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आलू बुखारा की उन्नत बागवानी कैसे करें ?

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अलूचा या आलू बुखारा (अंग्रेजी नाम : प्लम ; वानस्पतिक नाम : प्रूनस डोमेस्टिका) एक पर्णपाती वृक्ष है। इसके फल को भी अलूचा या प्लम कहते हैं। फल, लीची के बराबर या कुछ बड़ा होता है और छिलका नरम तथा साधरणत: गाढ़े बैंगनी रंग का होता है। गूदा पीला और खटमिट्ठे स्वाद का होता है। भारत में इसकी खेती बहुत कम होती है; परंतु अमरीका आदि देशों में यह महत्वपूर्ण फल है। आलूबुखारा (प्रूनस बुखारेंसिस) भी एक प्रकार का अलूचा है, जिसकी खेती बहुधा अफगानिस्तान में होती है। अलूचा का उत्पत्तिस्थान दक्षिण-पूर्व यूरोप अथवा पश्चिमी एशिया में काकेशिया तथा कैस्पियन सागरीय प्रांत है। इसकी एक जाति प्रूनस सैल्सिना की उत्पत्ति चीन से हुई है। इसका जैम बनता है।

आलू बुख़ारा एक गुठलीदार फल है। आलू बुख़ारे लाल, काले, पीले और कभी-कभी हरे रंग के होते हैं। आलू बुख़ारों का ज़ायका मीठा या खट्टा होता है और अक्सर इनका पतला छिलका अधिक खट्टा होता है। इनका गूदा रसदार होता है और इन्हें या तो सीधा खाया जा सकता है या इनके मुरब्बे बनाए जा सकते हैं। इनके रस पर खमीर उठने पर आलू बुख़ारे की शराब भी बनाई जाती है। सुखाए गए आलू बुख़ारों को बहुत जगहों पर खाया जाता है और उनमें ऑक्सीकरण रोधी (ऐन्टीआक्सडन्ट) पदार्थ होते हैं जो कुछ रोगों से शरीर को सुरक्षित रखने में मददगार हो सकते हैं। आलू बुख़ारों की कई क़िस्मों में कब्ज़ का इलाज करने वाले (यानि जुलाब के) पदार्थ भी होते हैं।

यह खटमिट्ठा फल भारत के पहाड़ी प्रदेशों में होता है। अलूचा के सफल उत्पादन के लिए ठंडी जलवायु आवश्यक है। देखा गया है कि उत्तरी भारत की पर्वतीय जलवायु में इसकी उपज अच्छी हो सकती है। मटियार, दोमट मिट्टी अत्यंत उपयुक्त है, परंतु इस मिट्टी का जलोत्सारण (ड्रेनेज) उच्च कोटि का होना चाहिए। इसकी सिंचाई आड़ू की भांति करनी चाहिए।

आलूबुुखारा का पौधा व्यापक सजावटी, सीमित और लगभग बाकि फलों के पौधों से कम देखभाल वाला होता है| आलूचे में विटामिन ऐ,बी, (थायामाइन), राइबोफ्लेविन के साथ-साथ पौष्टिक तत्व जैसे कि कैल्शियम, फासफोरस और लोहे की भरपूर मात्रा होती है| इसमें खट्टेपन और मीठे की मात्रा अच्छी तरह से मिली होने के कारण, यह उत्पाद बनाने जैसे कि जैम, स्क्वेश आदि के लिए बहुत लाभदायक है| सूखे आलूचे को प्रूनस के नाम से भी जाने जाते है| इनका प्रयोग आयुर्वेदिक तौर पर भी किया जाता है| इससे तैयार तरल को पीलिये और गर्मियों में होने वाली ऐलर्जी से बचाने के लिए भी प्रयोग किया जाता है| आलूचा दिल के दौरे के खतरे को कम करता है। भारत में हिमाचल प्रदेश की पहाड़ियां, जम्मू और कश्मीर, उत्तराखंड और उत्तर प्रदेश मुख्य आलूचा उगाने वाले क्षेत्र हैं।

आलूबुुखारा को मिट्टी की कई किस्मों में उगाया जा सकता है, जैसे कि घनी उपजाऊ, बढ़िया निकास वाली, दोमट मिट्टी   जिसका pH  5.5-6.5 हो, में उगाया जा सकता है| मिट्टी में सख्त-पन, जल-जमाव और नमक की ज्यादा मात्रा नहीं होनी चाहिए|

