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अवसाद का छल रांगेय राघव

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अवसाद की इन रेखाओं का कहीं अंत नहीं है। वह उन्हें सीधा करना चाहती है, कितुं बालक के हाथ में उलझे हुए डोर की लच्छी कभी नहीं सुलझ सकती, कभी उसमें वह स्वच्छंदता नहीं आ सकती जो दो फटे टुकड़ों को जोड़ दे, एक कर दे, क्योंकि जो दूसरों में छेद करती है, उसके छेद में घुस सकना सरल काम नहीं है।
आज उस सबकी याद आती है, क्योंकि जीवन का यह क्षीण संबल जो वेदना का मूल स्तंभ है, वही मानव की सत्ता निभाने का एकमात्र आधार है, जैसे यह चो चित्र से सज्जित विमान है, यह वायु में और किसी प्रकार नहीं टिक सकता।
रात आ गई है, और पुष्पा अपनी मादकता की भस्म को अपने उन्माद में छिपाए आकाश में असंख्य तारों को देखती है, और फिर आंखों को मूंद लेती है। एक नहीं अनेक-अनेक ताराओं का ब्रह्मांड सा उनमें घूमने लगता है, जैसे इतने ग्रह, उपग्रह नक्षत्रों के रहते हुए भी वास्तव में वह एक व्याप्त विस्तृत शून्य है, जिसे कोई भी नहीं भर सकता।
पुष्पा सोचती है। वेदना का यह उत्ताप व्यक्ति की शक्ति है या निर्बलता, किंतु कोई उत्तर नहीं मिलता। क्योंकि चंद्रमोहन बलिदान को सत्ता से अधिक महत्त्व देकर भी अपने आपको कभी-कभी देश का द्रोही कहने लगता है। आजकल दोनों कलकत्ते में हैं। जब वह बी. ए. करके यहीं शिक्षक के रूप में आई थी, उसके बाद ही एक दिन उसे पत्र मिला कि चंद्रमोहन भी कलकत्ते में दमदम हवाई अड्डे में पाइलट बनकर आ गया है, और शीघ्र ही उससे मिलेगा। उस दिन जीवन की अनेक स्मृतियां पंगुता की अभिव्यंजना-सी उसके सामने कराह उठीं। वह अभी तक उसे भूला नहीं था। वह उस रात सो नहीं सकी। याद आने लगी वह कालेज की भूली मादकता की छलना, जब आलिंगन के अतिरिक्त संसार में कुछ मोटी-मोटी किताबें थी, चहल-पहल थी, और आज?

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पुष्पा आबादी के सघन जाल में से निकली। जनरव में से निकलकर जैसे सांप बिल में घुस जाता है, उसने घर पहुंचकर शांति की सांस ली। घर था, एक दो कमरों का डेरा, ऊपर-नीचे दाए-बाएं, अनेकों से घिरा। यहां नहीं है देश की सी शांति, यहां वह घिरी है, परदेशी बंगालियों के बीच में, जो उसे नहीं चाहते, जिन्हें वह नहीं चाहती।
आकर स्टोव पर चाय चढ़ाई। कमर निर्घोष से कांप उठा। निराधार-सा यह कोलाहल अपने मौन के प्रतिकार से स्वयं ही कांप उठा। वह बैठकर देखने लगी। लौ के टकराने से आवाज होती है, यह आवाज ऐसी है, जैसे पृथ्वी के टकराने से वायुमंडल में होती होगी, जिसे हम नहीं सुन पाते, क्योंकि उस कोलाहल की महानता को हमारा छोटापन कभी भी नहीं जान सकता, नहीं समझ सकता।
उसी समय द्वार पर किसी की पगध्वनि हुई। भारी-भारी बूटों की दिल-दहलाती आवाज, आवाज जिसमें कुचल देने की अदम्य क्षमता है, जो अपनी शक्ति की प्रतारणा को हुंकारती-सी फैला देती है।
