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17 फरवरी 1883 अमर बलिदानी- वासुदेव बलवंत फड़के जिनकी आदिवासी सेना ने अंग्रेजों को लोहे के चने चबवाये!

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नोट -भारत की आजादी में शहीद हुए वीरांगना/जवानो के बारे में यदि आपके पास कोई जानकारी हो तो कृपया उपलब्ध कराने का कष्ट करे . जिसे प्रकाशित किया जा सके इस देश की युवा पीढ़ी कम से कम आजादी कैसे मिली ,कौन -कौन नायक थे यह जान सके । वैसे तो यह बहुत दुखद है कि भारत की आजादी में कुल कितने क्रान्तिकारी शहीद हुए इसकी जानकार भारत सरकार के पास उपलब्ध नही है। और न ही भारत सरकार देश की आजादी के दीवानो की सूची संकलन करने में रूचि दिखा रही जो बहुत ही दुर्भाग्य पूर्ण है। 

वासुदेव बलवंत का जन्म महाराष्ट्र के कोलाबा जिले के सिरधोन नमक गाँव में 4 नवम्बर ,सन 1845 में हुआ था। पेश्वू के के जमाने के प्रतिष्ठित परिवार की हालत धीरे धीरे डगमगा चुकी थी । इसलिए डॉ० विल्सन को हाई स्कूल में दो कक्षाएं पास करने के बाद ही उनके पिता ने आगे पढने से इंकार कर दिया । वह चाहते थे की वासुदेव किसी दुकान पर 10 रूपये महावर पर नौकरी कर ले लेकिन वासुदेव नहीं मने , और बोले-अभी और पढूँगा।  पिता से पढाई का खर्च न मिलने पर ,घर छोड़कर ,मुंबई चले गए जि० आई० पी० में 20 रूपये माहवार पर नौकरी कर ली इसके बाद ग्रांट मेडिकल कॉलेज और फिनेन केमिस्ट में नौकरी की। नौकरी के दौरान ही उन्होंने शादी भी की ,पर 28 वर्ष तक पहुँचते ही उनकी पत्नी का देहांत हो गया । उन्होंने पहली पत्नी की मृत्यु के बाद दूसरी शादी की जहाँ पहली पत्नी साधारण थी,केवल गहने -कपड़ो की इच्छा तक सीमित वहीँ दूसरी पत्नी एक साधक की योग्य पत्नी थी। 

माँ की बीमारी ,मृत्यु और श्राद्ध किसी भी समय छुट्टी न मिलने पर उन्हें अंग्रेजी शासन से घृणा हो गई 1857 के विद्रोह के समय वे केवल 12 साल के थे । इस विद्रोह का बदला अंग्रेजो ने जिस प्रकार लिया था वह तब भी उनके दिलो दिमाग पर पहुचा हुआ था।  सैकडो लोगो को पेड़ पर लटका कर फांसिया दी गई ऐसी ऐसी यातनाये दी गई जिन्हें इतिहास में कभी लिखा नहीं जा सकेगा इन यातनाओ  के विरोध का बीज उनके दिमाग में था ,वह धीरे धीरे पल्लवित होने लगा।  महाराष्ट्र के महान नेता जस्टिस रानाडे के भाषण सुनकर उन्हें लगा की मात्रभूमि के लिए कुछ करना चहिये ,अंग्रेजो के बढ़ते अधिकार और भारतीयों की बढ़तीगुलामी देखकर उनके अंतर की क्रांति की चिंगारी भड़क कर शोला बन गई । इस सबका प्रत्यक्ष प्रमाण वह अपने नौकरी-काल में देख ही रहे थे पर अभी वह समय नहीं आया था, क्योंकी चेतना अभी भी पूरी तरह जाग्रत नहीं हुई थी। 

