घोड़ा मनुष्य से सम्बंधित संसार का सबसे प्राचीन पालतू स्तनपोषी प्राणी है. यह काफी वफादार पशु है जो आज से नहीं बल्कि हमारे देश में प्राचीन काल से ही देश के कई राजघरानों में मौजूद है. पहले राजा-महाराजा घोड़ों का सबसे ज्यादा मात्रा में इस्तेमाल करते थे. जैसे-जैसे समय आगे बढ़ा जीवन सवारी के साधनों में बदलाव होता गया और गाड़ियों, रिक्शे आदि का चलन बढ़ता चला गया. बाद में गाड़ियों के बाद भी उनका लगाव घोड़ों के प्रति कम नहीं हुआ. बेहतर नस्ल वाले घोड़ों को फौज में इस्तेमाल किया जाने लगा. बता दें कि जो भी लोग घोड़े पालन का कार्य करते है और उनकी अच्छी तरह से देखरेख का कार्य करते है वह काफी अच्छी कमाई करते है. वह बेहतरीन नस्ल के घोड़ों को पालकर उनको घुड़सावरी के शौकीन, घोड़ों को खेल में आसानी से इस्तेमाल कर सकते हैं.
घोड़ा पालन का इतिहास -
घोड़े को पालतू बनाने का इतिहास काफी अज्ञात है. कई लोगों का मत है कि सात हजार वर्ष पूर्व दक्षिणी रूस के पास आर्यों ने पहली बार घोडा पालन का कार्य शुरू किया था. बाद में इस बात को कई लेखकों और विज्ञानवेताओं ने इसके आर्य से जुड़े इतिहास को गुप्त रखा. वास्तविकता यही है कि अनंतकाल पूर्व हमारे पूर्वजों आर्यों ने इस घोड़ें को पालतू बनाने का कार्य किया. बाद में यह एशिया महाद्वीप से यूरोप तक और फिर बाद में अमरीका तक फैला. घोड़ों के इतिहास पर लिखी गई प्रथम पुस्तक शालिहोत्र है जिसे शलिहोत्र ऋषि ने महाभारत काल के समय पूर्व लिखा था. भारत में लंबे समय से अनिश्चिकाल से देशी अश्व चिकित्सक को शलिहोत्री कहते है.
घोड़े की नस्लें -
घुड़सवारी को एक अंतराष्ट्रीय खेल का दर्जा मिला हुआ है. अगर हम भारत में घोडा पालन की बात करें तो घोड़ों का पालन अधिकतर राजस्थान, पंजाब, गुजरात, और मणिपुर में किया जाता है. देश में इन घोड़ों की अलग-अलग नस्लें पाई जाती है. अगर अव्वल दर्जे के घोड़े की बात करें तो मारवाड़ी और कठियावाड़ी को अव्वल दर्जे का घोड़ा कहा गया है.
