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17 दिसम्बर बलिदान दिवस काकोरी कांड के नायक राजेन्द्रनाथ लाहिड़ी ने हंसते-हंसते चूम लिया था फांसी का फंदा

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नोट -भारत की आजादी में शहीद हुए वीरांगना/जवानो के बारे में यदि आपके पास कोई जानकारी हो तो कृपया उपलब्ध कराने का कष्ट करे . जिसे प्रकाशित किया जा सके इस देश की युवा पीढ़ी कम से कम आजादी कैसे मिली ,कौन -कौन नायक थे यह जान सके । वैसे तो यह बहुत दुखद है कि भारत की आजादी में कुल कितने क्रान्तिकारी शहीद हुए इसकी जानकार भारत सरकार के पास उपलब्ध नही है। और न ही भारत सरकार देश की आजादी के दीवानो की सूची संकलन करने में रूचि दिखा रही जो बहुत ही दुर्भाग्य पूर्ण है। 

लाहिड़ी जी ने हंसते हंसते फांसी का फंदा चूमने से पहले वंदे मातरम् की हुंकार भरते हुए कहा था “मैं मर नहीं रहा हूं बल्कि स्वतंत्र भारत में पुनर्जन्म लेने जा रहा हॅू......

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राजेन्द्रनाथ लाहिड़ी का जन्म बंगाल के पाबना जिले के भड़गा नामक ग्राम में 23 जून, 1901 को हुआ। इनके पिता जी का नाम क्षिति मोहन शर्मा और माता जी का नाम बसंत कुमारी था। राजेन्द्रनाथ लाहिडी के ह्रदय में बचपन से ही देश प्रेम था क्युकि देश प्रेम उनके घर की हवाओं में फैला हुआ था। राजेन्द्रनाथ जी के पिता क्षिति मोहन लाहिड़ी व बड़े भाई दोनों ही देश की सेवा के लिए क्रांतिकारी गतिविधियों से जुड़े थे.। एक दिन उनके पिता क्षिति मोहन लाहिड़ी व बड़े भाई बंगाल में चल रही अनुशीलन दल की गुप्त गतिविधियों में योगदान देने के आरोप में अंग्रेजी सरकार ने गिरफ्तार करके जेल भेज दिया। तब सहारे और शिक्षा के लिए बाद राजेन्द्रनाथ जी चले आये अपने मामा जी के घर. और उन्होंने अपनी शिक्षा वाराणसी से करने लगे.  ’काशी हिन्दू विश्वविद्यालय’ से इतिहास से एम. ए. किया। काशी हिन्दू विश्वविद्यालय’ से इतिहास से एम.ए. कर रहे रहे थे तब उनकी मुलाकात बंगाल के क्रांतिकारी ’युगांतर’ दल के नेता शचीन्द्रनाथ सान्याल जी से हुयी। 

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सान्याल जी ने राजेन्द्रनाथ लाहिड़ी जी  फौलादी दृढ़ता, देश-प्रेम और आजादी के प्रति दीवानगी देख कर उन्हें अपने साथ रख लिया और उसके बाद उन्होंने बनारस से प्रकशित होने वाली पत्रिका बंग वाणी के सम्पादन का कार्य भार उन्हें सौप दिया। और इसके बाद लाहिड़ी जी को एक दूसरे दल ’अनुशीलन’ समिति की वाराणसी शाखा के सशस्त्र विभाग का प्रभारी बना दिया । अंग्रेजो द्वारा भारत पर हो रहे अत्याचारों से देश को आज़ाद करने के लिए अंग्रेजो के खिलाफ़ आवाज़ उठने के लिए क्रांतिकारी संगठन  हिन्दुस्तान रिपब्लिकन ऐसोसिएशन से जुड़ गये और उसके सक्रीय सदस्य बन गए तथा क्रांतिकारी गतिविधियों को अंजाम देने लगे। क्रान्तिकारियों द्वारा ब्रिटिश हुकूमत के विरुद्ध सशस्त्र क्रान्ति को गति देने के लिये धन की आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए एक बैठक की गयी यह बैठक शाहजहाँपुर में  पण्डित राम प्रसाद ’बिस्मिल’ के निवास पर हुई जिसमे सभी क्रांतिकारी मौजूद थे। इस बैठक में अंग्रेजो के खिलाफ़ जंग लड़ने के लिए अंग्रेजी सरकार का ही खजाना लूटने की योजना बनायीं गयी। और इस योजना को सफल बनाने के लिए सब के अपने अपने कार्य निर्धारित किये गए। इस लूट कांड में अहम् भूमिका लाहिड़ी जी को मिली। क्रान्तिकारियों द्वारा ब्रिटिश हुकूमत के विरुद्ध सशस्त्र क्रान्ति छेड़ने की खतरनाक मंशा से ब्रिटिश सरकार के खजाने को लूटने के लिए रामप्रसाद बिस्मिल की अगुवाई में  9 अगस्त, 1925 में “काकोरी डक़ैती” की इस पूरी घटना को अंजाम दिया था। इस घटना को  हिन्दुस्तान रिपब्लिकन ऐसोसिएशन के केवल दस सदस्यों ने सफलता पूर्वक अंजाम देने के लिए अपना योगदान दिया था इनमे शामिल थे। राजेन्द्रनाथ लाहिड़ी,अशफ़ाक़ उल्ला ख़ाँ,रामप्रसाद बिस्मिल,चन्द्रशेखर आज़ाद,ठाकुर रोशन सिंह,सचिन्द्र बख्शी,केशव चक्रवर्ती,बनवारी लालमुकुन्द लाल, मन्मथ लाल गुप्त आदि ने इस घटना को सफल बनाने के लिए सभी ने अपने अपने नाम को बदल लिया था।

