चिकत्सा के दौरान किसी भी मरीज को इंजेक्शन देना आज आम बात हैं|आजकल इंजेक्शन और सइयां एक बार इस्तेमाल के बाद फेंक दी जाता ह। इन्हें ‘डिस्पोजेबल’ कहा जाता है। इनमें भी सुइयां अलग-अलग नम्बर की कछ बारीक तो कछ मोटी होती हैं, जो वयस्क एवाश लिए अलग प्रयोग की दृष्टि से बनी होती हैं। इन सइयों का इस्तेमाल ग्लूकोज आदि की बॉटल चढ़ाने में भी होता है। आज इंजेक्शन मनुष्यों के अलावा पशु-पक्षियों को भी उपचार एवं विभिन्न दवाओं के प्रायोगिक इस्तेमाल हेतु लगाया जाता है। इसका विकास धीरे-धीरे विभिन्न चिकित्सकों के हाथों उत्तरोत्तर किए गए सुधार का परिणाम है।
बात सन् 1656 की है। ऑक्सफोर्ड विश्वविद्यालय में सेवारत गणित के प्रोफेसर ने अपने एक परिचित राबर्ट बायल के सामने यह दावा किया कि वे किसी भी प्राणी के रक्त में द्रव पदार्थ डाल सकते हैं। ये प्रोफेसर थे डॉ. रेन। बायल ने रेन की बात की जांच करनी चाही। उन्होंने डॉ. रेन के सामने एक बड़ा-सा कुत्ता पेश करते हुए अपने दावे का प्रदर्शन करने को कहा।
डॉ. रेन ने भी अपने दावे की पुष्टि हेतु धतूरे का विष उस कुत्ते के शरीर में इंजेक्शन लगाकर डाल दिया। यह प्रयोग कई चिकित्सकों व बुद्धिजीवियों के सामने किया गया था। प्रदर्शन सफल रहा। धतूरे के विष का प्रभाव उस कुत्ते पर कुछ समय बाद दिखाई पड़ा था।
इसके एक वर्ष बाद ही एक घरेलू नौकर की धमनी में क्रोक्स मेटरोल नाम का पदार्थ प्रविष्ट कराया गया, किन्तु यह प्रयोग अधिक प्रभावी नहीं बन पाया।
शरीर में निश्चित मार्ग एवं हृदय से धमनियों के बीच रक्त प्रवाह के रिश्ते के बारे में गति एवं प्रणाली की जानकारी सन् 1628 ईस्वी में विलियम हॉर्व नामक शल्य चिकित्सक ने दी थी। तब से ही प्राणियों के रक्त में दवा मिलाने के तरीके पर विचार चल रहा था।
किन्तु इस दिशा में सब अपने-अपने स्तर पर प्रयोग कर रहे थे। 1844 ईस्वी के लगभग जब मानव की त्वचा की सतह के कुछ नीचे इंजेक्शन लगाने की शुरुआत हुई तब डॉक्टरों का ध्यान इंजेक्शन की सुई एवं उसकी बनावट पर भी गया। इसके पहले सुई बहुत मोटी होती थी। वह इतनी पैनी भी नहीं होती थी कि बिना अधिक कष्ट के मानव शरीर में प्रवेश कराया जा सके।
सबसे पहले सुधरी हुई सुई और इंजेक्शन का इस्तेमाल 3 जून 1844 को डर्बीलान के मीथ अस्पताल में डॉ. फ्रांसिस रिन्ड ने किया। डॉ. रिन्ड ने भी अपने इस इंजेक्शन को लगातार 17 वर्षों तक न किसी को बताया, न इसके निर्माण आदि की विधि के बारे में किसी को जानकारी दी।
सन् 1861 में उन्होंने अपने इस इंजेक्शन के बारे में लेख लिखा। इधर 1853 में एडिनबर्ग निवासी डॉ. एलेक्जेण्डर वुड ने भी एक इंजेक्शन तैयार किया। इसकी लंबाई 90 मी.मी. एवं चौड़ाई 10 मी.मी. थी। इसके पिस्टर के ऊपरी भाग को रूई लपेटकर इंजेक्शन में फिट किया जाता था। अब तो सुई रहित इंजेक्शन भी आ गया है। इंजेक्शन के विकास में किए गए उक्त प्रयासों को भुलाया नहीं जा सकता।
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