कमरे में जो व्यक्ति घुसा, वह और कोई नहीं स्वयं चंद्रमोहन था। पुष्पा से अच्छा रंग था उसका, पुष्पा से अधिक अच्छा खाने-पीने से, कठोर होकर भी जो अधिक साफ और चिकना था, जिसमें भूले यौवन में अल्हड़ बने रहने से उससे कहीं अधिक ताजगी थी, जिसके कपड़ों में कलफ था, एक सफाई थी और पुष्पा अपनी खद्दर की साड़ी में पहली बार संकोच का अनुभव करती स्वागत के लिए उठकर खड़ी हो गई। चंद्रमोहन की बड़ी-बड़ी निर्मल आंखें उसे देखकर रस से भर गईं और उसने स्नेह से उसके दोनों हाथ पकड़ लिए, कुशल पूछा और कंधों पर हाथ रखकर उसे पलंग पर बिठाकर स्वयं खड़ा-खड़ा स्टोव को पंप करने लगा और बातें करते हुए चाय बनाने लगा। पुष्पा उस व्यक्ति के बारे में कुछ भी नहीं समझ पाई। जब चंद्रमोहन कालेज में था, तब वह कुरता-धोती पहनता था, तब वह चुराती आंखों से पुष्पा की ओर देखता था, तब पुष्पा उसे अधिकार से देखती थी और आज वह सब कुछ नहीं था। आज जैसे गरीब के घर राजा आया था, जिसके सबल यौवन ने पुष्पा को वाक्यहीन कर दिया, शब्द मन ही मन, ऐसे चक्कर लगाने लगे जैसे शांत पानी में कंकड़ डाल देने से पानी में गोल-गोल रेखाओं का प्रसार होता है, जो कुछ नहीं कहतीं, केवल किनारों से निस्तब्धता से टकरा जाती हैं और चील की तरह हिलकर स्थिर हो जाती हैं।
एक प्याला बढ़ाकर दूसरा प्याला चंद्रमोहन ने हाथ में ले लिया। और स्टूल पर ही बैठ गया। उसकी आंखों में एक नया बचपन था, जो पहले पुष्पा ने कभी नहीं देखा था। वह अपनी वर्दी में जंचता था। कैसे चौड़े कंधे थे, कितनी सुडौल ग्रीवा थी, कंधे पर उसके अधिकार की पट्टियां थीं और पास में ही उसका ऊनी छज्जेदार टोप था जिस पर आगे ‘क्राउन’ था।
पुष्पा पढ़ी लिखी है। अचानक ही उसे याद आ गया, ऐसे ही एक दिन आजकल के बादशाह के बाप से वृद्ध तपस्वी गांधी मिला था। हवा थम गई। तूफान रुक गया। पुष्पा चैतन्य हो गई।
बातें करते-करते घंटा भर बीत गया। वह वर्मा भी गया था और वहीं से लौटकर आया है। ऐसी-ऐसी बातें कहता है जो पत्रों में नहीं छप सकती। देर तक वह उन्हें सुनती रही। आंखों के सामने चित्र खेलते रहे। कीचड़ में भारी बूट छप-छप करते हैं, एक झनझनाहट से कानों पर से गालियां निकल जाती हैं। मशीनगन से खटखट करके जब आग निकलने लगती है, तब जुन्न से हवाई जहाज चक्कर मारकर आकाश में उठ जाता है और फिर भयानक बम गिरते हैं, भूमि से धुआं उठता है, धूल उठती है, बसे-बसाए घर उजड़ जाते हैं। तब बरबादी के पीछे न्याय भी है, स्वार्थ भी है, चंद्रमोहन तो न्याय के समय मनुष्य नहीं है, स्वार्थ के समय लड़ाई का एक औजार या हथियार भी नहीं।
‘यूरोप की लड़ाई में यह बात नहीं’, चंद्रमोहन ने कहा -- वहां न्याय न्याय है, अन्याय अन्याय, और लड़ाई की नौकरी कोई नौकरी है? कल सब निकाले जाएंगे तब मैं तो तुम्हारे पास आ जाऊंगा। खिला सकोगी?’
