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क्या है मृत्युभोज की परंपरा की शुरुआत

 
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हिंदू धर्म में मुख्य 16 संस्कार बनाए गए हैं। इनमें सबसे पहला संस्कार गर्भाधान है और अन्तिम व 16 वां संस्कार अन्त्येष्टि है। यानि कि इन 16 संस्कारों के बाद कोई 17 वां संस्कार है ही नहीं। अब जब 17 वां संस्कार की कोई बात ही नहीं कही गई है तो तेरहवीं संस्कार कहां से आ गया ? आज हम आपको महाभारत में मृत्युभोज से जुड़ी हुई एक कहानी के बारे में बताएंगे जिससे आपको एक हद तक समझ में आ जाएगा कि क्या वाकई में मृत्युभोज,में जाना उचित है या नहीं ?

इस कहानी में स्वयं भगवान श्रीकृष्ण ने शोक या दुख की अवस्था में करवाए गए भोजन को ऊर्जा का नाश करने वाला बताया है। इस कहानी के अनुसार, महाभारत का युद्ध शुरू होने ही वाला था। भगवान श्री कृष्ण ने दुर्योधन के घर जा कर संधि करने का आग्रह किया। उन्होंने दुर्योधन के सामने युद्ध न करने का प्रस्ताव रखा। हालांकि दुर्योधन ने श्रीकृष्ण की एक ना सुनी। दुर्योधन ने संधि करने के आग्रह को ठुकरा दिया। जिससे श्री कृष्ण को काफी कष्ट हुआ। वह वहां से निकल गए। जाते समय दुर्योधन ने श्रीकृष्ण से भोजन ग्रहण कर जाने को कहा। इस पर श्रीकृष्ण ने कहा कि, ‘सम्प्रीति भोज्यानि आपदा भोज्यानि वा पुनैः’ अर्थात हे दुर्योधन जब खिलाने वाले का मन प्रसन्न हो, खाने वाले का मन प्रसन्न हो, तभी भोजन करना चाहिए। इसके विपरीत जब खिलाने वाले एवं खाने वालों के मन में पीड़ा हो, वेदना हो, तो ऐसी स्थिति में कदापि भोजन ग्रहण नहीं करना चाहिए। महाभारत की इस कहानी को बाद में मृत्युभोज से जोड़ा दिया गया। जिसके अनुसार अपने किसी परिजन की मृत्यु के बाद मन में अथाह पीड़ा होती है, परिवार के सदस्यों के मन में उस दौरान बहुत दुख होता है। जाहिर सी बात है कि ऐसे में कोई भी प्रसन्नचित अवस्था में भोज का आयोजन नहीं कर सकता, वहीं दूसरी ओर मृत्युभोज में आमंत्रित लोग भी प्रसन्नचित होकर भोज में शामिल नहीं होते। ऐसा कहा गया कि इससे उर्जा का विनाश होता है। 

मृत्यु भोज क्यों करते है 

मृत्यु के पश्चात वातावरण में अशुद्धि, तथा उसके निवारण के लिए यह 13 दिन के नियम अपनाए गए हैं। जब कोई मनुष्य देह छोड़ता है तब एक बहुत ही भयानक ऊर्जा को प्रवाह होता है, जिसके कारण अन्य लोगो पर इसका असर आता है, दूसरा कई बार मृत व्यक्ति यदि गंभीर समस्या झेल कर गया है तो उसका भी उपाय आवश्यक है।  पहले के समय में उपचार की व्यवस्था इतनी सुविधाजनक व सशक्त व नहीं थी। अधिकांश घर कच्चे के होते थे। हैजा, कालरा जैसी घातक बीमारियों का प्रकोप फैलता था। इनसे या फिर वृद्धावस्था में बीमारी से मरने वाले व्यक्ति की देह से रोगाणु और विषाणु निकलते थे, जिनसे गंभीर बीमारियों के फैलने का खतरा रहता है। बीमारियां नहीं फैलें, इसलिए सफाई से पहले तक मृतक के परिजनों को स्पर्श करना या उसके घर जाना मना था। इसे सूतक का नाम दिया गया। जिसमें सुरक्षा का ही कवच है। जब घर का पूरी तरह शुद्धिकरण हो जाता था, तब औषधीय हवन कराकर घर के वातावरण को शुद्ध किया जाता था। इस प्रक्रिया के बाद लोग मृतक के परिवार में आना-जाना करने लगते हैं।

