यह बहुत ही रसीला और गुणवत्ता वाला फल है। यह विटामिन सी और विटामिन बी कंपलैक्स का महत्तवपूर्ण स्त्रोत है। इसकी खोज दक्षिणी चीन में की गई थी। चीन के बाद विश्व स्तर पर भारत इसकी पैदावार में दूसरे स्थान पर आता है। भारत में इसकी खेती सिर्फ जम्मू कश्मीर, उत्तर प्रदेश और मध्य प्रदेश में होती है परंतु बढ़ती मांग को देखते हुए इसकी खेती अब बिहार, झारखंड, छत्तीसगढ़, उड़ीसा, पंजाब, हरियाणा, उत्तरांचल, आसाम और त्रिपुरा और पश्चिमी बंगाल आदि में भी की जाने लगी है।
लीची अपने रंग स्वाद और गुणवत्ता के आधार पर सबसे ज्यादा पसंद की जाती है. चीन के बाद, भारत इसका सबसे बड़ा उत्पादक देश बना हुआ है. लीची के ताज़े फल को खाना ज्यादा फायदेमंद होता है. इसके अंदर कार्बोहाइड्रेट, विटामिन सी,बी, कैल्शियम और मैग्नीशियम जैसे तत्व पाए जाते हैं, जो शरीर के लिए लाभदायक होते हैं.
लीची का पौधा सामान्य ऊंचाई वाला झाड़ीनुमा होता है. लीची के फल को छीलकर खाया जाता है. इसके छिलके का रंग लाल होता है. जबकि लीची अंदर से सफ़ेद दुधिया रंग की होती है. लीची का इस्तेमाल जैम और जेली बनाने में किया जाता है. इसके अलावा इसका शरबत भी काफी पसंद किया जाता है. जो अपने स्वाद और खुशबू के लिए जाना जाता है. लीची को सुखाकर लीची नट बनाया जाता है.
लीची के पौधे को समशीतोष्ण जलवायु में आसानी से उगाया जा सकता है. इसके विकास के लिए सामान्य तापमान जरूरी होता है. भारत में इसको ज्यादातर पूर्वोत्तर राज्यों में उगाया जाता है. लेकिन अब इसकी खेती हरियाणा, पंजाब और उत्तर प्रदेश में भी होने लगी है.
अगर आप लीची की खेती करना चाह रहे हैं तो आज हम आपको इसकी खेती के बारें में सम्पूर्ण जानकारी देने वाले हैं.
उपयुक्त मिट्टी
लीची की खेती के लिए बलुई दोमट मिट्टी सबसे उपयुक्त होती है. इसके अलावा इसकी खेती हलकी अम्लीय और लेटेराईट मिट्टी में भी की जा सकती है. इसके लिए मिट्टी में जल धारण क्षमता अधिक होनी चाहिए. और मिट्टी ह्रूमस युक्त होनी चाहिए. ह्रूमस वाली मिट्टी में इसके पौधे अच्छे से वृद्धि करते हैं और पैदावार भी बढती है. ज्यादा जल भराव वाली मिट्टी इसके लिए उपयुक्त नही होती. इसकी खेती के लिए मिट्टी का पी.एच. मान 5.5 से 7.5 तक होना चाहिए.
जलवायु और तापमान
लीची का पौधा समशीतोष्ण जलवायु में उगने वाला सदाबाहर पौधा है. इसकी खेती के लिए 1200 मिमी बारिश काफी होती है. लेकिन अगर बारिश फलों के पकते टाइम होती है तो ये फलों के लिए नुकसानदायक होती है. इससे फलों की गुणवत्ता और चमक दोनों पर फर्क देखने को मिलता है.
