ढाई सौ वर्ष पहले चेचक सबसे अधिक भयानक रोग माना जाता था। चेचक से अनेक रोगी मर जाते थे और जो बच जाते थे वे कुरूप हो जाते थे। उनके चेहरे पर दाग पड़ जाते थे। बहुत से रोगियों की आंखें खराब हो जाती थी। किसी-किसी महामारी में तो हजारों लोग मर जाते थे। परन्तु क्या आपको मालूम है Chechak ke tike ki khoj kisne ki? तो हम बता दे, इस रोग के टीके की खोज इंग्लैंड के चिकित्सक और वैज्ञानिक एडवार्ड जेनर (Edward Jenner) ने 1796 में कि थी।
चेचक का टीका और एडवार्ड जेनर
एडवार्ड जेनर एक अंग्रेज चिकित्सक एवं वैज्ञानिक थे जो चेचक के टीके की खोज के लिए विश्व भर में प्रसिद्ध है। इन्हें ‘प्रतिरक्षा विज्ञान’ (Immunology) का पितामह भी कहा जाता है। सन् 1796 में उनके द्वारा विकसित किया गया चेचक का टीका विश्व का पहला टीका था जिसे किसी रोग के बचाव के लिए प्रयोग किया गया था। उनकी यह खोज चिकित्सा विज्ञान के लिए एक महत्वपूर्ण खोज थी। इस टीके के कारण ही विश्व आज चेचक मुक्त हो चुका है।
एडवार्ड जेनर का जन्म 17 मई, 1749 को इंग्लैंड के ग्लूस्टरशायर जिले के एक गांव बर्कले में हुआ था। जेनर जब 5 वर्ष के थे तभी इनके पिता की मृत्यु हो गई। पिता की मृत्यु के पश्चात इनका पालन-पोषण इनके बड़े भाई द्वारा किया गया, जो पिता के समान ही पादरी थे।
जेनर प्रकृति प्रेमी थे, जिस कारण प्राकृतिक इतिहास (Natural History) में उनकी विशेष रूची थी और यह प्रकृति-प्रेम उनमें जीवन पर्याय बना रहा। अपनी प्रारम्भिक शिक्षा ‘ग्रामर स्कूल’ (इंग्लैंड के माध्यमिक विद्यालय) से पूरी करने के बाद वे 13 वर्ष की आयु में डाॅक्टरी की शिक्षुता (apprenticeship) के लिए पास के ही गांव चिपिंग साॅडबरी के सर्जन डैनियल लुडलो के पास चले गये। यहां उन्होंने लुडलो के संरक्षण में 8 सालों तक कार्य किया और आयुर्विज्ञान एवं शल्य चिकित्सा में गहरी पकड़ बना ली।
सन् 1766 में प्रशिक्षण करते वक्त एक रोचक बात घटित हुई। एक दिन एक ग्वालिन सर्जन लुडलो के पास कोई सलाह लेने आई। इसी बीच उस समय इंग्लैंड में तेजी से फैल रहे चेचक रोग पर बात होने लगी और ग्वालिन ने कहा – ‘मुझे चेचक की भयानक बीमारी नहीं हो सकती और न ही चेहरे पर वे गंदे छालों के निशान, क्योंकि मुझे गौ-शीतला (cowpox) हो चुकी है।’ एडवार्ड जेनर ने भी उनकी ये बातें सूनी लेकिन कुछ विशेष ध्यान नहीं दिया।
21 वर्ष की उम्र तक प्रशिक्षुता ग्रहण करने के बाद वे शरीर रचना एवं शल्य चिकित्सा की पढ़ाई करने लंदन के सेंट जॉर्ज हास्पिटल चले गये जहां उन्हें उस समय के प्रसिद्ध सर्जन ‘जाॅन हंटर’ के अंदर रहकर शिक्षा ग्रहण करने का मौका मिला।
3 वर्षों तक (1770 से 1773 तक) लंदन में अध्ययन करने के पश्चात वे डाॅक्टरी की प्रैक्टिस के लिए पुनः अपने गांव बर्कले आ गये। बर्कले में उन्हें पर्याप्त सफलता मिली, यहां वे मेडिसिन की प्रैक्टिस के साथ-साथ चिकित्सीय ज्ञान के बढ़ावे के लिए दो मेडिकल ग्रुपस से जुड़ उनके लिए सामयिक रूप से मेडिकल पेपर लिखते। यही नहीं, वे यहां के संगीत क्लब में वायलिन बजाते, लघुक गीत लिखते तथा प्रकृतिवादी होने के नाते अनेक शोध भी करते, जिनमें उनके द्वारा कोयल की घोंसले बनाने की आदतों और पक्षियों के प्रवास पर किये गए प्रेक्षण बाद में बहुत महत्वपूर्ण सिद्ध हुए।
टीके की खोज