भूटिया-
यह नस्ल सिक्किम और दार्जिलिंग में पायी जाती है। भूटिया घोड़े में सबसे आम पाया जाने वाला रंग सलेटी या खाड़ी रंग है। यह तिब्बती पॉनी के समान है। इस नसल के घोड़े का सिर बड़ा, आंखे और कान छोटे, सीधे कंधे, गहरी छाती, मजबूत टांगे, छोटी और मजबूत गर्दन और प्रबल पुट्ठे होते हैं। इस नस्ल का मुख्यत: घुड़सवारी और भार ढोने के लिए उपयोग किया जाता है। भूटिया घोड़े का कद 145 सैं.मी. और घोडी का कद 125 सैं.मी. होता है। भूटिया घोड़े को प्रतिदिन 5-15 गैलन पानी की आवश्यकता होती है।
काठियावाड़ी-
यह नस्ल काठियावाड़ के जंगली घोड़ों से बनी है। यह मुख्य रूप से गुजरात के अमरेली, भावनगर, राजकोट, सुंदरनगर और जूनागढ़ जिलों में पायी जाती है। इस नसल के घोड़े बादामी, खाड़ी, सलेटी और धुंधले काले रंग के होते हैं लेकिन इन रंगों के साथ-साथ ज्यादातर धुंधले काले रंग के घोड़े पाये जाते हैं। इनका सिर छोटा, चौड़ा माथा, संकीर्ण आंखें, मजबूत गर्दन, कंधे गिरे हुए, छोटी कमर और टांगे लंबी होती हैं। ये घोड़े चमकदार होते हैं। घोड़े 119 सैं.मी. लंबे और 147 सैं.मी. ऊंचे होते हैं। इस नस्ल के कान की लंबाई 15 सैं.मी., मुंह की लंबाई 53 सैं.मी. और छाती का घेरा 160 सैं.मी. होता है।
मनीपुरी-
यह नस्ल मनीपुर और आसाम में पायी जाती है। यह नसल 14 विभिन्न रंगों में पायी जाती है जैसे गहरा खाड़ी, लाल भूरा रंग, हल्का सलेटी, खाकी, बादामी, सिनाई सफेद, लीफोन सफेद, मोरा सफेद, सलेटी, काला और खाड़ी रंग। इनकी छोटी कमर, कुछ नुकीली और आकर्षित आंखें और कान, अवतल मुंह, मजबूत गर्दन, गहरी छाती, छोटी और सीधी कमर होती है और इनके शरीर पर खुरदरे बाल होते हैं। मनीपुरी नस्ल को शिकार खेलने, परिवहन और यात्रा के लिए उपयोग किया जाता है।
मारवाड़ी-
यह नस्ल राजस्थान के मारवाड़ क्षेत्र में विकसित की गई थी। अब यह मारवाड़ क्षेत्र, जिसमें गुजरात के आस पास के और राजस्थान के इलाके जैसे उदयपुर, जलोर, जोधपुर और राजसमंद शामिल है, में पायी जाती है। शारीरिक विशेषताओं के साथ-साथ यह नसल अपने व्यक्तित्व के लिए भी जानी जाती है। मारवाड़ी घोड़ों का घुड़सवारी और खेल के प्रयोजनों के लिए उपयोग किया जाता है। मारवाड़ी घोड़ों का काला, सफेद, खाकी और बादामी रंग का शरीर और उस पर सफेद रंग के धब्बे होते हैं। इनका शरीर सघन, आगे की टांगें सीधी और अच्छी तरह विकसित छाती होती है। इस नसल के घोड़े 130-140 सैं.मी. लंबे और 150-160 सैं.मी. ऊंचे होते हैं। इनके मुंह की लंबाई 22 सैं.मी., कान की लंबाई 18 सैं.मी. ओर पूंछ 47 सैं.मी. लंबी होती है। मारवाड़ी घोड़ों की लंबाई और ऊंचाई काठिवावाड़ी घोड़ों से ज्यादा होती है।
स्पीति-
यह नस्ल हिमाचल प्रदेश के किन्नौर जिले, कुल्लू और स्पीति घाटी के आस-पास के इलाकों में पायी जाती हैं। स्पीति पोनी के दो प्रकार हैं- स्पीति प्योर और कोनीमेयर। कोनीमेयर घोड़े, स्पीति घोड़ों से ज्यादा ऊंचे होते हैं। ये ठंड की परिस्थितियों जैसे कम तापमान और भोजन की कमी हो सहन कर सकते हैं। स्पीति घोड़ों को घुड़ सवारी के लिए और भार ढोने के लिए उपयोग किया जाता है। इनका रंग सलेटी, भूरा, काला और काले सफेद धब्बों वाला होता है। इनका शरीर 97 सैं.मी. लंबा और 127 सैं.मी. ऊंचा होता है। इनके कान 15 सैं.मी. लंबे और मुंह 49 सैं.मी. लंबा और पेट का घेरा 150 सैं.म. होता है।
कच्छी सिंध घोड़ा-
इस नस्ल के घोड़े को भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद ने कच्छी -सिंधी घोड़े को सातवीं नस्ल के रूप में पंजीकृत कर दिया है. यह घोड़ा गर्म और ठंडे दोनों वातावरण को सहन कर आसानी से जीवित रह सकता है. घोड़े की इस नस्ल को अपने धैर्य स्तर के लिए पहचाना जाता है. इस घोड़े की कीमत 3 लाख से 14 लाख रूपये के बीच होती है. इन सभी नस्लों में मारवाड़ी, कठियावाड़ी और मणिपुरी घोड़े की नस्ल बेहतर मानी जाती है. इसीलिए इनका वाणिज्यिक पालन किया जा रहा है. इसके अलावा भारतीय घोड़े का निर्यात भी किया जाता है.
