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धनिया की खेती कैसे करे

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धनिया एक वार्षिक जड़ी बूअी का पौधा है जिसका प्रयोग रसोई में मसाले के तौर पर किया जाता है। इसके बीजों, तने और पत्तों का प्रयोग अलग अलग पकवानों को सजाने और स्वादिष्ट बनाने के लिए किया जाता है। इसके पत्तों में विटामिन सी भरपूर मात्रा में होता है। घरेलू नूस्खों में इसका प्रयोग दवाई के तौर पर किया जाता है। इसे पेट की बिमारियों, मौसमी बुखार, उल्टी, खांसी और चमड़ी के रोगों को ठीक करने के लिए प्रयोग किया जाता है। इसकी सब से ज्यादा पैदावार और खप्त भारत में ही होती है। भारत में इसकी सब से ज्यादा खेती राजस्थान में की जाती है। मध्य प्रदेश, आसाम, और गुजरात में भी इसकी खेती की जाती है।

धनिया अम्बेलीफेरी या एपिएसी कुल का पौधा है। इसके वंश को कोरिएन्डम एवं प्रजाति सटाइवम है। इसका गुणसूत्र संख्या 2n = 22 होता है। धनिया के पौधे चिकनी सतह वाले 20-90 सेमी0 ऊॅंचाई के होते हैं। इसके नीचे की पत्तियाँ साधारणतया 2.5-10 सेमी0 लम्बी एवं 2.75 सेमी0 चौड़ी होती है। ऊपर की पत्तियाँ छोटे-छोटे भागों में विभक्त होकर पतले पर्ण फलकों में बदल जाती है।

इसके पुष्प छोटे आकार के छत्रक में आते हैं। पत्ती वाली सब्जियों में धनिया का प्रमुख स्थान है। इसकी मुलायम पत्तियाँ को चटनी एवं सॉस आदि बनाने में प्रयोग किया जाता है। इसकी हरी पत्तियों को सब्जी एवं अन्य व्यजंनों को सुगन्धित करने के लिए प्रयोग किया जाता है।

इसके दाने को मसाले के रूप् में प्रयोग किया जाता है। धनिया की पत्तियाँ पोषण की दृष्टि से बहुत महत्वपूर्ण हैं।  इसमें पर्याप्त मात्रा में विटामिन सी, कैरोटीन एवं अन्य खनिज तत्व पाये जाते हैं। इसकी पत्तियों में पाये जाने वाले पोषक तत्व की सारणी निम्नलिखित है


पौष्टिक तत्व पत्ती (प्रति 100 ग्राम खाने योग्य भाग)
नमी 86.3 ग्राम
प्रोटीन 3.3 ग्राम
वसा 0.6 ग्राम
खनिज लवण 2.3 ग्राम
रेशा 1.2 ग्राम
कार्बोहाइडेटस 6.3 ग्राम
ऊर्जा 44 किलो कैलोरी
कैल्शियम 184 मि0ग्रा0
फास्फोरस 7.0 मि0ग्रा0
आयरन 1.42 मि0ग्रा0
कैरोटीन 6918 माइक्रोग्राम
मैग्नीशियम 31.0 मि0ग्रा0
सोडियम 583 मि0ग्रा0
पोटैशियम 256 मि0ग्रा0
कॉपर 0.14 मि0ग्रा0
मैंगनीज 0.50 मि0ग्रा0
मालिब्डेनम 1.12 मि0ग्रा0
जिंक 0.32 मि0ग्रा0
क्रोमियम 0.014 मि0ग्रा0
सल्फर 49.0 मि0ग्रा0
क्लोरीन 43.0 मि0ग्रा0

धनि‍ये की खेती के लि‍ए जलवायु एवं भूमि:

धनिया की खेती शीतोष्ण एवं उपोष्ण दोनों प्रकार की जलवायु में की जाती है। बंसत ऋतु में पाला पड़ने से पौधों को क्षति होने की संभावना रहती है। धनिया के बीज में अंकुरण होने के लिए 20 डि‍ग्रीसे0ग्रे0 तापमान की आवश्यकता होती है जबकि फल बनने के लिए अपेक्षाकृत अधिक तापमान की आवश्यकता होती है। धनिया में पुष्पन एवं बीज बनने के समय बदली का मौसम होने पर चूर्णी फफॅूंद रोग की संभावना अधिक रहती है।

धनिया की खेती के लिए दोमट मृदा सर्वोत्तम होती है। ऐसी भूमि जिसमें कार्बनिक पदार्थ की मात्रा ज्यादा हो एवं जल निकास की भी उचित व्यवस्था हो। इसकी खेती के लिए उचित होती है। इसकी खेती के लिए भूमिका पी0एच0 मान 6.5-8.0 के बीच होना चाहिए, क्योंकि ज्यादा अम्लीय एवं लवणीय मृदा इसकी खेती के लिए उपयुक्त नहीं होती है।

