एक समय की बात है। राजा बलि का पुत्र साहसिक देवताओं को परास्त कर गन्धमादन की ओर प्रस्थित हुआ। उसके साथ बहुत बड़ी सेना थी। इसी समय स्वर्ग की अप्सरा तिलोत्तमा उधर से निकली। उसने साहसिक को देखा और साहसिक ने उसको। दोनों आकर्षित हो गये।
तिलोत्तमा ने अपने सौन्दर्य से साहसिक को मोहित कर दिया। वे दोनों एकांत में यथेच्छ विहार करने लगे। वहीं ऋषि दुर्वासा श्री कृष्ण के चरणों का चिंतन कर रहे थे। वे दोनों उस समय कामवश चेतनाशून्य थे। उन्होंने अत्यंत निकट बैठे मुनि को नहीं देखा। शोर सुनकर सहसा मुनि का ध्यान भंग हो गया। उन्होंने उन दोनों की कुत्सित चेष्टाएँ देख क्रोध में भरकर कहा।
दुर्वासा बोले —ओ गदहे के समान निरलज्ज नराधम। उठ ! भक्त बलि का पुत्र होकर तू पशुवत् आचरण कर रहा है। पशुओं के सिवा सभी मैथुन कर्म में लज्जा करते हैं। विशेषतः गदहे लज्जा से हीन होते हैं; अतः अब तू गदहे की योनि में जा। तिलोत्तमे ! तू भी उठ। दैत्य के प्रति ऐसी आसक्ति; तो अब तू दानव योनि में जन्म ग्रहण कर। ऐसा कहकर दुर्वासा मुनि चुप हो गये । फिर वे दोनों लज्जित और भयभीत होकर मुनि की स्तुति करने लगे ।
साहसिक बोला –मुने ! आप ब्रह्मा, विष्णु और साक्षात् महेश्वर हैं। भगवन् ! मेरे अपराध को क्षमा करें। कृपा करें। यों कहकर वह फूट फूट कर रोते हुए उनके चरणों में गिर पड़ा।
तिलोत्तमा बोली —हे नाथ ! हे दीनबन्धो ! मुझ पर कृपा कीजिए। कामुक प्राणी में लज्जा और चेतना नहीं रह जाती है। ऐसा कहकर वह रोती हुई दुर्वासा की शरण में गयी।
उन दोनों की व्याकुलता देखकर मुनि को दया आ गयी।
दुर्वासा बोले — दानव ! तू विष्णु भक्त बलि का पुत्र है। पिता का स्वभाव पुत्र में अवश्य रहता है। जैसे कालिय के सिर पर अंकित श्री कृष्ण का चरण चिन्ह सभी सर्पों के मस्तक पर रहता है। वत्स ! एक बार गदहे की योनि में जन्म लेकर तू मोक्ष को प्राप्त हो जा। अब तू वृन्दावन के तालवन में जा। वहाँ श्री कृष्ण के चक्र से प्राणों का परित्याग करके तू शीघ्र मोक्ष को प्राप्त कर लेगा। तिलोत्तमे ! तू वाणासुर की पुत्री होगी; फिर श्री कृष्ण –पौत्र अनिरुद्ध का आलिंगन पाकर शुद्ध हो जायगी।
यह कहकर दुर्वासा मुनि चुप हो गये। तत्पश्चात् वे दोनों भी उन मुनिश्रेष्ठ को प्रणाम करके यथा स्थान चले गये। इस प्रकार साहसिक गर्दभ योनि में जन्म लेकर धेनुकासुर हुआ और तिलोत्तमा बाणासुर की पुत्री उषा होकर अनिरुद्ध की पत्नी हुई।


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