ज़ासंकारी-
यह नस्ल जम्मू - कश्मीर के लेह लद्दाख इलाके में पायी जाती है। इनका रंग ज्यादातर सलेटी, काला और तांबे रंग का होता है। यह नसल अच्छा काम करने की योग्यता और तेज दौड़ने के लिए जानी जाती है। यह आमतौर पर ऊंचाई वाले स्थानों और भार ढोने के लिए प्रयोग किए जाते हैं। यह आकार में दरमियाने होते हैं और इनका कद 120-140 सैं.मी. होता है। इनके पूरे शरीर पर लंबे बाल होते हैं और पूंछ भी लंबी होती है।
इंडियन हाफ ब्रैड डैकनी-
डैकनी नस्ल का जन्म स्थान भारत है। सामान्यत: यह काठियावाड़ी और विदेशी नसलों के प्रजनन से तैयार की गई है जैसे ऑस्ट्रेलियन वालर, अरबीयन और थोरोब्रैड। यह विभिन्न रंग जैसे सलेटी, बादामी और खाकी रंगों में आम पायी जाती है। इस नसल के कान मुड़े हुए, संकीर्ण और सीधी कमर, गोल पुट्ठे, गिरे हुए कंधे और मजबूत अंग होते हैं। इन्हें ज्यादातर घुड़सवारी और खेल के प्रयोजन के लिए उपयोग किया जाता है।
इंडियन कंटरी ब्रैड-
इस नस्ल का मूल स्थान भारत है, जो मिश्रित नसलों से तैयार की गई है। यह भारत के हिमालय क्षेत्रों में पाये जाते हैं। अब ये सिक्किम, दार्जीलिंग और भूटान में भी पाये जाते हैं। यह नस्ल स्पिति, भूटिया और तिब्बती घोड़ों के प्रजनन से तैयार की गई है। यह नसल सलेटी, बादामी, हल्के काले और खाकी रंगों में पायी जाती है। इसकी गर्दन छोटी, सिर चपटा, छाती छोटी-भारी और टांगे मजबूत होती हैं। यह नसल ज्यादातर घुड़ सवारी और खेलों के लिए प्रयोग की जाती है।
अरबी-
इस नस्ल का जन्म स्थान अरबी देश है। अब यह यू.एस., केनेडा, दक्षिण अमेरिका, यू.के., यूरोप और ऑस्ट्रेलिया देशों में भी पायी जाती है। इस नस्ल को इनकी अच्छी रफ्तार, सहनशीलता और मजबूत हड्डियों के कारण घुड़सवारी घोड़ों के नाम से भी जाना जाता है। अरबी घोड़ों को औसतन भार 950 पाउंड होता है। इनका सिर और कान छोटे, सीधा सिर, छोटी नाल मुख, छोटी कमर, गहरी छाती, लंबी धुनषाकार गर्दन और सुडौल शरीर होता है।
थोरोब्रैड-
इस नस्ल का मूल स्थान इंग्लैंड है। रेसिंग ट्रैक्स में इन्हें तेज रफ्तार के लिए जाना जाता है। इन्हें पोलो, जंपिंग और शिकार के लिए प्रयोग किया जाता है। यह नसल विभिन्न रंगों में पायी जाती है। पर ज्यादातर काला, भूरा बादामी और खाकी रंग आम है। इनकी टांगे लंबी, कंधे लटके हुए, शरीर लंबा और चिकना, लक छोटा और ऊंचाई कम होती है। इन घोड़ों की औसतन ऊंचाई 157-173 सैं.मी. होती है।
मिनिएचर पोनी-