लीची की खेती के लिए सामान्य तापमान सबसे बेहतर होता है. जनवरी और फरवरी में लीची के पौधे पर फूल आने शुरू हो जाते हैं. उस टाइम इसके पौधे के लिए ज्यादा गर्मी और हुमस का होना अच्छा होता है. ज्यादा गर्मी होने की वजह से पौधे पर फूल ज्यादा आते हैं. इसके बाद जब पौधे पर फल बनने लगे तब गर्मी की मात्र कम रहने पर इसके फल अच्छे से विकास करते हैं. फलों के पकने के दौरान सामन्य तापमान रहने पर इसके फलों में गुदा अच्छा बनता है और फलों की गुणवत्ता भी अच्छी होती है.
लीची की किस्में
लीची की कई किस्में तैयार की जा चुकी हैं. जिन्हें अगेती और पछेती के रूप में उगाया जाता है.
शाही लीची
लीची की इस किस्म को अगेती पैदावार के रूप में तैयार किया गया है. इस किस्म के पौधे पर लगने वाले फल सबसे पहले मई माह के दूसरे सप्ताह में ही पकने शुरू हो जाते हैं. इस किस्म का पौधा 15 से 20 साल तक फल देता है. इसके एक पौधे से एक साल में 100 किलो तक लीची प्राप्त हो जाती है. इसके फल में गुदे की मात्रा ज्यादा पाई जाती है.
कलकतिया लीची
कलकतिया लीची देर से पकने वाली किस्म है. इस किस्म के पौधे पर फल जुलाई माह में पकने शुरू होते हैं. इस किस्म के पौधे की उचित देखभाल की जाए तो इसका पौधा 20 साल से ज्यादा टाइम तक फल देता है. इसके फल स्वाद में मीठे होते हैं. जिनके अंदर बीज ज्यादा बड़े पाए जाते है. इस किस्म के फलों में फटने वाली समस्या ज्यादा नही पाई जाती. क्योंकि इसका छिलका मजबूत होता है.
चाइना लीची
चाइना लीची के फलों में ज्यादा गुदे की मात्रा होने की वजह से इसकी मांग पिछले सालों में लगातार बढ़ रही है. चाइना लीची देर से पकने वाली पछेती किस्म है. इसके पौधे ज्यादा बड़े नही होते हैं. इसके फल स्वाद में चटखार लिए होते हैं. इसके एक पौधे से साल भर में 80 किलो तक उपज प्राप्त हो जाती है. लेकिन इनके फलों में एकान्तर फलन की बड़ी समस्या पाई गई जाती है. इसके फलों का रंग गहरा लाल होता है.
देहरादून
लीची की ये एक देशी किस्म है. इसके फल ज्यादा रसभरे होने की वजह से इनमें फटने की समस्या पाई जाती है. इसके फलों का रंग आकर्षक होता है. देहरादून लीची को माध्यम समय की किस्म माना जाता है. इस किस्म के फल जून माह में पकने शुरू हो जाते हैं. इसका पौधा सामान्य आकार का होता है.
सीडलेस लेट
लीची की इस किस्म को लेट बेदान के नाम से भी जानते हैं. इस किस्म के पौधे ज्यादा लम्बाई के होते हैं. इसके पूर्ण विकसित पौधे से साल में 80 से 100 किलो तक लीची प्राप्त हो जाती है. इसके पौधों पर फल जून, जुलाई में लगते हैं. इस किस्म के फल स्वाद में मीठे और ज्यादा गुदे वाले होते हैं. लेकिन इसके फलों में बीज़ के पास कुछ कड़वाहट महसूस होता है.
अर्ली बेदाना लीची
अर्ली बेदाना लीची की एक अगेती किस्म है. जिस पर फल मई माह के लास्ट या जून के शुरूआती सप्ताह में पकने शुरू हो जाते हैं. इसके फल स्वाद में मीठे होते हैं. जिनका आकर सामान्य होता है. इसके फल का छिलका मुलायम और लाल रंग का होता है. जिसको छिलने पर अंदर सफ़ेद क्रीम निकलती है. इसका पौधा सामान्य आकार वाला होता है. जो लगभग 20 से 25 साल तक फल देता है.