धनिया की फसल में खाद एवं उर्वरक:

धनिया के प्रति हेक्टेयर क्षेत्र में बुआई के लिए 100-150 कुंटल सड़ी हुई गोबर की खाद, 80 किलोग्राम नत्रजन, 50 किलोग्राम फास्फोरस एवं 50 किलोग्राम पोटाश की आवश्यकता पड़ती है। खेत की तैयारी के समय गोबर की खाद को मिट्टी में भली प्रकार से मिला देते हैं।

नत्रजन की दो तिहाई मात्रा एवं फास्फोरस व पोटाश की पूरी मात्रा को अन्तिम बार जुताई से पहले खेत में देना चाहिए। नत्रजन की शेष एक तिहाई मात्रा को दो बराबर भाग में बाँटकर पहली बार बुआई के 30-35 दिन बाद देना चाहिए एवं शेष भाग को फूल निकलते समय देना चाहिए।

धनिया की फसल में कार्बनिक खादों के प्रयोग से अच्छे परिणाम मिलते हैं, जबकि ऐसे खेत में जिनमें कार्बनिक पदार्थ की मात्रा कम होती है, इससे पौधों की बढ़वार प्रभावित होती है।

धनि‍यॉं की बुवाई:

धनिया को पत्ती के रूप में उपयोग करने के लिए इसको सालभर, उगाया जाता है। जबकि बीज के उद्देश्य से उत्तरी भारत में इसकी एक फसल ली जाती है जबकि दक्षिणाी भारत में इसकी दो फसल ली जाती है। पर्वतीय क्षेत्राें में इसकी बुवाई मार्च में करते हैं।  जबकि कर्नाटक एवं तमिलनाडु में मई माह में बुआई करते है तथा बुआई अक्टूबर में करते हैं।

धनि‍यॉं उगाने के लि‍ए बीज की मात्रा:

प्रति हेक्टेयर क्षेत्र के लिए 25-30 किलोग्राम बीज प्रति हेक्टेयर की दर से करते हैं। बीज की बुआई से पहले हल्के हाथ से रगड़कर या तोड़कर दो भागों में बाँट लेना चाहिए। धनिया के बीज को बोने से पहले कवकनाशी दवाओं जैसे बावस्टीन को 2 ग्राम प्रति किग्रा0 बीज की दर से उपचारित कर लेना आवश्यक होता है।

इस प्रकार से उपचारित बीज को 24 घंटे तक पानी में भिगोकर बुआई करने से 71.33 प्रतिशत तक अंकुरण पाया गया था। धनिया के बीज बुआई के लगभग 10 दिन बाद अंकुरित होते हैं। बीज की बुआई छिटकवाँ एवं पक्तियों में दोनों विधि से की जाती है। 

धनि‍यॉं में पौधे अंतराल:

पंक्तियों में बुआई के लिए 25-70 सेमी0 तक की जाती है एवं पौधों के बीच की दूरी 5 सेमी0 तक रखी जाती है। बीज को 2-3 सेमी0 गहराई में बोना चाहिए। यदि बीज छिटकवाँ विधि से बोया गया है तो इस अवस्था में जमीन की हल्की जुताई करनी चाहिए एवं बीज को मिट्टी में 1-2 सेमी0 गहराई में पड़ जाना चाहिए।

अन्त: सस्य क्रियायें:

धनिया में पौधों को खरपतवार से मुक्त रखना अत्यन्त आवश्यक होता है। इसके लिए धनिया में दो से तीन बार निराई-गुड़ाई करनी चाहिए। पहली निराई बुआई से 20-30 दिन बाद आरम्भ करनी चाहिए। जबकि दूसरी एवं तीसरी 20-25 दिनों के अंतराल पर करनी चाहिए।

खरपतवार नियंत्रण हेतु अनेक खरपतवारनाशी का प्रयोग करते हैं, जिनमें प्रमुख रूप से लिनूरान, आक्नोडियजात, प्रोमेटिन, प्रोवेमिल इत्यादि का प्रयोग करने से खरपतवार पर नियंत्रण किया जा सकता है।

धनि‍ये के खेत की सिंचाई:
धनिया की पत्तियों को बराबर हरा-भरा एवं मुलायम तथा रसीला रखने के लिए बराबर एवं कम अन्तराल पर सिंचाई करने की आवश्यकता होती है। सिंचाई की कुल संख्या भूमि के प्रकार एवं मौसम पर निर्भर होती है। भारी मिट्टी में लगभग 3-4 बार एवं हल्की भूमि में 5-6 बार सिंचाई करनी चाहिए।

