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पत्रकारिता से व्यापार तक का सफर

*पत्रकारिता से व्यपार तक का सफर। 


पवन कुमार द्विवेदी पत्रकार गोंडा
 
एक समय था जब पत्रकारिता एक जुनून हुआ करती थी। भारतीय पत्रकारिता की बात करें तो आजादी के मतवाले पत्रकारों ने पत्रकारिता को जन्म दिया। गुप चुप तरीके से क्रान्तिकारियों के संदेशों को जान की परवाह किए बगैर जन-जन तक पहुचानें का कार्य करते थे। तो दूसरी ओर अंग्रेजी शासन की कारगुजारियों को जनता तक पहुचाने का कार्य करते थे।  समय तो बदला परंतु आजादी की जंग मे हिस्सा लेकर अपनी जान को देश के लिए कुर्बान करने वाले पत्रकारों जिन की जान अंग्रेजों ने ये कह कर ले ली। कि इन्होने शासन के बगावत की है उन शहीदों के नाम भारतीय  इतिहास के पन्नों मे कही छिपा दिए गए ।फिर शुरू हुआ आजादी  के बाद बंदर बाँट व सत्ता और ताकत का खेल । आजादी की जंग मे भारतीय भावी नेता और अंग्रेजों के दलाल पत्रकारिता की ताकत से परिचित थे इस कारण शुरू हुआ पत्रकारिता पर अपने चमचों एंव गुरगों को काबिज करने का खेल धीरे-धीरे इमानदार पत्रकारिता दम तोड़ने लगी। या यूँ कहें की इमानदार पत्रकारों को खरीदा जाने लगा। जो नही झुका उसे तोड़ दिया गया। न जाने कितने पत्रकार आजादी से अब तक कलम न बेचने पर मौत की नींद सुला दिए गए । आजादी के बाद शुरू हुआ व्यपारियों का समाचार संस्थानों पर कब्जे का सिलसिला। जो दिन प्रतिदिन बढता गया और आज ऐसा दौर आ गया जब बडे़ बडे़ संस्थान बना कर बडे़ स्तर से व्यापार का साधन बना दिया गया। जितने बडे़ अखबार या चैनल है एक निष्पक्ष पत्रकारों को रोजी रोटी कमाने के लिए उन के मन अनुसार कार्य करना पडता है। बडे़ संस्थाओं को देख कर छोटे भी कार्ड से लेकर अन्य संसाधनों तक मोटी रकम वसूल कर पत्रकारिता जगत के नए आयामों को जन्म दे रहे हैं। देश की सरकारों द्वारा भी निष्पक्ष पत्रकारिता को कोई खास सहयोग न मिलने और उल्टा समाचार पत्र व चैनल चलाना इतना दूभर हो गया कि एक निष्पक्ष पत्रकारिता के लिए कार्य करने आग पर चलने के समान हो गया है। पत्रकारिता की छवि को धूमिल करने मे भारतीय बेरोजगारों का भी पूरा योगदान रहा है। पढे लिखे युवाओं के पास कोई नौकरी व कार्य न होने के कारण मात्र कुछ हजार खर्च करके शाम तक इधर- उधर से घूम कर दो, चार हजार रूपये कमालेना ,अच्छा, बुरा, सच, झूठ बिना देखे चंद पैसों के लिए जमीर बेच देना भी पत्रकारिता को कलंकित करने का प्रयास है। ऐसे लोगो के मदतगार भी बड़े मजबूत होते है जिन की पकड़ राजनीती से लेकर सिस्टिम तक होती है। पत्रकारिता के गिरते स्तर व सरकार की उदासीनता के कारण सैकड़ो पत्रकारों ने या तो पत्रकारिता छोड़ कर मेहनत मजदूरी करने लगे या सिस्टिम के अनुसार अपना जमीर बेच कर चटुकारिता शुरु कर दी ।चन्द गिनती के लोग जो अब भी निष्पक्ष पत्रकारिता करते हैं वो या तो साथ ही कोई दूसरा कार्य कर अपना व अपने परिवार का जीवन यापन करते हैं। या कही गुमनाम से दब जाते है। सरकार को चाहिए कि पत्रकारिता जगत को सशक्त बनाने के लिए पत्रकारों की आय के सोत्र बनाए व समाचार पत्रों के पंजीकरण को पारदर्शी और आसान करें ताकि लोकतंत्र का चौथा स्तभ कहे जाने वाले मीडिया को व्यापार न बना कर मात्र एक संसाधन ही बना रहे जो समाज हित एंव जनता की आवाज़ शासन तक और शासन की योजनाएं जनता तक पहुचानें का साधन बना रहे।

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