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21 फरवरी 1829 वीरागंना, रानी चेन्नम्मा जिनके सामने, अपनी जान बचाने को अग्रेज अफसर गिड़गिड़ाए थे, अंग्रेज ने उन्हे धोखे से पकडकर दे दी थी फांसी

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नोट -भारत की आजादी में शहीद हुए वीरांगना/जवानो के बारे में यदि आपके पास कोई जानकारी हो तो कृपया उपलब्ध कराने का कष्ट करे . जिसे प्रकाशित किया जा सके इस देश की युवा पीढ़ी कम से कम आजादी कैसे मिली ,कौन -कौन नायक थे यह जान सके । वैसे तो यह बहुत दुखद है कि भारत की आजादी में कुल कितने क्रान्तिकारी शहीद हुए इसकी जानकार भारत सरकार के पास उपलब्ध नही है। और न ही भारत सरकार देश की आजादी के दीवानो की सूची संकलन करने में रूचि दिखा रही जो बहुत ही दुर्भाग्य पूर्ण है। 

भारतीय इतिहास वीरांगनाओं से भरा पड़ा है। कित्तूर की रानी चेन्नम्मा इसी में दर्ज एक स्वर्णिम नाम है। वह एक महान योद्धा थीं. उन्होंने 1824 के आसपास अंग्रेज सरकार को अपने कौशल से धूल-चटाई। दो-दो बार अंग्रेजों की सेना को उनके सामने अपनी जान की भीख मांगनी पड़ी थी। माना जाता है कि भारत की स्वतंत्रता के लिये संघर्ष करने वाली वीरांगनाओं में उनका नाम रानी लक्ष्मीबाई से भी पहले आता है। उन्होंने सबसे पहले हड़प नीति के विरुद्ध अंग्रेजों से सशस्त्र लोहा लिया था। 

कौन थीं रानी चेन्नम्मा?
1778 में कर्नाटक के बेलगाम में रहने वाले घुलप्पा देसाई के घर एक बच्ची ने जन्म लिया नाम रखा गया चेन्नम्मा। बच्ची के माथे पर तेज और आंखों की चमक ने उसको सबका लाडला बना दिया। मां पद्मावती तो मानो उसे एक पल के लिए अपनी आंखों से दूर नहीं करना चाहती थी। वक्त के साथ वह बड़ी हुई तो घुड़सवारी और तलवारबाजी उनके पंसदीदा शौक बन गये। निरंतर अभ्यास से वह जल्द ही युद्ध कलाओं में निपुण हो गईं, जिन्होंने उन्हें बाकी लड़कियों से अलग बनाया।

फिर वह उस उम्र में आईं, जिस उम्र में उस समय लड़कियों की शादी कर दी जाती थी। पिता ने भी देरी नहीं की और वह कित्तूर के राजा मल्लसर्ज की पत्नी के रुप में अपना घर छोड़कर कित्तूर के राजमहल में पहुंच गईं। उनकी सुंदरता और सुशील व्यवहार ने उन्हें ससुराल में भी सबका चहेता बना दिया।

कभी-कभी गांव जाना होता था, तो लोग उन्हें देखकर कहते थे कि हमारी चेन्नम्मा बहुत भाग्यवान है, जो वह इतने बड़े घराने की बहू बनी। यह सही भी था. कित्तूर भले ही उन दिनों मैसूर का एक छोटा सा स्वतंत्र राज्य था. परन्तु वह बहुत संपन्न था। वहां दूर-दूर से व्यापारी आया करते थे, क्योंकि वहां हीरे-जवाहरात का बड़ा बाजार लगता था।

जब टूट पड़ा दुखों का पहाड़!
चेन्नम्मा का जीवन खुशहाल था. इस दौरान उन्होंने एक पुत्र को जन्म भी दिया, पर उसे किसी की नजर लग गई और जल्दी ही उसकी मृत्यु हो गई। चेन्नम्मा इससे बेहाल हो गईं और दुखी रहने लगीं। ऐसे में पति मल्लसर्ज उनका सहारा बने और वह धीरे-धीरे पुत्र के गम से बाहर निकलने लगीं। वह संभली ही थी कि अचानक एक दिन मल्लसर्ज भी चल बसे।  चेन्नम्मा के लिए यह दूसरा बड़ा झटका था। उनकी जीने की अभिलाषा खत्म होने लगी थी।  खालीपन उन्हें खलने लगा था, इसलिए उन्होंने खुद को राज्य के कामकाज में व्यस्त कर लिया। मल्लसर्ज के देहांत के बाद कित्तूर की गद्दी पर कौन बैठेगा यह सभी के सामने एक बड़ी चुनौती थी। हालांकि मल्लसर्ज की पहली रानी रुद्रम्मा का एक पुत्र शिवलिंग रुद्रसर्ज था, परंतु वह योग्य नहीं था। ऐसे में चेन्नम्मा ने उसे शिक्षित कर तैयार किया और गद्दी सौंपी। राज्य को इस तरह एक नया राजा मिला और कामकाज पटरी पर लौटा। 