अंततः फडके ने व्यख्यान देना ,अपनी कलम के माध्यम से लोगो तक पहुँचाना शुरू कर दिया।  पहले उनका प्रचार केवल पुना तक ही सीमित था, लेकिन बाद में वह अन्य जगहों पर भी दौरे करने लगे। लेकिन कुछ दिनों बाद में ही उन्हें यह महसूस होने लगा की केवल भाषण न तो भारतीय जनता के मानसिक गुलामी के बीज निकल सकते है और न ही अंग्रेजो को ही भारत से निकल सकते है । लोग उनकी बातो को सुनते तो थे ,लेकिन सहायता देने की बात पर कहते -आप कहते तो ठीक है, लेकिन इतनी बड़ी सरकार की खिलाफत मुठ्ठी भर लोग किस किस प्रकार से कर सकते है ? कुछ व्यक्तियों ने तो यहाँ तक कहा -की ईश्वर की ही कृपा से अंग्रेज यहाँ आये है। 

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इस तरह की धारणाओ से लड़ते हुए फडके बहुत निराश हो जाते थे ,अंत में मध्यम वर्ग के पढ़े लिखे लोगो से निराश होकर वह छोटी जातियों के लोगो को विद्रोह के लिए भड़काने लगे । पूना शहर के बहार रहने वाली पिछड़ी जाति के रामोसी लोगो को उन्होंने अपनी योजना में शामिल कर लिया यह लोग साहसी थे और मरने से भी नहीं घबराते थे उनके संगठन के लिए धन की जरूरत थी,परन्तु धन आये कहाँ से इसलिए उन्होंने रामासियो के साथ डकैती डालने की योजना बनाई। और गढ़ों तथा साहुकारो को लूटकर उन्होंने बहुत सा धन इकठा किया और घर परिवार छोड़कर सहाद्री पहाडियों पर रहने लगे।  उन्ही दिनों ,महाराष्ट्र में महान दुर्भिक्ष फेला हुआ था क्रन्तिकारी विचारो को हवा मिलने के लिए इससे अच्छा समय कहाँ मिल सकता था।  इसी समय 1879 की 13 मई को फडके ने भूतपूर्व पेशवाओ के दो महलो में आग लगा दी । क्यों की उनमे अंग्रेजो के दफ्तर थे इस घटना से अंग्रेज अफसर , बौखला गए और फडके के सर पर उन्होंने इनाम की राशि और बढ़ा दी । लन्दन टाइम्स में इसका वर्णन पूरे ब्योरे के साथ छपा था ,जिसे पढ़कर अंगेज सरकार का दमन चक्र और भी बढ़ गया। रानाडे को फडके का सहायक होने के संदेह में उनका तबादला पूना से धुलिया कर दिया गया । पूना की जनता पर भी कड़े निर्देश लगा दिए गए रात को 9 बजे के बाद कोई भी घर से बाहर नहीं निकल सकता था । 
                    
फडके के लिए यह समय बहुत ही भयंकर था अपने मित्रो के साथ वे एक जंगल से दूसरे जंगल भागते रहे जंगली जानवरों,सांपो के बीच खाने पिने की चिंता छोड़कर यह देशभक्त क्रन्तिकारी क्रांति के सपने देखता रहा और आशा करता रहा की जल्दी ही वह एक ऐसे सेना का गठन कर लेंगे ,जो अंग्रेजो के विरुद्ध मोर्चा ले सकेगी । इन्ही दिनों फडके के दो साथी मरे गए उनका विश्वासी सहायक दौलत राव तो सैनिको की गोली से मारा गया था।  परन्तु दूसरा साथी थारेश पुलिस के हाथ पड़ गया था ,पुलिस ने उसको ठाणे में जिंदा जला दिया था। 
                                                     
