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डाक से तार अब बेतार हो गए

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वर्तमान काल मे हम संदेशों को आसानी से जिस प्रकार भेज देते हैं, वैसा पहले नही था। इस स्थान तक पहुचनें के लिये डाक सेवाओं को कई सदियों का समय लगा। यदि डाक की बात की जाये तो भारत में डाक के प्राचीनतम सन्दर्भ अथर्ववेद, व कौटिल्य के अर्थशास्त्र में मिलते हैं। शेर शाह सूरी ने जी. टी. महामार्ग (नोर्देर्न हाई रोड) पर कुछ दूरी कि अंतराल पर करीब 1700 सरायों का निर्माण करवाया था। प्रत्येक सराय पर दो घोड़ों की व्यवस्था भी कि गयी थी जिससे संदेशों को भेजने में आसानी हो। कई और राजाओं ने इस प्रकार के कई कदम उठाये। मुग़ल साम्राज्य कि स्थापना के बाद से डाक व्यवस्था में कई सुधार व बदलाव किये गए। सबसे बड़ा बदलाव आया जब अंग्रेज भारत आये। इनके आगमन के बाद ईस्ट इंडिया कम्पनी ने 1688 मुंबई में एक डाकघर की स्थापना की। उसी समय कलकत्ता व मद्रास में भी डाकघरों का निर्माण हुआ। लार्ड क्लाइव ने इस व्यवस्था को आगे बढ़ाया। विभिन्न जगहों पर डाक घरों का निर्माण भी सन् 1766 के समय में किया गया। वारेन हेस्टिंग्स के द्वारा उठाया गया कदम वर्तमान डाक व्यवस्था का ही एक रूप है। 1774 ई. में इस व्यवस्था को आम जनता के लिए खोल दिया गया। डाक का किराया उस समय 100 मील पर दो आना था। धीरे-धीरे डाकों का विस्तार भारत के विभिन्न भागों में हुआ। डाक की अभियाँत्रिकी मे विकास का ही प्रतिफल है कि आज कई प्रकार की कुरियर सेवायें भी उपलब्ध हो चुकी हैं जिनका पूरा कार्य अभियाँत्रिकी के आधार पर ही चलता है। रामपुर में कुल 131 डाक घर हैं। डाक के अलावा तार एक तीव्र जरिया था संदेश भेजने का। यदि तार के आविष्कार व इसके अभियाँत्रिकी की बात करें तो इसका आविष्कार अमरीकी वैज्ञानिक सैमुअल मोर्स ने वर्ष 1837 में किया था। मोर्स तथा उनके सहायक अल्फ्रेड वेल ने इसके बाद मिलकर एक ऐसी नई भाषा ईजाद की जिसके जरिए तमाम संदेश बस डॉट और डेश के जरिए तार मशीन पर भेजे जा सकें। मशीन पर जल्दी से होने वाली `टक` की आवाज़ को डॉट कहा गया और इसमें विलंब को डेश। तीन डॉट से मिलकर अंग्रेजी का अक्षर `एस` बनता है और तीन डेश से `ओ`। इस तरह से संकट में फंसे जहाज सिर्फ डॉट डॉट डॉट, डेश डेश डेश तथा डॉट डॉट डॉट भेजकर मदद बुला सकते थे। जर्मन वैज्ञानिक वर्नर वोन साइमन्स ने एक नए किस्म के तार की खोज की थी जिसमें सही अक्षर को चलाने के लिए बस मशीन का डायल घुमाना होता था। साइमन्स बंधुओं ने वर्ष 1870 में यूरोप तथा भारत को 11 हजार किलोमीटर लंबी तार लाइन से जोड़ दिया जो चार देशों से होकर गुजरती थी। इससे भारत से इंग्लैंड तक महज तीस मिनटों में संदेश पहुंचाना संभव हो सका। यह सेवा वर्ष 1931 में वायरलेस तार के आगमन तक काम करती रही। टेलीग्राम सेवा अपने समय में इतनी सटीक होती थी कि मोर्सकोड ऑपरेटर बनने के लिए एक वर्ष की कड़ी ट्रेनिंग से गुजरना होता था जिसमें से आठ महीने अंग्रेजी मोर्स कोड तथा चार महीने हिंदी मोर्स कोड के लिए होते थे। भारत में ब्रिटिश काल के दौरान 1851 में कोलकता और डायमंड हार्बर के बीच पहली तार सेवा शुरू हुई। वर्ष 1854 में ब्रिटिश सरकार ने भारत के लिए पहला टेलीग्राफ़ी एक्ट पास किया। उसी साल व्यवस्थित तरीके से देश में डाक विभाग की स्थापना हुई। उसके अधीन देश भर के 700 पोस्ट ऑफिस थे। तार विभाग को भी डाक विभाग के साथ जोड़ दिया गया और उसका नाम पोस्ट और तार विभाग हो गया। वर्ष 1855 में भारत में सार्वजनिक टेलीग्राम सेवाएं शुरू हुईं। 400 मील तक प्रत्येक 16 शब्द (पते के सहित) पर एक रुपये का चार्ज लिया जाता था। शाम छह से लेकर सुबह छह बजे तक टेलीग्राम के लिए दोगुना चार्ज लिया जाता था। इतिहास ने तमाम ऐतिहासिक टेलीग्रामों को सुरक्षित रखा हुआ है। इसी में 23 जून, 1870 को पोर्थकुर्नो (इंग्लैंड) से बांबे भेजे गए पहले टेलीग्राम को कांप्लिमेंटरी टेलीग्राम नाम दिया गया था। यह टेलीग्राम लंदन में बैठे प्रबंध निदेशक ने बांबे (अब मुंबई) के प्रबंधक को भेजा था। इसका जवाब पांच मिनट में प्राप्त हो गया था। इसके बाद बांबे के गवर्नर को भी संदेश भेजे गए थे। तार की सेवा सन् 2013 मे बंद कर दी गयी परन्तु एक वक्त था जब तार की महत्ता अत्यन्त महत्वपूर्ण थी। 1857 के क्रान्ति को विफल बनाने मे तार का बड़ा योगदान प्रदर्शित होता है। यही कारण था की आजादी के लिये लड़ने वाले भारतीय, तार व्यवस्था को मेरठ, रामपुर, लखनऊ आदि स्थानों पर अस्त व्यस्त किये थे। तार का प्रयोग बड़े पैमाने पर समाचार को एक स्थान से दूसरे स्थान पर पहुंचाने के लिये भी किया जाता था। 1. मिलिट्री इंजीनियर इन इंडिया 1, सैन्डेस. इ.डब्ल्यू. सी। 2. मिलिट्री इंजीनियर इन इंडिया 2, सैन्डेस. इ.डब्ल्यू. सी।


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