स्वर्ण रूपा
लीची की इस किस्म को भारत के कई भागों में उगाने के लिए बनाया गया है. इसके फलों का आकार सामान्य होता है. जिसके अंदर बीज का आकार छोटा और गुदे की मात्रा ज्यादा होती है. इसके फल आकर्षक और गहरे गुलाबी रंग के होते हैं. जो जून माह में पककर तैयार होते हैं. इनमें फलों के फटने की समस्या नही पाई जाती. इसके पौधे सामान्य आकार वाले होते है. जो साल भर में 100 किलो तक फल देते हैं.
इनके अलावा और भी कई किस्में पाई जाती हैं. जिनमें रोज सेंटेड, पूर्वी, कसबा, डी-रोज, कोलिया, अझौली, ग्रीन और देशी जैसी किस्में शामिल हैं.
खेत की जुताई
लीची का पौधा एक बार लगाने के बाद कई सालों तक पैदावार देता है. इसके लिए खेत की शुरुआत में अच्छे से जुताई करनी पड़ती हैं. शुरुआत में जब खेत की जुताई करें तो पलाऊ लगाकर खेत को कुछ दिनों के लिए खुला छोड़ दें. जिसके बाद उसकी कल्टीवेटर से जुताई कर उसमें पानी छोड़ दें. पानी छोड़ने के कुछ दिन बाद खेत की फिर से अच्छे से जुताई करें और खेत को समतल बना लें. ताकि किसी भी जगह पानी का भराव ना हो पायें. उसके बाद खेत में 8 से 10 मीटर की चारों तरफ दूरी बनाते हुए एक मीटर गहराई और चौड़ाई वाले गड्डे बना लें.
पौध तैयार करना
लीची की अच्छी और जल्दी पैदावार लेने के लिए इसकी पौध तैयार की जाती है. लीची के बीज को सीधा खेत में भी उगाया जा सकता है. लेकिन ऐसा करने से पौधे पर फल देरी से आते हैं और साथ में उनकी गुणवत्ता में भी फर्क देखने को मिलता है. इस कारण लीची के पौधों को कलम के रूप में ही लगाएँ. लीची के पौधे की कलम कई तरह से तैयार की जाती हैं. लेकिन गूटी बांधना और ग्राफ्टिंग विधि सबसे अच्छी होती है.
गूटी बांधना
इस विधि को बारिश के मौसम में करना चाहिए. क्योंकि इस दौरान कलम के अंकुरित होने की संभावना सबसे ज्यादा होती हैं. गूटी बाधने की क्रिया पौधे की शाखाओं पर की जाती है. इसके लिए शाखाओं पर गोल छल्ला बना लेते हैं. गोल छल्ला बनाने के लिए थोड़ी पकी हुई शाखा को दोनों तरफ से गोल काटकर उसके छिलके को हटा देते हैं. जिससे शाखा का अंदर का भाग दिखाई देने लगता है. उसके बाद उस पर रूटीन हार्मोन लगाकर उस पर गोबर मिली मिट्टी लगा देते हैं और पॉलिथीन से ढक देते हैं. ध्यान रहे इस विधि में शाखा को पौधे से अलग नही किया जाता. लेकिन जड़ निकलने के बाद उसे पेड़ से अलग कर लेते हैं.
ग्राफ्टिंग विधि
इस विधि को भेट कलम विधि के नाम से भी जानते हैं. इसमें मुख्य पौधे की कलम को वी (v) आकार में काट लेते हैं. उसके बाद किसी भी जंगली पौधे के साथ इस कलम को लगाते हैं. इसके लिए सहायक जंगली पौधे के तने को बीच से काटकर उपर की शाखाएं हटा देते हैं. उसके बाद पौधे के तने को बीच से चीर कर उसमें मुख्य पौधे की कलम को उसमें लगाकर उसे पॉलिथीन से बाँध देते हैं.
पौधे के रोपण का टाइम और तरीका
पौधों को खेत में लगाने का सबसे उत्तम टाइम जून और जुलाई का महीना है. इस दौरान बारिश का मौसम रहता है. जिसमें पौधा अच्छे से वृद्धि करता है. लगभग दो साल पुराना पौधा ही खेत में लगायें. क्योंकि दो साल पुराना पौधा खेत में लगाने के दो साल बाद फल देना शुरू कर देता हैं.