अलूचा का वर्गीकरण फल पकने के समयानुसार होता है

  • शीघ्र पकनेवाला, जैसे अलूचा लाल, अलूचा पीला, अलूचा काला तथा अलूचा ड्वार्फ;
  • मध्यम समय में पकनेवाला, जैसे अलूचा लाल बड़ा, अलूचा जर्द तथा आलूबुखारा;
  • विलंब से पकनेवाला, जैसे अलूचा ऐल्फा, अलूचा लेट, अलूचा एक्सेल्सियर तथा केल्सीज जापान।

अलूचा का प्रसारण आँख बाँधकर (बडिंग द्वारा) किया जाता है। आड़ू या अलूचा के मूल वृंत पर आंख बांधी जाती है। दिसंबर या जनवरी में १५-१५ फुट की दूरी पर इसके पौधे लगाए जाते हैं। आरंभ के कुछ वर्षों तक इसकी काट-छांट विशेष सावधानी से करनी पड़ती है। फरवरी के आरंभ में फूल लगते हैं। शीघ्र पकनेवाली किस्मों के फल मई में मिलने लगते हैं। अधिकांश फल जून-जुलाई में मिलते हैं। लगभग एक मन फल प्रति वृक्ष पैदा होता है।

उपयुक्त जलवायु

आलूबुखारा या प्लम की खेती पर्वतीय आंचल और मैदानी क्षेत्रों में सफलतापूर्वक की जाती है| इसका पेड़ लगाने के दो वर्ष बाद ही फूलना-फलना आरम्भ कर देता है और अधिक परिपक्वता के साथ साथ इसके पौधे से काफी अधिक उपज मिलती है|

आलूबुखारा या प्लम की खेती के लिए शीतल और गर्म जलवायु की आवश्यकता होती है| यूरोपीय आलूबुखारा को 7º सेल्सीयस से कम ताममान लगभग 800 से 1500 घण्टों तक चाहिए जब कि जापानी आलूबुखारा को उक्त तापमान 100 से 800 घण्टो तक चाहिए| यही कारण है कि इसका उत्पादन कम ऊँचाई वाले स्थानों में और मैदानी क्षेत्रों में भी किया जाता है|

परन्तु इसकी उत्तम खेती समुद्रतल से 900 और 2500 मीटर वाले क्षेत्रों में होती है, ऐसे स्थान जहाँ बसन्त ऋतु में पाला पड़ता हो इसकी खेती के लिये अनुपयुक्त होते है| यूरोपीय अधिक ठंडक वाले तथा जापानी आलूबुखारा कम ठंडक वाले स्थानों में सफलतापूर्वक उगाये जाते है|

पौधे की देखभाल

Alubokhara: इस किस्म के पौधे सीधे और फैलने वाले होते है| इसके फल बाकी की किस्मों से बढ़े होता है| इस किस्म की पैदावार kala Amritsari किस्म से कम होती है| इसके फलों का छिलका पीला होता है और बीच में लाल धब्बे होते हैं| इसका गुद्दा बहुत स्वाद और मीठा होता है|

Satluj Purple: यह किस्म को अकेले उगाने पर फल नहीं लगता है, इसलिए इसके साथ परागण के लिए kala Amritsari किस्म का प्रयोग किया जाता है| बढ़िया फलों की प्राप्ति के लिए हर दूसरी पंक्ति में kala Amritsari किस्म के पौधे का होना बहुत जरूरी है| इस किस्म के फलों का आकार बढ़ा और भार 25-30 ग्राम होता है| इसकी बाहरी परत मोटी और बीच वाली परत पीली बिंदियों वाली होती हैं| आम-तौर पर इसके ताज़े फल खाये जाते है| यह मई के शुरू में पक जाती है और इसकी औसतन पैदावार 35-40 किलो प्रति वृक्ष होती है|

Kala Amritsari: यह मैदानी क्षेत्रों की सबसे ज्यादा पसंद करने वाली किस्म है| इसके फलों का आकार सामान्य, गोल-चपटा होता है| पकने के बाद इसके फल की बाहरी परत गहरे जामुनी रंग की हो जाती है| इसकी बीच वाली परत पीली बिंदियों वाली होती है और गुद्दा रसीला होता है| इसके फल स्वाद में हल्के खट्टे होते हैं| फल मई के दूसरे पखवाड़े में पक जाते है| इस किस्म के फल जैम और स्क्वेश बनाने के लिए प्रयोग किये जाते है|

