क नर भेड़ का औसतन वजन 50-83 किलोग्राम और मादा भेड़ का वजन 35-55 किलोग्राम होता है। नर की औसत शारीरिक लंबाई 82-84 सेंटीमीटर है और मादा की लंबाई 74-75 सेंटीमीटर होती है।

05-गद्दी-
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इसे भदरवाह के नाम से भी जाना जाता है। इसका मूल स्थान जम्मू की किश्तवार और भदरवाह तहसीलें हैं और ये हिमाचल प्रदेश और उत्तराखंड में व्यापक रूप से फैली हुई हैं। यह मध्यम आकार का जानवर है। इसकी खाल कईं रंगों में पायी जाती है जैसे भूरी, काली,खाकी और इन रंगों के मिश्रण आदि में। इस नसल की ऊन सफेद रंग की होती है। प्रौढ़ गद्दी भेड़ का औसतन भार 29.8 किलो से 34 किलो होता है और इसके शरीर की औसतन लंबाई 64-69 सैं.मी. होती है। इनकी उम्र के आधार पर औसतन ऊन की उपज 437-696 ग्राम होती है। 

06-मगरा-
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इसे बीकानेर यां बीकानेरी चोखला यां बीकानेरी चकरी के नाम से भी जाना जाता है। यह राजस्थान के चूरू, जैसलमेर, नागौर आदि जिलों में पायी जाती है।यह अपनी चमकदार और अत्यंत सफेद ऊन के लिए जानी जाती है। यह मध्यम और बड़े आकार की भी होती हैं। इसकी गुलाबी त्वचा, छोटे और नलीदार कान, पतली पूंछ, सफ़ेद चेहरा, और आंखों के चारों ओर भूरे रंग के पैच होते हैं। नर भेड़ का औसतन वजन 27 किलोग्राम और मादा भेड़ का औसतन वजन 25 किलोग्राम होता है। औसत ऊन की पैदावार 2.18 किलोग्राम होती है।

07-मालपुरा-
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यह प्रजाति राजस्थान के अजमेर, चित्तौढ़गढ़ , भीलवाड़ा, बूंदी और कोटा जिले की मूल निवासी है। इसका नाम राजस्थान में टोंक जिले से निकला है। इसका चेहरा हलके भूरे रंग का, छोटे और नलीदार कान, लम्बी और पतली पूंछ और सफेद, मोटे और बालों वाली ऊन होती है। इसकी औसत दूध उपज 300-500 ग्राम / दिन है। नर भेड़ का वजन 49 किलोग्राम और मादा भेड़ का वजन लगभग 37 किलोग्राम होता है। इसका औसत ऊन उत्पादन 1.08 किलोग्राम है।

08-पुगल-
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यह राजस्थान के बीकानेर जिले के पुगल तहसील की मूल निवासी है। इसका चेहरा काला, हल्के भूरे रंग के जबड़े, नलीदार और छोटे कान, छोटी और पतली पूंछ और कम घनी सफेद ऊन होती है। इसका औसतन दूध उत्पादन 300-500 ग्राम / दिन है। नर भेड़ का वजन 32 किलोग्राम और मादा भेड़ का वजन लगभग 27 किलोग्राम होता है। ऊन की औसतन पैदावार 1.60 किलोग्राम होती है।

भेडो का आहार -

भेड़ों को ज्यादातर चरना पसंद होता है और इन्हे फलीदार(पत्ते, फूल आदि) लोबिया, बरसीम, फलियां खाना अच्छा लगता है। चारे में ज्यादातर इनको रवां/लोबिया आदि दिया जाता है। जैसे की यह एक वार्षिक पौधा है, इसलिए इसे मक्की और ज्वार के मिश्रण के साथ मिलाकर दिया जाता है। भेड़ आमतौर पर 6 से 7 घंटे तक मैदान में चरती है इसलिए इन्हे हरी घास और सूखे चारे की भी जरूरत होती है।  चरने के लिए इन्हे ताजा हरी घास की जरूरत होती है खास तौर पर चारे वाली टिमोथी और कैनरी घास।
  • चारे वाले पौधे : फलीदार : बरसीम, लहसुन, फलियां, मटर, ज्वार 
  • बिना फली वाली : मक्की, जवी
  • पेड़ों के पत्ते : पीपल, आम, अशोका वृक्ष, नीम, बेर, केला
  • पौधे और झाड़ियां, हर्बल और बेल : गोखरू, खेजड़ी, करोंदा, बेर आदि।
  • जड़ वाले पौधे (बची हुई सब्जियां) : शलगम, आलू, मूली, गाजर, चुकंदर, फूलगोभी, बंदगोभी
  • घास : नेपियर घास, गिनी घास, दूब घास, अंजन घास, स्टीलो घास