मृत्युभोज आयोजन के कारण

भारतीय या कहें हिन्दू परम्पराएं एक बहुत ही ऊंचे दर्जे की सोच से शुरू हुईं हैं जिनके पीछे प्राकृतिक विज्ञान,मनोविज्ञान,अध्यात्म और ज्योतिष का ज्ञान निहित है। सनातन विद्वानो ने किसी भी परम्परा की शुरूआत को बहुत ही सोच समझ कर शुरू किया होगा। मृत्यु के पश्चात वातावरण में अशुद्धि, एंव परिजनो में व्याप्त अत्यधिक शोक व पीडा के निवारण के लिए सम्भवतः मृत्यु भोज की परम्परां की शुरू हुई। कई बार किसी की मृत्यु से व्यथित उसका रिश्तेदार भी मानसिक आघात से मर जाता है ,या वह स्थायी तौर पर विक्षिप्त या अवसाद ग्रस्त हो सकता है । यह सभी सम्भावनाएं मृत्यु के 15 दिनों तक होने की ज्यादा प्रबल होती हैं । इसका उपाय मृत्युग्रस्त परिवार को तुरंत एक जरूरी कार्य में लगा देने से हो जाता है । मृत्युभोज का आयोजन मूलतः परिवार को शुरुआती 10-12 दिनों में मृत व्यक्ति के बारे में अतिशय दुखी होने से ध्यान हटाने के लिए होता है। मृत्यु से लेकर तेरहवी तक बनाये गये प्रक्रिया के समापन में परिजन इतने व्यस्त हो जाते कि वे सम्पूर्ण प्रक्रिया को पूर्ण होने के पश्चात वे लगभग अपनी सभी चिन्ताओ को भूल कर निढाल हो जाते है। और वे चैतन्य अवस्था में आने के बाद परिजनो को अपने कार्यो के प्रति चिन्ता भाव जाग्रत होना स्वभाविक है। और वे इस प्रकार अपने दैनिक दिनचर्या में व्यस्त हो जाते है। 

सनातनी मानते हैं की मृत्यु के बाद भी अस्तित्व समाप्त नहीं होता बस शरीर मिट जाता है अब आत्मा या चित्त सूक्ष्म शरीर को धारण करती है , जिनके साथ आपने पूरा जीवन बिताया हो उनसे मोह होना स्वभाविक है । तो ऐसे में आत्मा वही रुक कर शोक मनाती है और आगे की यात्रा पर निकलने के लिए वो तैयार नहीं होती, वो वहाँ से जाना ही नहीं चाहती । जब वो देखती है की उसके मृत्यु के बाद उसके सारे प्रियजन अब शोक से बाहर है सब खा पी रहे हैं तो उसे एक झटका लगता है और वो आगे की यात्रा पर निकल जाती है । इसी लिए जब भी कोई साधू महात्मा मरता है तो उसके लिए यह संस्कार नहीं मनाते क्यूँकि उन्हें सत्य का ज्ञान होता है और मृत्यु के बाद उनकी आत्मा शोक या मोह में नहीं पड़ती । और इसका दूसरा कारण यह भीे है की इस संस्कार के बहाने पूरा परिवार पूरा खानदान और सारे मित्र पड़ोसी शोकाकुल परिवार के पास इकट्ठा होता है और सांत्वना देता है इससे उन्हें हिम्मत मिलती है ।