पुष्पा के हृदय में जो द्रोह था, वह शांत हो गया। वह उनके साथ कदम मिलाकर चलता है, जो इतिहास बदलते हैं, जो मरने के आगे जीवन की सतह को पारे की तरह चढ़ाकर बर्राते हैं, जिनकी हलचल इतिहास की करवट है, जिनका व्यक्ति संगठित समूह है, जिनकी शक्ति रक्षा भी है और भय भी, किंतु चंद्रमोहन वास्तव में भूला हुआ है। वह अब भी उसी प्रकार उस पर विश्वास करता है। किंतु अब वह हवा से नहीं लड़ता, रोटी की बात करता है। संघर्ष को वह जानता है।
चंद्रमोहन ने फिर कहा --‘पुष्पा!’ तुम बहुत थक गई हो। सच, बहुत काम करना पड़ता है?
पुष्पा हंसी। उसके दांत बहुत सुंदर हैं, तभी उसमें कुछ आकर्षण है। उसने उत्तर नहीं दिया बल्कि चंद्रमोहन के साथ ही किताब लेकर उसे खोला और देखने लगी। एक पत्रिका थी जिसका नाम था --‘मैन ओन्ली’ (केवल पुरुष)
चंद्रमोहन ने हंसकर कहा -- यह तुम्हारे काम की चीज नहीं, सब फौजी है, तुम रहने दो, उसे अश्लील कहोगी-उसने वापस लेने को हाथ बढ़ा दिया।
‘तुम यह सब क्यों पढ़ते हो?’ पुष्पा ने स्नेह से कहा -- पहिले तो इतनी चंचलता नहीं थी?
पुष्पा हंस दी। उसने कहा -- मैंने कभी तुम्हारी बात का बुरा माना है? तुम लोग फौजी हो। तुम लोगों को हम लोग समझ नहीं पाते। किंतु तुम मेरे सामने तो मनुष्य हो। और फौजियों को देखकर उपेक्षा से सदा कुतूहल होता है।
चंद्रमोहन ने कहा-बात यह है कि ये चीजें स्त्रियों के लिए नहीं हैं। लेकिन बहुत सी लड़कियां पढ़ती भी हैं तो वे केवल हम लोगों के मनोरंजन...
अकचकाकर रुक गया। पुष्पा की भौं चढ़ी हुई थी।
‘बुरा मान गई?’ चंद्रमोहन ने भय से लड़खड़ाकर पूछा।
पुष्पा उसे घूरती रही। फिर देखकर आंखें बंद कर लीं और पूछा -- लड़ाई के बाद मेरे पास आ सकोगे?
‘और नहीं तो करूंगा ही क्या?’ चंद्रमोहन ने पूछा -- क्षमा नहीं करोगी? गुलाम की नागरिकता एक खाली गिलास है, उसमें धन और बल का छल बहुत तेज नशा होता है। अमेरिकन और अंगरेजों की स्त्रियों की भूख अधिक होती है। उन्होंने सिखाया है।
‘तो तुम क्यों सीख गए?’ पुष्पा ने चोट की तुम्हें स्त्रियों का मान करना नहीं आता?
‘किंतु वे स्त्रियां भी ऐसा मान नहीं चाहतीं।’ चंद्रमोहन ने बात काटकर कहा।
‘जानते हो?’ पुष्पा ने कहा-वह सब कुछ मेरा था। तुम खाकी में हो, मैं खद्दर में हूं। किंतु और तो कुछ नहीं बदला। फिर तुम जैसे मुझे भूल गए हो, यदि मैं भी तुम्हें भूल जाती तो?