वितरण-
  • अनाज : बाजरा, ज्वार, जवी, मक्की, चना, गेंहू 
  • फार्म और औद्योगिक उप उत्पाद : नारियल बीज की खाल, सरसों के बीज की खाल, मूंगफली का छिलका, अलसी, शीशम, गेहूं का चूरा, चावल का चुरा आदि।
  • पशु और समुद्री उत्पाद : पूरे और आधे सूखे हुए दूध उत्पाद, मछली का भोजन और रक्त भोजन।
  • औद्योगिक उप उत्पाद : जौ, सब्जियों और फलों के उप उत्पाद।
  • फलियां : बबूल, केला, मटर आदि|

नस्ल की देख रेख-

गाभिन भेड़ों की देख-रेख : गर्भपात, समय से पहले जन्म और टॉक्सीमिया से बचने के लिए गाभिन भेड़ों की फ़ीड और प्रबंधन की उचित देखभाल की जानी चाहिए। ठंड के मौसम में प्रसव के दौरान भेड़ों को सुरक्षित रखें और उन्हें प्रसव के 4-6 दिन पहले स्वच्छ और अलग कमरा / क्षेत्र प्रदान करें। गर्भावस्था के अंतिम चरणों में फीड की मात्रा में वृद्धि कर दें। अर्थात् बच्चा पैदा होने से 3-4 सप्ताह पहले उनकी फीड की मात्रा बढ़ा दें जिससे  दूध उत्पादन बढ़ेगा और स्वस्थ मेमने की वृद्धि में भी मदद मिलेगी।

नवजात मेमने की देखभाल : जन्म के बाद उसकी नाक, चेहरा और कानों को एक सूखे नरम सूती कपडे से साफ़ करें और गर्भनाल को हटा दें। नवजात शिशुओं को  कोमलता से साफ करें। अगर नवजात बच्चा साँस नहीं ले रहा है तो उसे उसके पिछले पैरों से पकड़ कर सिर नीचे की तरफ लटकाकर रखें जो उसके श्वसन पथ को साफ करने में मदद करेगा। भेड़ के थन को टिंक्चर आयोडीन से साफ़ करें और फिर जन्म के, पहले 30 मिनट में ही मेमने को पहला दूध पिलायें।

मेमने की देखभाल : जीवन के पहले चरण में मेमने की खास देखभाल की जानी चाहिए। भेड़ के बच्चे को अच्छी गुणवत्ता वाला घास या चारा प्रदान करें जो कि उनके स्वास्थ्य के लिए अच्छा है और आसानी से पचने योग्य है। चरने और चबाने के लिए उन्हें फलीदार और ताजा पत्ते दें।

भेड़ की पहचान के लिए निशान लगाना : उचित रिकार्ड, अच्छे पशुपालन और मालिकी पहचान के लिए उनके शरीर पर नंबर लिखना चाहिए। यह मुख्य तौर से टैटू, टैग लगाना, वैक्स से निशान लगाना, मोम, चाक, रंग वाली स्प्रे, या पेंट आदि से किया जाता है।

मेमने का सिफारशी टीकाकरण : पहले महीने में, हानिकारक आंतो के परजीवियों से बचाने के लिए मेमनो की डीवार्मिंग (पेट के कीटो को साफ़ करने की प्रक्रिया) करनी चाहिए। एंट्रोटॉक्सीमिया और शीप पॉक्स (भेड़ की संक्रामक बीमारी, जो सौम्य orf (या संक्रामक एक्टिमा) से अलग एक poxvirus के कारण होता है) से बचने के लिए टीकाकरण जरूर करवाएं।

बीमारियां और रोकथाम-
एसिडोसिस (ज्यादा अनाज खाने से) : -
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गेहूं या जौ को ज्यादा खा जाने के कारण यह रोग होता है और यह रोग जानवर के पेट को नुकसान पहुंचाता है।
उपचार: यदि इस बीमारी के लक्षण हैं, तो इसके उपचार के लिए 10 ग्रा / भेड़ के हिसाब से  सोडियम बाइकार्बोनेट की खुराक दी जाती है।

वार्षिक राइग्रास विषाक्तता (एआरजीटी) : -
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यह बीमारी राइग्रास खाने के कारण होती है।(एआरजीटी विषैले पदार्थों के कारण होता है जो खपत करते समय जानवर के मस्तिष्क को गंभीर नुकसान पहुंचाते हैं। विषाक्त पदार्थों को एक जीवाणु द्वारा उत्पादित किया जाता है जो नीमेटोड की एक प्रजाति है जो वार्षिक राइग्रास पौधों को संग्रह करता है)। संक्रमित बीज भेड़ द्वारा खाया जाता है जो कि उनके स्वास्थ्य के लिए विषैले होते हैं। इससे पशु की मृत्यु भी हो सकती है और  यह मुख्य रूप से मध्य अक्तूबर से मध्य दिसंबर तक होती है। 
उपचार: यदि राइग्रास आस-पास है तो, जानवरों को अलग-अलग स्थान पर ले जाएं।