लीची के पौधे को गड्डों में लगाया जाता है. इसके लिए पहले गड्डों में गोबर की खाद और एन.पी.के. की उचित मात्रा को मिट्टी के साथ गड्डे में डालकर अच्छे से मिक्स कर दें. इसके बाद उसमें पानी छोड़ दें. जिससे मिट्टी बैठकर कठोर हो जाती है. यह प्रक्रिया पौधे के रोपण से 15 दिन पहले की जाती है. इसके बाद पौधे को जब गड्डे में लगाएँ तब गड्डे के बीच में खुरपे से जगह बनाकर उसमें पौधे को लगा दें. और पौधे को चारों तरफ से मिट्टी से दबा दें.
पौधे की सिंचाई
पौधे को खेत में लगाने के बाद ही उसकी सिंचाई कर दें. उसके बाद सप्ताह में 2 बार पौधे की सिंचाई करें. आपको बता दें कि लीची के पौधे को ज्यादा पानी की जरूरत नही होती. इसलिए शुरुआत में इसे सिर्फ आवश्यकता के अनुसार ही पानी दे.
फल लगे हुए पौधे को पानी की शुरुआत में ज्यादा जरूरत नही होती हैं. इसलिए सिर्फ पौधे में नमी बनी रहे उसी के अनुसार पौधे में पानी देना चाहिए. और जब पौधे पर फूल आने का टाइम हो उसके एक से दो महीने पहले पौधे को पानी देना बंद कर देना चाहिए. उसके बाद जब पौधे पर फल लगने लगे तब पौधे में पानी की कमी ना होने दें. पानी की कमी होने पर फलों की वृद्धि और गुणवत्ता में फर्क देखने को मिलता है.
उर्वरक की उचित मात्रा
पौधे को खेत में लगते वक्त उसे 25 किलो गोबर की खाद और 100 से 150 ग्राम एन.पी.के. मिट्टी में मिलाकर देना चाहिए. इसके अलावा 2 किलो करंज की खली पौधों को दो साल में दो बार देनी चाहिए. उसके बाद जैसे जैसे पौधे की उम्र बढ़ती जाए वैसे वैसे ही उर्वरक की मात्रा भी बढ़ाते रहना चाहिए.
जब पौधा पूरी तरह से विकसित हो जाए तब पौधे के तने से पांच फिट की मिट्टी को बदलकर उस जगह नई मिट्टी डाल दें. जिसमें उर्वरक की उचित मात्रा मिला दें. ऐसा करने से पौधे में नई रूट बनती है. जिससे पौधे की पैदावार पर फर्क देखने को मिलता है.
खरपतवार नियंत्रण
लीची के पौधों को खेत में लगाने के बाद खरपतवार नियंत्रण के लिए पौधों की नीलाई गुड़ाई करते रहना चाहिए. जिससे पौधा जल्दी से विकास करता है. और जब पौधा पूरी तरह से तैयार हो जाए तो पौधे की जड़ों के पास से हल्की मिट्टी निकालकर उसमें गोबर का खाद मिली ताज़ी मिट्टी डाल देनी चाहिए. जबकि शेष खाली बची भूमि को बारिश के बाद जोत देना चाहिए.
उपरी कमाई
लीची का पौधा खेत में लगाने के तीन से चार साल बाद पैदावार देने लगता है. इस कारण पौधों के बीच में बची शेष भूमि में सब्जी और मसालेदार खेती कर अच्छी कमाई कर सकते हैं. जिससे किसान भाइयों को आर्थिक समस्या का सामना भी नही करना पड़ेगा.
पौधे में लगने वाले रोग और उनकी रोकथाम
लीची के पौधे में कई तरह के रोग पाए जाते हैं. जो पौधे की हर अवस्था में देखने को मिलते हैं. पौधे पर ये रोग फूल, फल, पत्तियों पर लगते हैं.