चुनौतियों ने नहीं छोड़ा पीछा
चेन्नम्मा की चुनौतियां खत्म नहीं हुई थी, उनके दरवाजे पर दबे पांव कुछ ऐसी विपदायें दस्तक दे चुकी थीं, जिनका अंदाजा उन्हें खुद भी नहीं था। उन्हें किसी ने खबर दी कि शिवलिंग नहीं रहे। यह ऐसी खबर थी, जिस पर चेन्नम्मा विलाप भी नहीं कर सकती थीं, क्योंकि मल्लसर्ज के जाने का बाद अंग्रेज लगातार कित्तूर पर नजर गड़ाए बैठे हुए थे। उनकी नजर कित्तूर के बेशुमार खजाने पर थी। चेन्नम्मा को इस बात का एहसास था। उन्होंने राज्य की प्रजा के लिए गम के घूटों को पी लिया और खुद को मजबूत किया। उन्होंने पूरी तरह से सत्ता पर अपना कब्जा जमाया और अपनी सेना को तैयार किया। वह जानती थीं कि किसी भी वक्त अंग्रेज उन पर हमला कर सकते हैं।

अंग्रेजों पर मौत बनकर टूटीं
जैसे ही अंग्रेजों को पता चला कि कित्तूर में कोई भी पुरुष शासक नहीं है और किसी महिला के हाथों में राज्य की बागडोर है, तो उन्होंने सबसे पहले आधा राज्य देने का लालच देते हुए राज्य के कुछ लोगों को अपनी ओर मिलाया। फिर देरी न करते हुए राज्य का खजाना लूटने के उद्देश्य से 1824 में कित्तूर में हमला बोल दिया।

इसकी सूचना जब तक रानी चेन्नेप्पा को मिली, तब तक अंग्रेज किले को घेर चुके थे। राज्य के लोगों में डर का भाव दिखा तो रानी ने अपनी जनता से कहा कि ‘जब तक मेरी नसों में रक्त की एक भी बूंद है, तब तक कित्तूर को कोई नहीं ले सकता। उन्होंने सबको एक साथ आने को कहा और किले के फाटक को खोलने का आदेश दिया।

एक तरफ अंग्रेज अफसर आत्मसमर्पण करने की चेतावनी दे रहा था। दूसरी तरफ लोग तेजी से उन पर हावी हो रहे थे। अंततः रानी चेन्नम्मा ने दो देशद्रोहियों को मौत के घाट उतार दिया. चेन्नम्मा का यह रुप देखकर अंग्रेज थर्र-थर्र कांप रहे थे। अंग्रेज अफसर अपनी जान बचा कर वहां से भाग निकला, तो उसके सिपाहियों ने रानी के सामने जान की भीख में घुटने टेक दिए. रानी ने बड़ा दिल दिखाया और उन्हें जाने दिया।

इस हार को अंग्रेज पचा नहीं पा रहे थे वह किसी भी कीमत पर कित्तूर को पाना चाहते थे। इसी कड़ी में उन्होंने कुछ महीनों बाद ही फिर से कित्तूर का किला घेर लिया। परन्तु इस बार भी उन्हें अपने मुंह की खानी पड़ी। कित्तूर के देशभक्तों ने इस बार उनका बहुत नुकसान किया. ढ़ेर सारे अंग्रेज इस लड़ाई में मारे गये। अंत में जब अंग्रेजों को लगा कि उनके पास लोग कम बचे हैं और वह नहीं जीत पायेंगे, तो एक बार फिर वह पीठ दिखाते हुए अपनी जान बचाकर भाग निकले।

धोखे से पकड़कर बंदी बनाई गईं तीसरे प्रयास में पकड़ी गईं चेन्नम्मा
दो दिन बाद अंग्रेज फिर से एक बड़ी सेना के साथ आ धमके। चेन्नम्मा के नेतृत्व में उन्होंने विदेशियों का फिर सामना किया, पर इस बार कमजोर पड़ गए। असल में इस बार अंग्रेज संख्या में बहुत ज्यादा थे और उन्होंने धोखे से छिपकर हमला किया था। इस लड़ाई में कित्तूर के ढ़ेर सारे लोग मारे गये। रानी चेन्नम्मा अकेली पड़ गई थीं, लेकिन वह हार मानने को तैयार न थीं। उनकी तलवार तेजी से दुश्मन के सिरों को काट रही थी। अंग्रेजों को समझ नहीं आ रहा था कि वह क्या करें। ऐसे में उन्होंने कित्तूर के कुछ लोगों को ढाल बनाकर धोखे से रानी को पकड़ लिया। उन्हें बंदी बनाकर जेल में डाल दिया। जहां 21 फरवरी 1829 में वह वीरगति को प्राप्त हुईं। उनके साथ पकड़े गये सहयोगियों को भी बाद में फांसी दे दी गई।