चीज़ी ग्लैंड : -
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यह एक जीवाणु संक्रमण है जो फेफड़ों या लिम्फ गांठो में मवाद (पस) भरने के कारण होता है, जिससे ऊन उत्पादन घट जाता है।
उपचार: क्लोस्ट्रीडियल दवा का टीकाकरण इस रोग को ठीक करने के लिए दिया जाता है।

कोबाल्ट की कमी : -
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भेड़ में बी12 की कमी के कारण यह रोग मुख्य रूप से होता है।
उपचार: जब इस बीमारी के लक्षण दिखाई दें तो जल्द से जल्द विटामिन बी12 का इंजेक्शन दें।

कुकड़िया रोग (कोकसीडियोसिस) : -
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यह एक परजीवी बीमारी है, जो एक जानवर से दूसरे जानवर तक फैलती है। दस्त (डायरिया) इस रोग का मुख्य लक्षण है जिसके साथ खून भी आ सकता है)। यह परजीवी रोग है जो भेड़ की आंतों की दीवार को नुकसान पहुंचाता है। इससे भेड़ की मृत्यु भी हो सकती है।
उपचार: सल्फा दवाओं दो खुराक ड्रेंचिंग द्वारा 3 दिनों के अंतराल पर दी जाती हैं या इंजेक्शन दिया जाता है।

कॉपर की कमी : -
यह तांबे की कमी के कारण होता है  और इससे भेड़ों में असमान्यतायें हो जाती हैं।
उपचार: इसका इलाज करने के लिए कॉपर ऑक्साइड या कॉपर ग्लाइसीनेट के इंजेक्शन या  कैप्सूल दिए जाते हैं।

डर्माटोफिलोसिस (डर्मो या लुम्पी ऊन) : -
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मुख्य रूप से मैरिनो भेड़ इस रोग से पीड़ित होती हैं। संक्रमण गैर-ऊनी क्षेत्रों पर देखा जा सकता है।
उपचार: एंटीबायोटिक से डर्माटोफिलोसिस रोग का इलाज किया जाता है।

एक्सपोजर लोस्स : -
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यह मुख्य रूप से भेड़ों के बाल काटने के 2 सप्ताह के भीतर होता है क्योंकि भेड़ गर्मी के कारण सामान्य तापमान को बनाए रखने में असमर्थ होते हैं।
उपचार: भेड़ों को मौसम बदलाव से बचा कर रखें।

पैर पर फोड़ा होना : -
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यह रोग मुख्य रूप से बरसात के मौसम में होता है। बैक्टीरिया का संक्रमण पैर के अंगों को संक्रमित करता है।
उपचार:  फोड़े से छुटकारा पाने के लिए पैर को एंटीबायोटिक उपचार दिया जाता है|

लिस्टरियोसिस (सर्कलिंग रोग) : -
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यह एक मस्तिष्क जीवाणु संक्रमण है जो जानवरों और मनुष्य दोनों को प्रभावित करता है। झुंड में खराब घास खाने के कारण यह रोग होता है।
उपचार: पशु चिकित्सक द्वारा एंटीबायोटिक उपचार करवाया जाता है।

गुलाबी आँख : -
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यह मुख्य रूप से आसपास का वातावरण प्रदूषित होने के कारण होता है।
उपचार: गुलाबी आँख से छुटकारा पाने के लिए एंटीबायोटिक स्प्रे या पाउडर दिया जाता है।

थनो की बीमारी (मैस्टाइटिस) : -
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इस बीमारी में पशु के थन बड़े हो जाते हैं और सूज जाते हैं, दूध पानी बन जाता है और दूध आना कम हो जाता है।

प्रजनन एवं नस्ल-
प्रजनन एवं नस्लः अच्छी नस्लों की देशी, विदेशी एवं संकर प्रजातियों का चुनाव अपने उद्देश्य के अनुसार करनी चाहिए।
  • मांस के लिए मालपुरा, जैसलमेरी, मांडिया, मारवाड़ी, नाली शाहाबादी एवं छोटानागपुरी तथा ऊन के लिए बीकानेरी, मेरीनो, कौरीडेल, रमबुये इत्यादि का चुनाव करना चाहिए।
  • दरी ऊन के लिए मालपुरा, जैसलमेरी, मारवाड़ी, शाहाबादी एवं छोटानागपुरी इत्यादि मुख्य है।
  • इनका प्रजनन मौसम के अनुसार करना चाहिए। 12-18 महीने की उम्र मादा के प्रजनन के लिए उचित मानी गई है।
  • अधिक गर्मी तथा बरसात के मौसम में प्रजनन तथा भेड़ के बच्चों का जन्म नहीं होना चाहिए। इससे मृत्यु दर बढ़ती है।

रतिकाल एवं रति चक्र-
भेड़ में प्रायः 12-48 घंटे का रतिकाल होता है। इस काल में ही औसतन 20-30 घंटे के अन्दर पाल दिलवाना चाहिए। रति चक्र प्रायः 12-24  दिनों का होता है ।

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