Titron: यह अकेले फल देने वाली किस्म है, पर पैदावार बढ़ाने के लिए इसके साथ परागण के alucha किस्म लगाई जाती है| Titron किस्म kala Amritsari किस्म से छोटी होती है| इसके फल Satluj Purple और kala Amritsari किस्म से छोटे होता है| इस किस्म की बाहरी परत  kala Amritsari से पतली होती है| इसका गुद्दा पीले रंग का और हल्का रसीला होता है| इसकी औसतन पैदावार 30-35  किलो प्रति वृक्ष होती है|

Kataruchak: इस किस्म की खोज पंजाब के गुरदासपुर जिले के एक छोटे से गांव कटरूचक में हुई| इस किस्म के फलों का मूल्य kala Amritsari से ज्यादा होता है, क्योंकि इसके फल पर सफेद रंग की कलियां होती है| इसके फल बढ़े, दिल के आकार के और जामुनी रंग के होते है| यह kala Amritsari से बाद जल्दी पक जाती है| इसकी औसतन पैदावार 45-50 किलो प्रति वृक्ष होती है| इसके फल जैम, स्क्वेश आदि तैयार करने के लिए बढ़िया होता है|

Jamuni Meeruti: इसके फल छोटे आकार के होते हैं इसका छिलका हल्का पीला और पतला होता है। इसकी औसतन पैदावार 28 किलो प्रति एकड़ होती है।

Alpha: इसके फल छोटे आकार के और गोल होते हैं। पकने पर ये लाल रंग में विकसित हो जाते हैं। इसकी औसतन पैदावार 25 किलो प्रति वृक्ष होती है।

Late yellow: यह मध्यम आकार की किस्म है। इसके फल गोल आकार के होते हैं। पकने पर ये लैमन पीले रंग के होते हैं। इसकी औसतन पैदावार 25 किलो प्रति वृक्ष होती है।

Peshawari kala: यह किस्म कम और अच्छी गुणवत्ता वाले फल देती है। इसके फल काले रंग के और मोटे छिलके वाले होते हैं।

Damson Plum: यह मध्यम और गोल आकार के फल देने वाली किस्म है। इसकी औसतन पैदावार 40 किलो प्रति वृक्ष होती है।

बिजाई
बिजाई का समय
इसकी बिजाई जनवरी के पहले पखवाड़े में की जाती है|  

फासला
नर्सरी में आलूचे के बीजों को 15 सैं.मी. x 30 सैं.मी. फासले पर बोयें। जबकि मुख्य खेत में कतार और पौधों  में एक दूसरे से  6 मीटर x 6 मीटर फासले का प्रयोग करें।

बिजाई का ढंग
इसके पौधों की सीधी बिजाई की जाती है|

बीज
बीज की मात्रा
एक एकड़ में बिजाई के लिए 110 पौधों की जरूरत होती है|

प्रजनन
आलूबुुखारा के बढ़िया प्रजनन के लिए आड़ू,आलूचे और खुमानी के भागों का प्रयोग किया जाता है|

कलम लगाने के बिना Kala Amritsari की जड़ काट कर बिजाई करना भी सहायक सिद्ध होता है| 

नवंबर के महीने में बीजों को बोया जाता है। बडिंग के लिए नए पौधे मई से जून के महीने में तैयार हो जाते हैं। अच्छे परिणाम के लिए टी बडिंग और शील्ड बडिंग की जा सकती है।

खाद
तत्व (ग्राम प्रति वृक्ष)
NITROGENPHOSPHORUSPOTASH
301536

खादें (ग्राम प्रति वृक्ष)
UREASSPMOP
609560
आलूबुुखारा की खेती के लिए भारी मिट्टी में भारी मात्रा में खाद की जरूरत होती है| भारी मिट्टी में हल्की मिट्टी के मुकाबले कम खादों की आवश्यकता होती है।

हमेशा मिट्टी की जांच के आधार पर खादें डालें। आमतौर पर रूड़ी की खाद या गाय का गला हुआ गोबर 6 किलो, 60 ग्राम यूरिया (नाइट्रोजन 30 ग्राम),म्यूरेट ऑफ पोटाश 60 ग्राम (पोटाश 36 ग्राम), एस एस पी 95 ग्राम(फासफोरस 15 ग्राम) डालें।

6वें वर्ष से खादों की मात्रा बढ़ा दें। जैसे कि गाय का गोबर 36 किलो, यूरिया 360 ग्राम, एस एस पी 570 ग्राम और म्यूरेट ऑफ पोटाश 375 ग्राम डालें। जिंक की कमी होने पर 3 किलो जिंक सल्फेट डालें।