इस नस्ल के घोड़े घरेलू और प्रदर्शनी के लिए पाले जाते हैं इन्हें मुख्यत: इनके छोटे आकार के लिए जाना जाता है। जैसे कि इनके नाम मिनिएचर से ही स्पष्ट होता है ये छोटे कद के होते हैं। इनका कद लगभग 34 इंच होता है। मिनिएचर पोनी का औसतन भार 30-40 किलो के आस-पास होता है। इनकी कमर छोटी होती है जिस पर समतल लाइन बनी होती है। इनका सिर, गर्दन और शरीर की लंबाई के समान अनुपात में होता है और इनकी टांगे सीधी होती हैं। ये लगभग सभी रंगों में पाये जाते हैं। ये सवारी करने के लिए बहुत छोटे होते हैं लेकिन गड्ढे को खींचने में अच्छा काम करते हैं।
घोड़ापालन ऐसे करें-
अगर आपके पास पर्याप्त मात्रा में भूमि उपलब्ध है तो आप अपनी संपत्ति में घोडा पालन का आनंद उठा सकते है. घोड़ा एक बुद्धिमान और भावुक पशु होता है.इसीलिए घोड़ा पालन करना जितना सरल है वह उतना ही जिम्मेदारी से भरा कार्य भी है. घोड़ापालन का अर्थ है- साल के 365 दिन घोड़े की देखभाल करना, निरीक्षण करना, साफ-सफाई करना, खाना-खिलाना और उससे जुड़ी समस्याओं का समाधान करना. ऐसे में अगर आपने घोड़ा पाल रखा है और आप कही दो -चार दिन या सप्ताह के लिए बाहर जा रहे है तो आपको घोड़े के लिए किसी अनुभवी और जरूरतमंद व्यक्ति की नियुक्ति करके जाना चाहिए. आपको घोड़े हेतु पर्याप्त चारे की व्यवस्था करनी होगी.
जीवनकाल -
घोड़ा का जीवनकाल 25 से 30 वर्ष तक का ही होता है. एक औसत घोड़ा पांच से छह साल की अवधि में प्रजनन तक तैयार होता है. उससे पहले उसकी सवारी नहीं करना चाहिए. क्योंकि उसकी कंकाल और हड्डियां पूरी तरह से विकसित नहीं होता है. रेस में दौड़ने वाले घोड़ों पर आमतौर पर 1.5 वर्ष में सवारी को शुरू कर देना चाहिए. कुछ घोड़े समय के साथ कई बार अपाहिज हो जाते है और कई को 3 वर्ष की आयु तक मार दिया जाता है.
घोड़े का भोजन-
घोड़ा अपने वजन का 1 प्रतिशत से ज्यादा घास खा सकता है. अगर आपके पास युवा और पौष्टिक घोड़े है तो आप वर्षभर विभिन्न प्रकार का चारा उगता है तो आप घोड़े को ताजा और सूखी घास दे सकते है. इसमें घास, दूब, लोबिया, ब्रासिका आदि है. घोड़ों के पोषण को पूरा करने के लिए भूसी, चुंकदर, पेलेट मिक्स, जई, बाजरा, कटी हुई घास और विटामिन का प्रयोग तब किया जाता है जब आप घोड़ों का वजन बढ़ाना चाहते है. बूढ़े, चोटिल घोड़े को अधिक विटामिन की जरूरत पड़ती है. इसके अलावा जई की घास भी बड़े घोड़ों और घोड़ियों की प्रारंभिक गर्भावस्था के लिए उपयुक्त चारा है. घोड़ों के कुल आहार में नाइट्रेट का स्तर 0.5 प्रतिशत से ज्यादा नहीं होना चाहिए.