हानिकारक कीट और रोकथाम
फल छेदक :
यह फल के ऊपर वाले छिल्के से भोजन लेता है और फल को नुकसान पहुंचाता है। छोटे-छोटे बारीक छेद फलों के ऊपर देखने को मिलते हैं। बाग को साफ रखें। प्रभावित और गिरते हुए फल को दूर ले जाकर नष्ट कर दें। ट्राइकोग्रामा 20000 अंडे प्रति एकड़ या निंबीसाइडिन 50 ग्राम + साइपरमैथरिन 25 ई सी 8 मि.ली. और डाइक्लोरवास 20 मि.ली. को प्रति 10 लीटर पानी में मिलाकर फल बनने के समय और रंग बनने के समय स्प्रे करें। 7 दिनों के फासले पर दोबारा स्प्रे करें। फल बनने के समय डाइफलूबैनज़िओरॉन 25 डब्लयु पी 2 ग्राम प्रति लीटर के हिसाब से की गई स्प्रे प्रभावशाली होती है। आखिरी स्प्रे कटाई के 15 दिन पहले करें।
जूं :
यह लीची की फसल को लगने वाला खतरनाक कीड़ा है। इसका लार्वा और कीड़ा पत्तों के नीचे की तरफ और तने आदि का रस चूस लेता है। इसके हमले के कारण पत्तों का रंग पीला पड़ना शुरू हो जाता है। इसका शिकार हुए पत्ते मुड़ने शुरू हो जाते हैं और बाद में झड़ कर गिर पड़ते हैं। इस बीमारी से प्रभावित हिस्सों की छंटाई करके उन्हें नष्ट कर देना चाहिए। डीकोफोल 17.8 ई सी 3 मि.ली. या प्रॉपरगाइट 57 ई सी 2.5 मि.ली. को प्रति लीटर पानी में मिलाकर 7 दिनों के फासले के दौरान स्प्रे करें। इस घोल का छिड़काव नए निकले पत्तों से पहले नए तनों पर करना चाहिए।
पत्तों का सुरंगी कीट :
इसका हमला दिखाई देने पर प्रभावित पत्तों को तोड़ देना चाहिए। डाइमैथोएट 30 ई सी 200 मि.ली. या इमीडाक्लोप्रिड 17.8 एस एल 60 मि.ली. को 150 लीटर पानी में मिलाकर फल लगने के समय स्प्रे करें। 15 दिनों के अंतराल पर दूसरी स्प्रे करें।
बीमारियां और रोकथाम
पत्तों के निचली तरफ सफेद धब्बे :
इसे भूरेपन का रोग भी कहा जाता है। पत्तों, फूलों और कच्चे फलों के ऊपर सफेद धब्बों के साथ भूरे दाग नज़र आते हैं। यह पके फलों पर भी हमला करती है। दिन के समय ज्यादा तापमान और रात के समय कम तापमान, ज्यादा नमी और लगातार बारिश का पड़ना इस बीमारी के फैलने का कारण होता है। कटाई के बाद बागों को अच्छी तरह साफ कर दें। सर्दियों में इस बीमारी से बचने के लिए कॉपर ऑक्सीक्लोराइड की स्प्रे करें।
एंथ्राक्नोस :
चॉकलेटी रंग के बेढंगे आकार के पत्तों, टहनियों, फूलों और फलों के ऊपर धब्बे नज़र आते हैं। फालतू टहनियों को हटा दें और पौधे की अच्छे ढंग से छंटाई कर लें। फरवरी के महीने में बोर्डीऑक्स की स्प्रे करें, अप्रैल और अक्तूबर के महीने में कप्तान डब्लयु पी 0.2 प्रतिशत इस बीमारी की रोकथाम के लिए प्रयोग करें।
पौधों का सूखना और जड़ गलन :