अपने राज्य और प्रजा के लिए रानी चेन्नम्मा का योगदान अविस्मरणीय था। इसलिए ही उनकी वीरगति के इतने सालों बाद भी लोग उन्हें नहीं भूले हैं। उनकी महानता आज भी कित्तूर में दिखाई देती है। उनकी याद में 22 से 24 अक्टूबर को हर साल वहां के लोग ‘कित्तूर उत्सव’ मनाकर उन्हें नमन करते हैं।

पुणे-बेंगलूरु राष्ट्रीय राजमार्ग पर बेलगाम के पास कित्तूर का राजमहल तथा अन्य इमारतें उनके गौरवशाली इतिहास को बयां करने के लिए आज भी मौजूद हैं। उनके सम्मान में उनकी एक प्रतिमा संसद भवन परिसर में भी लगाई गई है।  ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी के खिलाफ जिस तरह से अपनी सेना के साथ रानी चेन्नम्मा ने अपनी वीरता का परिचय दिया। वह उनके लिए भारतीय स्वतंत्रता अभियान की पहचान बन गया। ऐसी जांबाज वीरांगना को कोटि-कोटि नमन। 

विशेष यह भी जाने 
अभी थोड़े समय  पहले अहिंसा और बिना खड्ग बिना ढाल वाले नारों और गानों का बोलबाला था ! हर कोई केवल शांति के कबूतर और अहिंसा के चरखे आदि में व्यस्त था लेकिन उस समय कभी इतिहास में तैयारी हो रही थी एक बड़े आन्दोलन की ! इसमें तीर भी थी, तलवार भी थी , खड्ग और ढाल से ही लड़ा गया था ये युद्ध ! जी हाँ, नकली कलमकारों के अक्षम्य अपराध से विस्मृत कर दिए गये वीर बलिदानी  जानिये जिनका आज बलिदान दिवस ! आज़ादी का महाबिगुल फूंक चुके इन वीरो को नही दिया गया था इतिहास की पुस्तकों में स्थान !  किसी भी व्यक्ति के लिए अपने मुल्क पर मर मिटने की राह चुनने के लिए सबसे पहली और महत्वपूर्ण चीज है- जज्बा या स्पिरिट। किसी व्यक्ति के क्रान्तिकारी बनने में बहुत सारी चीजें मायने रखती हैं, उसकी पृष्ठभूमि, अध्ययन, जीवन की समझ, तथा सामाजिक जीवन के आयाम व पहलू। लेकिन उपरोक्त सारी परिस्थितियों के अनुकूल होने पर भी अगर जज्बा  या स्पिरिट न हो तो कोई भी व्यक्ति क्रान्ति के मार्ग पर अग्रसर नहीं हो सकता। देश के लिए मर मिटने का जज्बा ही वो ताकत है जो विभिन्न पृष्ठभूमि के क्रान्तिकारियों को एक दूसरे के प्रति, साथ ही जनता के प्रति अगाध विश्वास और प्रेम से भरता है। आज की युवा पीढ़ी को भी अपने पूर्वजों और उनके क्रान्तिकारी जज्बे के विषय में कुछ जानकारी तो होनी ही चाहिए। आज युवाओं के बड़े हिस्से तक तो शिक्षा की पहुँच ही नहीं है। और जिन तक पहुँच है भी तो उनका काफी बड़ा हिस्सा कैरियर बनाने की चूहा दौड़ में ही लगा है। एक विद्वान ने कहा था कि चूहा-दौड़ की सबसे बड़ी दिक्कत यह है कि व्यक्ति इस दौड़ में जीतकर भी चूहा ही बना रहता है।  अर्थात इंसान की तरह जीने की लगन और हिम्मत उसमें पैदा ही नहीं होती। और जीवन को जीने की बजाय अपना सारा जीवन, जीवन जीने की तैयारियों में लगा देता है। जाहिरा तौर पर इसका एक कारण हमारा औपनिवेशिक अतीत भी है जिसमें दो सौ सालों की गुलामी ने स्वतंत्र चिन्तन और तर्कणा की जगह हमारे मस्तिष्क को दिमागी गुलामी की बेड़ियों से जकड़ दिया है। आज भी हमारे युवा क्रान्तिकारियों के जन्मदिवस या शहादत दिवस पर ‘सोशल नेट्वर्किंग साइट्स’ पर फोटो तो शेयर कर देते हैं, लेकिन इस युवा आबादी में ज्यादातर को भारत की क्रान्तिकारी विरासत का या तो ज्ञान ही नहीं है या फिर अधकचरा ज्ञान है। ऐसे में सामाजिक बदलाव में लगे पत्र-पत्रिकाओं की जिम्मेदारी बनती है कि आज की युवा आबादी को गौरवशाली क्रान्तिकारी विरासत से परिचित करायें ताकि आने वाले समय के जनसंघर्षों में जनता अपने सच्चे जन-नायकों से प्ररेणा ले सके। आज हम एक ऐसी ही क्रान्तिकारी साथी का जीवन परिचय दे रहे हैं जिन्होंने जनता के लिए चल रहे संघर्ष में बेहद कम उम्र में बेमिसाल कुर्बानी दी।    

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