घोड़ो का रहन सहन -
घोड़ों के लिए अस्तबल और एक पर्याप्त आश्रय स्थान होना जरूरी होता है. उनके लिए हमें एक सुरक्षित, एक बाहरी आश्रय, एक चारागाह और एक ठहरने का स्थान, विभिन्न प्रकार का चारा रखने के लिए और तैरीके लिए एक या दो अलग कमरे, घोड़ों के लिए दवाएं और प्राथमिकता चिकित्सा किट रखने के लिए एक कमरे और विशेष मेड़ की जरूरत होती है ताकि हमारे घोड़े बाहर न निकले. घोड़े के लिए ऐसा स्थान तैयार करे जो कि बारिश और धूप से हर तरह से बच सकें. घोड़े की कोठरी में बिस्तर के रूप में लकड़ी के बुरादे का इस्तेमाल किया जाना चाहिए. प्रत्येक घोड़े के पालन हेतु 170 वर्ग फीट स्थान की जरूरत है. कोठरी हवादार और साफ़ सुथरी होनी चाहिए.कोठरी ऐसी तैयार होती है जिसकी आधी खिड़की खुली होती है और उसमें मुख्य दरवाजा होता है.
नस्ल की देख रेख
घोड़ा पालन के लिए उपयुक्त भूमि जैसे खलिहान या शैड और खुली जगह का चयन किया जाना चाहिए। उन्हें शैल्टर या शैड की आवश्यकता होती है जो घोड़ों को हवा और बारिश से बचा सके। सुनिश्चित करें कि चयनित भूमि में स्वच्छ हवा और पानी की सुविधा हो। सर्दियों में घोड़ों को शैड में रखना चाहिए या ठंड के मौसम में घोड़ों को बचाने के लिए कंबल देना चाहिए और गर्मियों में शैड जरूरी होता है।
गाभिन घोड़ियों की देखभाल : प्रजनन मुख्यत: मध्य या आखिर बसंत में किया जाता है इसके लिए नर घोड़े की उम्र लगभग 4 वर्ष और घोड़ी की उम्र 5-6 वर्ष होनी चाहिए। प्रजनन के बाद गर्भावस्था की अवधि औसतन 340 दिनों तक की होती है और वे 1 बछेड़े को जन्म देती है। यह माना जाता है कि प्रजनन के बाद घोड़ी के भार में 9-12 प्रतिशत वृद्धि होती है। गाभिन की अवस्था में घोड़ी को उच्च गुणवत्ता वाला अल्फालफा या घास दिया जाता है। घोड़ी के शरीर में कैल्शियम की कमी को पूरा करने के लिए भोजन में नमक-कैल्शियम-फासफोरस मिक्स करके दिया जाता है।
नए जन्मे घोड़े की देखभाल : जन्म के तुरंत बाद बछेड़े की सांस चैक की जाती है। यदि बछेड़ा सांस ना ले रहा हो, तो बछेड़े के शरीर को रगड़ा जाता है या उसके मुंह में हवा दी जाती है। इससे श्वसन प्रणाली को प्रोत्साहित होने में मदद मिलती है। जन्म के तुरंत बाद नाडू को ना काटें क्योंकि यह बछेड़े को घोड़ी से रक्त लेने में मदद करता है। 1-2 प्रतिशत आयोडीन से नाड़ू को साफ करें।
ब्याने के बाद घोड़ी की देखभाल : घोड़ी को नियमित जांच की आवश्यकता होती है। घोड़ी को आराम के लिए अच्छी गुणवत्ता वाला सूखा चारा दें। आहार में प्रोटीन और कैल्शियम ज़रूर होना चाहिए। डीवार्मिंग, आइवरमैक्टिन देकर की जानी चाहिए। आहार में प्रोटीन और कैल्शियम के साथ-साथ विटामिन ए और डी भी जरूर दें।
सिफारिश किया गया टीकाकरण :