17वीं शताब्दी में चेचक व्यापक स्तर पर पूरी दुनिया में फैलने लगा था। कभी-कभी यह महामारी का रूप ग्रहण कर लेता जिसके कारणवश मरने वालों की संख्या और बढ़ जाती। उस समय इस भयानक बीमारी से बचने के लिए जो प्राचीन तरीका अपनाया जाता था उसे – Variolation कहा जाता था।
इस प्रक्रिया में एक स्वस्थ व्यक्ति को उसकी स्वेच्छा से, एक चेचक संक्रमित व्यक्ति के शरीर से लिए गए ‘मवाद’ को उसके शरीर में प्रवेश कराया जाता था। इससे शुरू-शुरू में तो स्वस्थ व्यक्ति के शरीर में कुछ समय के लिए चेचक के लक्षण दिखते लेकिन कुछ वक़्त बाद उसमें इस बीमारी के प्रति प्रतिरोधी क्षमता विकसित हो जाती।
परन्तु, बचाव के इस तरीके में कमी ये थी कि ज्यादातर ‘मवाद’ प्रवेश किये गये व्यक्ति हल्के लक्षणों तक सीमित न रहकर चेचक से पूरी तरह संक्रमित हो जाते और उनकी मृत्यु तक हो जाती। उस समय चेचक से बचाव का यह तरीका चीन और भारत में बहुत इस्तेमाल किया जाता था।
लंदन से कई वर्षों बाद अपने गांव लौटे जेनर को अपने गांव में अनेक चेचक रोगी मिले। इस रोग की भयावहता देखकर उन्हें कई वर्ष पहले कही गई ग्वालिन कि वह बात याद आई जिसमें उसने कहा था कि जिसे गौ-शीतला हो जाती है, उसे चेचक नहीं होता। इस कथन की पुष्टि के लिए उन्होंने गांव के अन्य लोगों से भी पूछा तो पता चला कि उन सबका विश्वास भी यही हैं।
पहली बार तो एडवार्ड जेनर ने इस बात पर ध्यान नहीं दिया था लेकिन इस बार वे इस तथ्य से बहुत प्रभावित हुए तथा इसे परीक्षण करने का निर्णय किया।
14 मई, 1796 में इसके लिए उन्होंने सारा नेल्मस नाम कि एक ग्वालिन, जिसे कुछ दिन पहले ही गौ-शीतला हुई थी कि उंगलियों में घाव के ‘मवाद’ लेकर एक 8 वर्षीय लड़के जेम्स फिप्स (जिसे कभी चेचक नहीं हुआ था) को टीका लगा दिया। इस टीकाकरण की वजह से जेम्स फिप्स (James Phipps) अगले 9 दिनों तक थोड़ा-थोड़ा बीमार रहने लगा लेकिन 10वें दिन वह फिर ठीक हो गया।
1 जुलाई को जेनर ने पुनः उस बच्चे का टीकाकरण किया लेकिन इस बार चेचक के घाव के मवाद से। बच्चे को इससे कोई बीमारी नहीं हुई और न ही चेचक के कोई लक्षण दिखाई दिए! इससे जेनर को विश्वास हो गया कि लड़का गौ-शीतला के कारण चेचक से प्रतिरक्षित हो गया है। प्रयोग सफल रहा।
इस प्रकार चेचक के टीके का आविष्कार हुआ। चेचक की रोकथाम के लिए संसार भर में टीके लगाये जाने लगे। एडवार्ड जेनर विश्वविख्यात आविष्कारक बन गए। कहा जाता है कि हॉलैंड और स्विट्जरलैंड के पादरियों ने अपने धार्मिक उपदेशों में लोगों से टीका लगवाने का अनुरोध किया। रूस में सबसे पहले जिस बच्चे को टीका लगवाया गया उसे सार्वजनिक खर्चे पर शिक्षा देने का प्रस्ताव रखा गया और उसका नाम वैक्सीनोफ (Vaccinoff) रखा गया।
जेनर एक ऐसे महान व्यक्ति थे, जिन्होंने अपना समस्त जीवन चेचक के विरुद्ध संघर्ष करने में लगा दिया। यह उन्हीं के द्वारा खोजे गए टीके का परिणाम है कि आज विश्व के सभी देशों ने चेचक जैसे भयंकर रोग से मुक्ति पा ली है। वास्तविकता तो यह है कि विश्व में चेचक उन्मूलन हो गया है।
जन-जन के सेवक एडवार्ड जेनर सन् 1823 में 73 वर्ष की उम्र में मृत्यु को प्राप्त हो गए। आज वे हमारे बीच नहीं है लेकिन उनके द्वारा दिया गया चेचक का टीका सदैव ही मानव जाति का कल्याण करता रहेगा।
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