अपने दो विश्वस्त -साथियों को खोकर उनका मनोबल टूट गया धन का अभाव भी था । ऐसे कठिन समय तक वह अपने एक मित्र कृष्ण जी पन्त गोगाटे के घर पर रुके। परन्तु  गोगाटे की पत्नी ने यह बात किसी पडोसी को बता दी मेजर डेनियल को फडके को गिरफ्तार करने के लिए नियुक्त किया गया था। खबर सुनते ही वह गोगटे के घर छापा डालने के लिए चल पड़े ,परन्तु उनके पहुँचने के पहले ही गोगाटे और फडके निकल भागे । ,काफी समय दोनों छिपते छिपाते आगे बढ़ते रहे ,लेकिन अंग्रेजो की फौज ने भी उनका पीछा नहीं छोड़ा इसी तरह भागते भागते  गोगाटे भी फडके से अलग हो गए।  गोगाटे के अलग हो जाने पर भी उस वीर क्रन्तिकारी का मनोबल नहीं टुटा छिपने के लिए-थके हुए ,फडके को कोई एक स्थान नहीं मिला ,तो वह एक मंदिर में जाकर सो गए।  वहीँ मेजर डेनियल ने उन्हें सोते हुए ही पकड़ लिया। और कहा जाता है ,उनकी गिरफ्तारी के लिए घोषित इनाम की रकम हैदराबाद निजाम दुबारा दी गई थी भारतीयों की गुलाम मानसिकता का इससे अच्छा उदाहरण कहाँ मिल सकता था ?

वहां से उन्हें पुन लाया गया 31 ,अगस्त 1879 को उनके उपर मुकदमा चलाया गया और अभियोग थे बगावत ,राजद्रोह एवं डकैती। फडके से अंग्रेज इतने ज्यादा नाराज थे की कोई भी वकील उनका मुकदमा लेने के लिए आगे नहीं आना चाहता था। लेकिन काका गणेश वासुदेव जोशी साहस से सामने आये उनके मित्रो ने उन्हें ऐसा करने से रोका ,तो जोशी ने मुस्कुराकर कहा अंग्रेज ज्यादा से ज्यादा मुझे भी फडके के साथ फंसी दे देंगे । इससे आगे तो कुछ नहीं है न ? 
                     
फडके ने अदालत में अपने बयां में कहा था -- मै भारत मै प्रजातंत्र की स्थापना करना चाहता था ,मैने डाके डलवाए है ,परन्तु कभी किसी का धन हाथ से नहीं छुआ। मै भी दधिची बनना चाहता हूँ जिससे मेरी हड्डियों से भारत माता की गुलामी की बेड़ियाँ कट सके ।  अदालत मै वासुदेव बलवंत फडके को दोषी पाया गया और उन्हें आजीवन काले पानी की सजा दी गई ,वह अदन -जेल भेजे गए।  परन्तु 31 अक्टूबर ,1880 को फडके जेल से भाग निकले वह सत्रह मिल तक लगातार भागते रहे।  परन्तु भाषा से अपरिचित व्यक्ति कब तक छिपा रह सकता था ? पुलिस ने उन्हें पकड़ लिया और अंत तक उनके ऊपर पुलिस के अत्याचार होते रहे और अंत मै 17 फरवरी सन 1883 ई० को उनकी मृत्यु हो गई। 

फडके ने रोजानामचा मै एक बार लिखा था अंग्रेजी हुकूमत के वजह से भारत की हजारो लाखो संताने भूखो मर रही है। इन शासको का हर काम बईमानी से भरा हुआ है , जिसे हमारी जनता समझ नहीं पा रही है । किसी भारतीय की तरक्की होती है ,तो सारे अखबार उसी खबर की सुर्खियों मै रंग जाते है । और सभी यह कहते है की गोरे शासक कितने अच्छे है की कालो को भी सम्मान और उच्च पद दे रहे है।  1 रूपये का 5 सेर गेहूं मिलने पर भी हम क्यों भूखे है ? यह कोई नहीं सोचता  वास्तविकता यह थी की वासुदेव बलवंत फडके के विचार उस युग को देखते हुए ,बहुत आगे के थे फडके ही वह प्रथम क्रन्तिकारी थे ,जिनका ध्यान आर्थिक -प्रश्नों की तरफ भी गया था। परन्तु आज क्या राजनीति में फडके जैसा साहसी ,वीर और त्यागी मनोवृति का कोई नेता है ? 