धनि‍ये की किस्में एवं प्रजातियाँ:
यह किस्म गोविन्द बल्लभ पंत कृषि एवं प्रौद्योगिक विश्वविद्यालय पंतनगर द्वारा विकसित की गई है। यह किस्म पत्ती एवं दाने दोनों के लिए उत्तम मानी गयी है। इसकी हरी पत्तियों की उत्पादन क्षमता 50-75 कुन्तल प्रति हेक्टेयर एवं दाने की उत्पादन क्षमता 19-25 कुन्तल प्रति हेक्टेयर तक होती है।

यह किस्म मैदानी क्षेत्रों के अलावा घाटी एवं मध्यम तथा ऊॅंचाई वाले पर्वतीय क्षेत्रों के लिए उपयुक्त होती है। यह किस्म स्टेम गाँल नामक रोग के प्रति प्रतिरोधी है।

कोयम्बटोर 1:
यह किस्म तमिलनाडु कृषि विश्वविद्यालय, कोयम्बटूर से चयन द्वारा विकसित की गयी है। इस किस्म को सन् 1972 में तमिलनाडु के दक्षिण क्षेत्रों में जो असिंचित क्षेत्र के नाम से जाना जाता है, में उगाने की संस्तुति की गयी है।

इसके पौधे लम्बे होते हैं एवं प्रत्येक पौधों में अधिक पत्तियों के गुच्छे बनते हैं। यह किस्म पत्ती एवं बीज की उत्पादन दृष्टि से अत्यन्त महत्वपूर्ण है। इस किस्म पर ग्रीन गोल्ड नामक बीमारी का कोई असर नहीं पड़ता है।

कोयम्बटोर 2:
यह किस्म भी कोयम्बटूर-1 की श्रंखला है एवं इस किस्म को गुजरात के पी-2 किस्म से चयन किया गया है एवं यह 1985 में अनुमोदित की गई थी। यह किस्म भी पत्ती एवं बीज की दृष्टि से उत्तम है।

यह किस्म अजैविक रोधी जैसे बाढ़, सूखा, लवणीय एवं क्षारीय भूमि के प्रति सहिष्णु है। इस किस्म के पौधे सीधे बढ़ते हैं एवं मध्यम ऊॅचाई के होते हैं।

इस किस्म को बोआई के 40 दिन बाद हरी पत्तियों के रूप में उत्पादन मिलने लगता है। इसकी उत्पादन क्षमता दाने की दृष्टि से 5.2 कुन्तल प्रति हेक्टेयर एवं पत्तियों की दृष्टि से 100 कुंतल प्रति हेक्टेयर तक होती है।

कोयम्बटोर 3:
इस किस्म को भारतीय कृषि अनुसंधान संस्थान की ए0सी0सी0 695 लाइन से विशुध्द वंशक्रम चयन द्वारा तमिलनाडु कृषि विश्वविद्यालय, कोयम्बटूर द्वारा विकसित की गई है। इसके बीज की उत्पादन क्षमता 6.5 कुन्तल प्रति हेक्टेयर तक होती है।

पत्तियों की तुड़ाई एवं भण्डारण:
धनिया में हरी पत्तियों की तुड़ाई, बीज को बुआई से लगभग 16-20 दिन बाद की जा सकती है। इस समय तक इसके पौधे 5-6 सेमी0 की ऊॅचाई के हो जाते है। पत्तियों की तुड़ाई बुआई के 60-70 दिन बाद तक जब तक उसमें पुष्प् नहीं आ जाते है तब तक तुड़ाई करते रहत हैं।

इसके अलावा यदि धनिया को पत्ती एवं बीज दोनों उद्देश्य से उगाया जाए तो पत्तियों की 1 से 2 बार कटाई करने के बाद बीज के लिए छोड़ देते हैं। पत्तियों की तुड़ाई करके उनको गाँठ में बॉधकर बाजार में भेज दिया जाता है।

पत्तियों को 40 सेन्टीग्रेड तापमान पर एक सप्ताह तक भण्डारित किया जा सकता है।

धनि‍यॉं की उपज:
धनिया की औसत उत्पादन क्षमता 6-10 कुन्तल प्रति हेक्टेयर तक होती है। कटाई के समय फलों में 20 प्रतिशत से अधिक नमी रहती है जिसको सुख करके 9-10 प्रतिशत तक रखते हैं। हरी पत्तियों की दृष्टि से इसकी उत्पादन क्षमता 100 कुन्तल प्रति हेक्टेयर तक होती है।

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