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काकोरी काण्ड की सफलता के बाद रामप्रसाद बिस्मिल जी ने बम बनाने का प्रशिक्षण लेने के लिए लाहिड़ी जी की बंगाल भेज दिया। कलकत्ता के ही स्थित दक्षिणेश्वर में उन्होंने बम बनाने की अभ्यास करने लगे लगे। बम बनाने का प्रशिक्षण उनके अलावा और भी क्रांतिकारी ले रहे थे। एक दिन किसी साथी की जरा सी असावधानी से एक बम अचानक ब्लास्ट हो गया जिसकी तेज़ धमाकेदार आवाज़ को  पुलिस ने सुन लिया और तुरंत ही मौके पर पहुँच कर वहा मौजूद 9 लोगो के राजेन्द्रनाथ लाहिडी को भी गिरफ्तार कर लिया। गिरफ्तारी के बाद उन्हें जेल भेज दिया गया और उन पर अदालत में मुकदमा चलाया गया जिसमे उन्हें  10 साल की सजा सुनाई गयी। और बाद में अपील करने पर सजा को कम करते हुए 10 साल की जगह  5 साल कर दिया। इधर एक एक कर के सारे काकोरी डकैती में शामिल प्रमुख क्रान्तिकारियों को अंग्रेजो ने गिरफ्तार कर लिया था और उन पर मुकदमा चलाया जा रहा था इस डकैती को लेकर। तब राजेन्द्र लाहिड़ी  जी को भी इसमे शामिल होने के कारण उन्हें बंगाल से लखनऊ लाया गया। और उनपर भी इस घटना में शामिल होने के कारण मुकदमा चलाया गया। और तमाम अपीलों व दलीलों के बाद राजेन्द्रनाथ लाहिड़ी,पण्डित राम प्रसाद बिस्मिल, अशफाक उल्ला खाँ ठाकुर रोशन सिंह को लखनऊ की विशेष अदालत ने 6 अप्रैल, 1927 को इन  क्रान्तिकारियों पर काकोरी काण्ड को अंजाम देने के आरोप तथा ब्रिटिश राज के खिलाफ़ सशस्त्र युद्ध छेड़ने के विरुद्ध और साथ ही तमाम और झूठे आरोप लगाते हुए मृत्यु दण्ड ( फाँसी की सज़ा ) की सजा सुना दी। मृत्यु दण्ड की सजा मिलने के बाद भी राजेन्द्रनाथ लाहिड़ी जी हमेशा की तरह अपना सारा समय व्यतीत करते थे। उनकी दिनचर्या में कोई भी बदलाव नहीं आया इसे देख वहा के जेलर से उनसे सवाल किया कि पूजा-पाठ तो ठीक हैं लेकिन ये कसरत क्यों करते हो अब तो फांसी लगने वाली हैं ऐसे में यह सब क्यों कर रहे हो ? तब जेलर को जवाब देते हुए  राजेन्द्रनाथ जी ने कहा......... अपने स्वास्थ के लिए कसरत करना मेरा रोज़ का नियम हैं । और मैं मौत के डर से अपना नियम क्यों छोड़ दू ? यह कसरत अब मैं इसलिए करता हूँ कि......मुझे पुनर्जन्म में विश्वास हैं। और मुझे दुसरे जन्म में बलिष्ठ शरीर मिले इसलिए करता हूँ, ताकि ब्रिटिश साम्राज्य को मिट्टी में मिला सकॅू। फाँसी को लेकर जनता में बढ़ते रोष भारत के तमाम राजनैतिक नेताओं द्वारा अत्यधिक दबाव और कई अपीलों के कारण अंग्रेजी सरकार डर गयी थी। इस कारण आज़ादी के दीवाने राजेन्द्रनाथ लाहिडी जी को गोण्डा कारागार भेजकर अन्य क्रांतिकारियों से दो दिन पहले ही 17 दिसम्बर, 1927 को  इन्हें फाँसी दे दी।