विशेष यह भी जाने 
अभी थोड़े समय  पहले अहिंसा और बिना खड्ग बिना ढाल वाले नारों और गानों का बोलबाला था ! हर कोई केवल शांति के कबूतर और अहिंसा के चरखे आदि में व्यस्त था लेकिन उस समय कभी इतिहास में तैयारी हो रही थी एक बड़े आन्दोलन की ! इसमें तीर भी थी, तलवार भी थी , खड्ग और ढाल से ही लड़ा गया था ये युद्ध ! जी हाँ, नकली कलमकारों के अक्षम्य अपराध से विस्मृत कर दिए गये वीर बलिदानी  जानिये जिनका आज बलिदान दिवस ! आज़ादी का महाबिगुल फूंक चुके इन वीरो को नही दिया गया था इतिहास की पुस्तकों में स्थान !  किसी भी व्यक्ति के लिए अपने मुल्क पर मर मिटने की राह चुनने के लिए सबसे पहली और महत्वपूर्ण चीज है- जज्बा या स्पिरिट। किसी व्यक्ति के क्रान्तिकारी बनने में बहुत सारी चीजें मायने रखती हैं, उसकी पृष्ठभूमि, अध्ययन, जीवन की समझ, तथा सामाजिक जीवन के आयाम व पहलू। लेकिन उपरोक्त सारी परिस्थितियों के अनुकूल होने पर भी अगर जज्बा  या स्पिरिट न हो तो कोई भी व्यक्ति क्रान्ति के मार्ग पर अग्रसर नहीं हो सकता। देश के लिए मर मिटने का जज्बा ही वो ताकत है जो विभिन्न पृष्ठभूमि के क्रान्तिकारियों को एक दूसरे के प्रति, साथ ही जनता के प्रति अगाध विश्वास और प्रेम से भरता है। आज की युवा पीढ़ी को भी अपने पूर्वजों और उनके क्रान्तिकारी जज्बे के विषय में कुछ जानकारी तो होनी ही चाहिए। आज युवाओं के बड़े हिस्से तक तो शिक्षा की पहुँच ही नहीं है। और जिन तक पहुँच है भी तो उनका काफी बड़ा हिस्सा कैरियर बनाने की चूहा दौड़ में ही लगा है। एक विद्वान ने कहा था कि चूहा-दौड़ की सबसे बड़ी दिक्कत यह है कि व्यक्ति इस दौड़ में जीतकर भी चूहा ही बना रहता है।  अर्थात इंसान की तरह जीने की लगन और हिम्मत उसमें पैदा ही नहीं होती। और जीवन को जीने की बजाय अपना सारा जीवन, जीवन जीने की तैयारियों में लगा देता है। जाहिरा तौर पर इसका एक कारण हमारा औपनिवेशिक अतीत भी है जिसमें दो सौ सालों की गुलामी ने स्वतंत्र चिन्तन और तर्कणा की जगह हमारे मस्तिष्क को दिमागी गुलामी की बेड़ियों से जकड़ दिया है। आज भी हमारे युवा क्रान्तिकारियों के जन्मदिवस या शहादत दिवस पर ‘सोशल नेट्वर्किंग साइट्स’ पर फोटो तो शेयर कर देते हैं, लेकिन इस युवा आबादी में ज्यादातर को भारत की क्रान्तिकारी विरासत का या तो ज्ञान ही नहीं है या फिर अधकचरा ज्ञान है। ऐसे में सामाजिक बदलाव में लगे पत्र-पत्रिकाओं की जिम्मेदारी बनती है कि आज की युवा आबादी को गौरवशाली क्रान्तिकारी विरासत से परिचित करायें ताकि आने वाले समय के जनसंघर्षों में जनता अपने सच्चे जन-नायकों से प्ररेणा ले सके। आज हम एक ऐसी ही क्रान्तिकारी साथी का जीवन परिचय दे रहे हैं जिन्होंने जनता के लिए चल रहे संघर्ष में बेहद कम उम्र में बेमिसाल कुर्बानी दी।    

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