घोड़े का अच्छा स्वास्थ्य बनाए रखने के लिए हर समय टीकाकरण और डी लायसिंग की आवश्यकता होती हैं घोड़े के स्वास्थ्य के लिए इन्फ्लूएंजा टीकाकरण आवश्यक है। कुछ टीके जैसे डीवार्मिंग प्रत्येक वर्ष में एक बार आवश्यक होते हैं। कुछ मुख्य टीके और दवाइयां जो घोड़े के अच्छे स्वास्थ्य को बनाए रखने के लिए आवश्यक होते हैं, निम्नलिखित हैं।
- टैटनस का टीका पहले 3-4 महीने में दें और दूसरा टीका पहले टीके के 4-5 महीने बाद दें।
- इक्वाइन इन्फ्लूएंजा के खतरे को कम करने के लिए WEE और EEE की तीन खुराक दें।
- वेस्ट नील विषाणु के खतरे से बचाव के लिए 4-6 महीने में एक बार दो टीके लगवाएं और फिर पहले टीके के 1 महीने बाद लगवाएं।
- बछेड़े के 2-3 महीने का हो जाने पर 30 दिनों के अंतराल पर टॉक्सोइड टीकाकरण की तीन खुराकें दें।
- धमनियों के इकुआइन विषाणु से बचाव के लिए बछेड़े के 6-12 महीने के होने पर एक खुराक दें।
बीमारियां और रोकथाम-
टैटनस : यह बीमारी क्लॉस्ट्रिडियम बोटुलिनम जीवाणु के कारण होती है। यह बीमारी मुख्यत: किसी चोट या सर्जिकल ऑप्रेशन के कारण होती है।
इलाज : घोड़े में टैटनस बीमारी की रोकथाम के लिए वर्ष में एक बार टैटनस का टीका आवश्य लगवाएं।
गठिया रोग : यह रोग आमतौर पर घोड़े के बड़े हो जाने पर हमला करता है। इससे जोड़ों में सूजन हो जाती है, जोड़ों के निकट, द्रव का स्तर बढ़ता है और वहां पर सूजन दिखाई देती है। परिणामस्वरूप घोड़ा असुविधा दिखाता है, और अत्याधिक दर्द में होता है।
इलाज : फिरोकॉक्सिब एक ओरल पेस्ट है जिसका उपयोग गठिये के इलाज के लिए किया जाता है।
अज़ोतूरिया : इसके कारण मासपेशियों के टिशु नष्ट होते हैं। यह मुख्य रूप से विटामिन की कमी के कारण या घोड़ों को खराब स्थिति में रखने से होता है। इसके कारण घोड़ों को मांसपेशियों में दर्द, शरीर का अकड़ना और घोड़े की अजीब चाल हो जाती है।
डिसटेंपर : यह एक श्वसन संक्रमण है जो मुख्यत: बैक्टीरिया के कारण होता है। इसके लक्षण नाक का बहना, बुखार और भूख में कमी होना है।
इलाज : इस बीमारी से बचाव के लिए वर्ष में एक बार घोड़े का टीकाकरण करवायें।
जुखाम : यह एक संक्रमण बीमारी है जो विषाणु के कारण होती है। इसके लक्षण सफेद बलगम के साथ नाक का बहना, खांसी, भूख में कमी और तनाव का होना है।
इलाज : इस बीमारी से बचाव के लिए वर्ष में दो बार टीकाकरण करवायें।
रहाइनोनिउमोनाइटिस : यह एक ऊपरी श्वसन बीमारी है जो मुख्य तौर पर विषाणु के कारण होती है। इसके लक्षण ठंड, खांसी, नाक का बहना और बुखार आदि हैं।
इलाज : इस बीमारी से बचाव के लिए वर्ष में दो बार रहाइनोनिउमोनइटिस का टीकाकरण करवायें।