‘तुम्हारा अधिकार है पुष्पा। इसमें बिगड़ता ही क्या है? क्षण भर यदि अपरिचित होकर भी हम सुखी नहीं रह सकते...’
बात काटकर पुष्पा ने कहा-हमारे भारत में प्रतीक्षा की अथाह वेदना है, हम शीघ्र ही बादल की भांति झरते नहीं, सागर की तरह भीतर भी, बाहर भी मंडराते है, यह जहाज जो हमारे सीने पर चलते हैं, सब करके भी हम पर आश्रित हैं, अभी यह हमें समाप्त नहीं कर सके, तिनके हैं, तिनके। तुम कहोगे -- मैं थर्मामीटर का चढ़ा हुआ पारा हूं, तभी तुम बत्ती को तेजी से जला रहे हो, लेकिन एक बात कहूं?
चंद्रमोहन ने स्वीकार किया।
पुष्पा ने कहा, ‘जब साहस न रहे तो मेरे पास आना। यह उबा देने वाला सन्नाटा भी एक कोलाहल की शक्ति है। यह अपमानित शक्ति, यह दुःखों का सागर, भूखे, नंगे...’ वह कांप उठी -- ‘आना, जब बुझ चुको, मैं तुम्हें फिर जला दूंगी।’
चंद्रमोहन उसके पास बैठ गया।
‘मेरे पास शब्द हैं, शक्ति नहीं,’ चंद्रमोहन ने कहा।
‘मेरे पास शक्ति है, शब्द नहीं,’ पुष्पा ने कहा।
चंद्रमोहन ने उसके बालों की लटों को छुआ। उनमें गंध न थी और फिर भी उसने उसे देखा और निस्संकोच होकर उसके गाल को चूम लिया।
पुष्पा लाज से मुस्कराई। सामने लगे शीशे में उसने देखा था, चंद्रमोहन गोरा था, वह सांवली थी। वह सुंदर था, वह साधारण थी। वह स्वच्छ था, चिकना था, वह खुरदरी थी, चिकनाहट का नाम नहीं था। एक सैनिक ने प्यार किया था। सैनिक!
उसने कहा -- सैनिक! भूलोगे तो नहीं?
‘नहीं’, चंद्रमोहन ने छलहीन उत्तर दिया।
चंद्रमोहन चला गया।

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चंद्रमोहन फिर से बर्मा चला गया और मारा गया। मारे जाने की बात की खोज एक-दो की नहीं, देशों की बात है, राष्ट्रों और स्वार्थों की मुठभेड़ है। प्रत्येक सैनिक की मृत्यु और जीवन की कहानी युद्ध का इतिहास है। सिद्धांतों का संघर्ष होता है, किंतु पुष्पा के लिए वह सब कुछ नहीं। देश, विदेश, यूरोप, अमेरिका, शक्ति, दासता, सेना, नागरिक जीवन सब कुछ पर मेधावी एक विराट उपन्यास लिख सकता है, जैसे टाल्सटाय ने रोबेस्टोपोल के युद्ध पर लिखा था, जिसे वह नहीं लिख सकती, क्योंकि सत्य केवल कल्पना ही है, देखा उसने नहीं, वह अनुभव करती है...
चंद्रमोहन मर गया है। उसे राष्ट्रों और साम्राज्यों की याद नहीं आती। उसे याद आती है उसकी जो सैनिक नहीं था, मनुष्य था, जिसने इतनी सरलता से बच्चों की तरह उसे चूम लिया था।
वह देखती है, कभी रोती है, हंसती है, कभी सोचती है, किंतु सन्नाटा जीवन का अंधकार है, लोहे की मोटी चादर है, उसके नीचे हवा नहीं, किंतु दीपक नहीं बुझा है, लौ अब भी जल रही है, दीपक में तेज नहीं, जीवन और यौवन का रस है। रक्त है...
विश्वामित्र, जून, 1945

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