इस बीमारी के कारण पौधे की 1 या 2 टहनियां या सारा पौधा सूखना शुरू हो जाता है। पौधे में अचानक सूखा आना इस बीमारी के लक्षण हैं। यदि इस बीमारी का इलाज जल्दी नहीं किया जाए तो जड़ गलन की बीमारी वृक्ष को बहुत तेजी से मार देती है। नए बाग लगाने से पहले खेत को साफ करें और पुरानी फसल की जड़ों को खेत में से बाहर निकाल दें पौधे के आस-पास पानी खड़ा ना होने दें और सही जल निकास का ढंग अपनाएं। पौधे की छंटाई करें और फालतू टहनियों को काट दें।
लाल कुंगी :
पत्तों के निचली तरफ फंगस के धब्बे नज़र आते हैं। यह बहुत तेजी से फैलती है और बाद में जामुनी लाल भूरी से संतरी रंग की होकर बढ़ती है। प्रभावित पत्ते मुड़ जाते हैं। इसकी रोकथाम के लिए जून से अक्तूबर महीने में कॉपर ऑक्सीक्लोराइड 0.3 प्रतिशत की स्प्रे करें । यदि खेत में नुकसान ज्यादा दिखे तो बोर्डीऑक्स घोल की सितंबर से अक्तूबर महीने और फरवरी से मार्च महीने में स्प्रे करें। जरूरत पड़ने पर 15 दिनों के फासले पर स्प्रे करते रहें।
फल गलन :
यह लीची की फसल की कटाई के बाद की खतरनाक बीमारी है। यदि स्टोरेज सही ढंग से नहीं की गई तो फलों के ऊपर पानी के रूप के धब्बे बन जाते हैं और बाद में उनमें से गंदी बदबू आनी शुरू हो जाती है। कटाई के बाद फलों को कम तापमान पर स्टोर करें कम तापमान फल गलन की दर को कम कर देता है।
फल की तुड़ाई
लीची की अगेती किस्म के फल मई माह के दूसरे सप्ताह के बाद से पकने शुरू हो जाते हैं. जबकि माध्यम और पछेती किस्म के फल जून और जुलाई में पकने शुरू होते हैं. इसके फल पकने के बाद बाहर से गुलाबी रंग के दिखाई देने लगते हैं. जिसके बाद इन्हें गुच्छों सहित तोड़कर पौधे से अलग कर लिया जाता है. जिन्हें बाज़ार में बेचने के लिए भेज दिया जाता हैं. लीची के पौधे से शुरुआत में कम फल मिलते हैं. लेकिन जैसे जैसे पौधा बड़ा होता जाता है इसके फलों की मात्रा भी बढती जाती है.
पैदावार और लाभ
लीची का पूरी तरह से विकसित एक पौधा साल में 100 किलो तक फल दे सकता है. जबकि एक हेक्टेयर में 150 पौधे लगाये जा सकते हैं. इनका बाज़ार में थोक भाव 50 से 70 रूपये किलो तक पाया जाता है. जिससे किसान भाई एक साल में 7 से 10 लाख तक की कमाई कर सकते हैं.
पौधे का रखरखाव
पौधे से अधिक मात्रा में उपज लेने के लिए पौधे का रखरखाव करना जरूरी होता है. इसके लिए पौधे को लगाने के बाद उसके तने से निकलने वाली शाखाओं को 2 से 3 मीटर तक काटकर हटा देना चाहिए. इससे पौधा अच्छे से विकास करता है. जिसके बाद जब पौधा पूरी तरह से विकसित हो जाए तब पौधे पर दिखाई देने वाली सुखी हुई शाखाओं को हटा देना चाहिए. इनको नमी के मौसम में हटाना चाहिए.
लीची का पौधा सदाबहार और सघन होता है. इस कारण सूर्य का प्रकाश अंदर की तरफ अच्छे से नही जाता जिसके लिए इसकी शाखाओं को काटकर इन्हें कम किया जाता है. जिससे पौधे पर रोग भी कम लगता है. और पौधा अच्छे से विकास करता है.










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