इकुआउन इंसीफालोमाइलिटिस : यह विषाणु के कारण होने वाली बीमारी है। यह बीमारी मुख्यत: दिमाग को नुकसान पहुंचाती है और घातक हो सकती है। इसके लक्षण- बुखार, उत्तेजना और फिर तनाव का होना है। कुछ समय के बाद घोड़े पैरालाइज़ हो जाते हैं और फिर 2-4 दिनों में मर जाते हैं।
इलाज : उत्तरी क्षेत्रों में वर्ष में एक बार टीकाकरण करवाया जाता है और गर्म एवं नमी वाले क्षेत्रों में 3 से 6 महीने के अंतराल पर दवाई की अतिरिक्त खुराक दी जाती है।
रेबिज़ : यह बीमारी मुख्यत: किसी अन्य जानवर के काटने से होती है, जो रेबिज़ से संक्रमित हो। इसके लक्षण - असामान्य व्यक्तित्व या व्यवहार परिवर्तन, तनाव और सांमजस्य में कमी होना है।
इलाज : इस बीमारी से बचाव के लिए वर्ष में एक बार रेबिज़ का टीका लगवाएं।
आंतों के कीड़े : घोड़ों में मुख्यत: आंतों के कीड़े होते हैं, जिसका नियमित डीवार्मिंग द्वारा इलाज होता है।
इलाज : डीवॉर्मिंग दवाइयां घोड़ों को कीड़े से बचाव के लिए दी जाती हैं। गीले क्षेत्रों में यह 1 महीने के अंतराल पर और रेगिस्तानी क्षेत्रों में 3 महीने के अंतराल पर दी जाती हैं।
कॉलिक : यह मुख्य रूप से पेट का दर्द है, जिसके कारण छोटे से बड़ा दर्द होता है। यह बीमारी कीड़े, खराब भोजन और गैस के कारण होती है। इसके लक्षण जानवर का सुस्त होना और उसका अपने पेट पर काटना है।
इलाज : घोड़ों का वॉर्मिंग, अंतरग्रहण को कम करने में मदद करता है। कॉलिक बीमारी से बचाव के लिए घोड़े को आहार में चोकर या चुकंदर का गुद्दा नियमित दें।
लेमिनिटिस : यह बीमारी अनाज के ज्यादा खाने के कारण या हरी भरी घास ज्यादा खाने के कारण होती है।
इलाज : पशु चिकित्सक की सहायता से तुरंत फीडर से अनाज निकालें।
घोड़ें की देखभाल -
घोड़ापालक को चाहिए कि आपका घोड़ा हमेशा स्वस्थ रहे. इसीलिए उसके इलाज से संबंधित पशु-चिकित्सक का नंबर आपके पास हर वक्त मौजूद होना चाहिए. यदि वह वक्त पर नहीं आ सकता है तो उसके मार्गदर्शन में आप घोड़े की देखभाल कर सकते है. इसके लिए आपके पास अस्तबल में सूखी और साफ अलमारी होनी चाहिए जहां पर चिकित्सा सहायक किट और दवाओं को रखा जा सके . इसके अलावा आपको घोड़ों के स्वस्थ्य की नियमित जांच करानी चाहिए. घोड़ों के रोग की पहचान का सीधा लक्षण है कि वह सीधे खड़ा नहीं हो पाता, पूरे दिन सोना और कुछ घंटो तक ना खा पाना. घोड़ों को पशु चिकित्सकों से नियमित टीका भी लगवाना चाहिए. घोड़े अक्सर मक्खी और कीड़े आदि से परेशान होते है जो घोड़ों की आंख के पास मंडराते रहते है. आप पर्याप्त मात्रा में विभिन्न रंगों और आकार के फ्लाई मास्क को घोड़ो को पहना सकते हैं. इसके जरिए वह अच्छे से देख पाते हैं और उनकी आंखों को काफी सुरक्षा मिलती है.
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