इसके अतिरिक्त इन समस्त घटनाओं का उल्लेख भी गोण्डा जिला कारागार के फाँसी गृह में स्थापित लाहिड़ी जीवनवृत्त शिलापट्ट पर अंकित है। धर्म सम्प्रदाय से ऊपर उठकर लाहिड़ी की अन्तिम इच्छा का सम्मान करने की यह परम्परा आज तक कायम है। लाहिड़ी की क्रान्तिकारी महानायक छवि को पुष्ट करती कविता शहीद लाहिड़ी के प्रति भी जिला कारागार के फाँसी गृह में स्थापित एक अन्य शिलापट्ट पर अंकित है। अमर शहीद राजेन्द्रनाथ लाहिड़ी को उत्तर प्रदेश के गोण्डा जिले में एक क्रान्तिकारी महानायक का स्थान प्राप्त है। प्रति वर्ष 17 दिसम्बर स्थानीय जिला प्रशासन के लिये यह राजकीय महत्व का दिवस होता है। इस दिन जिले के समस्त विद्यालयों एवं प्रशासनिक प्रतिष्ठानों में राजकीय उत्सव का माहौल रहता है। सभी सम्बद्ध प्रतिष्ठानों में शहीद लाहिड़ी के सम्मान में सांस्कृतिक कार्यक्रम आयोजित किये जाते हैं। इन समस्त सांस्कृतिक आयोजनों का केन्द्र बिन्दु गोण्डा का जिला कारागार होता है। कारागार के फाँसीघर में स्थापित लाहिड़ी की प्रतिमा के समक्ष यज्ञ का आयोजन किया जाता है।

विशेष यह भी जाने 
अभी थोड़े समय  पहले अहिंसा और बिना खड्ग बिना ढाल वाले नारों और गानों का बोलबाला था ! हर कोई केवल शांति के कबूतर और अहिंसा के चरखे आदि में व्यस्त था लेकिन उस समय कभी इतिहास में तैयारी हो रही थी एक बड़े आन्दोलन की ! इसमें तीर भी थी, तलवार भी थी , खड्ग और ढाल से ही लड़ा गया था ये युद्ध ! जी हाँ, नकली कलमकारों के अक्षम्य अपराध से विस्मृत कर दिए गये वीर बलिदानी  जानिये जिनका आज बलिदान दिवस ! आज़ादी का महाबिगुल फूंक चुके इन वीरो को नही दिया गया था इतिहास की पुस्तकों में स्थान !  किसी भी व्यक्ति के लिए अपने मुल्क पर मर मिटने की राह चुनने के लिए सबसे पहली और महत्वपूर्ण चीज है- जज्बा या स्पिरिट। किसी व्यक्ति के क्रान्तिकारी बनने में बहुत सारी चीजें मायने रखती हैं, उसकी पृष्ठभूमि, अध्ययन, जीवन की समझ, तथा सामाजिक जीवन के आयाम व पहलू। लेकिन उपरोक्त सारी परिस्थितियों के अनुकूल होने पर भी अगर जज्बा  या स्पिरिट न हो तो कोई भी व्यक्ति क्रान्ति के मार्ग पर अग्रसर नहीं हो सकता। देश के लिए मर मिटने का जज्बा ही वो ताकत है जो विभिन्न पृष्ठभूमि के क्रान्तिकारियों को एक दूसरे के प्रति, साथ ही जनता के प्रति अगाध विश्वास और प्रेम से भरता है। आज की युवा पीढ़ी को भी अपने पूर्वजों और उनके क्रान्तिकारी जज्बे के विषय में कुछ जानकारी तो होनी ही चाहिए। आज युवाओं के बड़े हिस्से तक तो शिक्षा की पहुँच ही नहीं है। और जिन तक पहुँच है भी तो उनका काफी बड़ा हिस्सा कैरियर बनाने की चूहा दौड़ में ही लगा है। एक विद्वान ने कहा था कि चूहा-दौड़ की सबसे बड़ी दिक्कत यह है कि व्यक्ति इस दौड़ में जीतकर भी चूहा ही बना रहता है।  अर्थात इंसान की तरह जीने की लगन और हिम्मत उसमें पैदा ही नहीं होती। और जीवन को जीने की बजाय अपना सारा जीवन, जीवन जीने की तैयारियों में लगा देता है। जाहिरा तौर पर इसका एक कारण हमारा औपनिवेशिक अतीत भी है जिसमें दो सौ सालों की गुलामी ने स्वतंत्र चिन्तन और तर्कणा की जगह हमारे मस्तिष्क को दिमागी गुलामी की बेड़ियों से जकड़ दिया है। आज भी हमारे युवा क्रान्तिकारियों के जन्मदिवस या शहादत दिवस पर ‘सोशल नेट्वर्किंग साइट्स’ पर फोटो तो शेयर कर देते हैं, लेकिन इस युवा आबादी में ज्यादातर को भारत की क्रान्तिकारी विरासत का या तो ज्ञान ही नहीं है या फिर अधकचरा ज्ञान है। ऐसे में सामाजिक बदलाव में लगे पत्र-पत्रिकाओं की जिम्मेदारी बनती है कि आज की युवा आबादी को गौरवशाली क्रान्तिकारी विरासत से परिचित करायें ताकि आने वाले समय के जनसंघर्षों में जनता अपने सच्चे जन-नायकों से प्ररेणा ले सके। आज हम एक ऐसी ही क्रान्तिकारी साथी का जीवन परिचय दे रहे हैं जिन्होंने जनता के लिए चल रहे संघर्ष में बेहद कम उम्र में बेमिसाल कुर्बानी दी।    

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