दिसंबर के महीने में गाय का गोबर, फासफोरस और पोटाश की पूरी मात्रा, नाइट्रोजन की आधी मात्रा फूल निकलने से पहले डालें और बाकी की मात्रा फूल निकलने के एक महीने बाद डालें।

सिंचाई
आलूबुुखारा के पौधे की जड़े अनियमित होती है और यह जल्दी पक जाता है| इस लिए इसे विकास के समय काफी मात्रा में नमी की जरूरत होती है| सिंचाई  मिट्टी की किस्म, मौसम और फल की किस्म पर निर्भर करती है| अप्रैल,मई और जून महीने में एक हफ्ते के फासले पर सिंचाई करें| फूल निकलने और फल पकने के समय अच्छी तरह से सिंचाई करें| बारिश के मौसम में सिंचाई की आवश्यकता नहीं होती है| सितंबर, अक्तूबर और नवंबर महीने में 20 दिनों के फासले पर सिंचाई करें|

खरपतवार नियंत्रण
नदीनों के अंकुरण होने से पहले ड्यूरॉन1.2 किलो या सीमाज़ाइन 1.6 किलो प्रति एकड़ की सिफारिश की जाती है और अंकुरण के बाद नदीनों की रोकथाम के लिए ग्लाइफोसेट 320 मि.ली. प्रति एकड़ डालें|

पौधे की देखभाल
बीमारीयां और रोकथाम
भूरे गलन रोग(फंगस): यह बीमारी से फलों पर भूरे रंग के पाउडर जैसा पदार्थ बन जाता है| फल सिकुड़ कर गल जाते है|

रोकथाम: पौधे को हवा लगने के लिए अच्छी तरह से कांट-छांट करें| नीचे गिरे हुए फलों को हटा के नष्ट कर दें| फल निकलने से पहले सल्फर की स्प्रे करें और छिलके पर दरार आने पर दोबारा स्प्रे करें| फिर एक हफ्ते के फासले पर दो हफ्ते तक स्प्रे करें|

काली गांठे पड़ना(फंगस): इस बीमारी के साथ नई शाखाएं और किनारों पर 1 से 30 सैं.मी. के आकार की  धुंए जैसे काली गांठे पड़ जाती है|

रोकथाम: इस बीमारी की रोधक किस्मों का प्रयोग करें जैसे की ‘president’ और ‘shiro’| गांठों को छांट दें| कटाई हमेशा सोजिश से कम से कम 10 सैं.मी. नीचे से करें|

कीट और रोकथाम
आलूबुुखारा की भुंडी: इसके हमले से फल पर चपटाकर धब्बे पड़ जाते है और फल जल्दी टूट कर गिर जाते है|

रोकथाम: गिरे हुए फलों को लगातार उठाते रहें| जब पत्ते गिरने शुरू हो तो हर रोज़ वृक्ष के नीचे एक शीट बिछाये और वृक्ष के तने पर मोटे डंडे से मारे| शीट पर गिरी हुई भुंडीयों को इक्क्ठा करके नष्ट कर दें और यही क्रिया 3 हफ्ते तक दोहराएं|

आलूबुुखारा का पत्ता मरोड़ चेपा: इसके हमले से पत्ते और नई शाखाएं मुड़ जाती है और इनका विकास रुक जाता है| इन पर छोटे और चिपकने वाले कीट मौजूद रहते है|

रोकथाम: इनके अंडे देने से पहले ही बाग़बानी तेल की स्प्रे ध्यानपूर्वक करें या जब यह पत्तों पर दिखाई दें तो नीम अर्क डालें|

फसल की कटाई
स्थानीय मंडी के लिए वृक्ष पर सारे फलों का पकना जरूरी होता है| पके फलों को कई सारी तुड़ाइयां करके इक्क्ठा किया जा सकता है और पूरे ध्यान से पैक किया जाता है| टोकरी में नीचे बिछाने के लिए धान की पराली या घास का प्रयोग किया जाता है। जबकि लंबी दूरी वाली मंडियों के लिए फलों की 50 प्रतिशत रंग बदलने पर तुड़ाई की जाती है।

कटाई के बाद
यह फसल जल्दी खराब हो जाती है, इसलिए इसको अच्छी तरह से पैक करके सही तापमान पर स्टोर कर देना चाहिए|

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