मृत्युभोज के पीछे ज्योतिषीय कारण -

शनि को मृत्यु और दुख का कारक ग्रह माना जाता है । किसी घर में मृत्यु होने पर वहां रहने वाले किसी न किसी व्यक्ति पर शनि की दशा या साढेसाती , ढैय्या आदि गोचर अवश्य होते हैं । शनि को काले ( दुख) रंग का प्रतीक भी माना जाता है । इसलिए मृत्य के बाद बालों को मुड़वाने की परंपरा प्रारम्भ हुई । शनि बहुत धीमी चाल से चलता है अतः एक मृत्यु ही होगी ऐसा जरूरी नहीं है । कई बार किसी की मृत्यु से व्यथित उसका रिश्तेदार भी मानसिक आघात से मर जाता है ,या वह स्थायी तौर पर विक्षिप्त या अवसाद ग्रस्त हो सकता है । यह सभी सम्भावनाएं मृत्यु के 15 दिनों तक होने की ज्यादा होती हैं । इसका उपाय मृत्युग्रस्त परिवार को तुरंत एक जरूरी कार्य में लगा देने से हो जाता है । मृत्युभोज का आयोजन मूलतः परिवार को शुरुआती 10-12 दिनों में मृत व्यक्ति के बारे में अतिशय दुखी होने से ध्यान हटाने के लिए होता है । इसका दूसरा कारण परिवार पर शनि के प्रभाव को गुरु ग्रह के प्रभाव को बढ़ाकर दुख से जल्दी पार पाने के लिए किया जाता है । भोज के बहाने सभी परिचितों व रिश्तेदारों को न्योता दिया जाता है जिसमें लोगों का आना अनिवार्य माना जाता है । इन लोगों का गुरु अच्छा होने से व्यक्ति के परिवार को सामाजिक सम्बल मिलता है और परिवार फिर से सामान्य होने लगता है । नए लोगों के आने , मिलने , बात करने से नई मधुर स्मृतियां जन्म लेती हैं जो बीमारी और मृत्यु से जुड़ी कड़वी यादों को दबा देती हैं और परिवार फिर से सहज हो कर अपने दायित्वों को पूरा करने में लग जाता है । अन्यथा मृत व्यक्ति का परिवार महीनों तक अवसाद ग्रस्त और जिम्मेदारियों से विरत रह सकता है । शनि का उपाय ज्योतिष में गुरु और शुक्र को माना गया है । गुरु अर्थात पूजापाठ या ईश्वर में आस्था और शुक्र शारीरिक जरूरतें जिसमें पहले स्थान पर भोजन आता है । इसीलिए हिंदुओं में किसी अनिष्ट की आशंका पर पूजा और उसके बाद प्रसाद का चलन है । लेकिन ये कहीं भी आवश्यक नहीं है कि कोई अपनी क्षमता से ज्यादा या जबरदस्ती खर्च करे । अगर किसी का मनोबल मजबूत है तो वह इन उपायों के बिना भी काम चला सकता है । साधु सन्यासियों की मृत्यु में इस नियम का पालन नही किया जाता है क्योंकि वे परिवार से पहले से ही विरत होते हैं ।

सनातन धर्म में मृत्यु भोज नामक कोई परम्परा नहीं है।

कहीं किसी आमंत्रण पत्र में आपने मृत्यु भोज नहीं पढा होगा। अधिकांशतः ब्रह्मभोज, प्रीति भोज अथवा प्रसाद ग्रहण का ही आमंत्रण होता है। रही शास्त्रों में वर्णित होने की बात तो मृत्यु भोज जब शास्त्रों में नहीं आता तभी तो समाज में नहीं है । हमारी संस्कृति और विश्व की लगभग सभी संस्कृतियों में शोकाकुल परिवार के द्वार पर आये हुए अतिथियों के सत्कार में भोजन प्रबन्ध रहता है।हां उससे पहले ब्रह्मभोज होता है जिसमे लोग अपने पूज्यनीय सम्बधियों, गुरू, पुरोहित, उपाध्याय, आश्रित ब्राह्मणों को भोजन कराते हैं। जो की शास्त्रों में वर्णित है।  इसके लिए वायु पुराण, अग्नि पुराण, गरुड़ पुराण आदि का अध्ययन किया जा सकता है।

जाने क्या है मृत्युभोज निषेध अधिनियम 1960 

मृत्युभोज अधिनियम 1960-जानकारी देने जा रहे है। मृत्यु भोज अधिनियम 1960 राजस्थान में लागु किया गया।  राजस्थान सरकार द्वारा मृत्यु भोज बंद करने के लिए अपने गज़ट में  10 /02/1960 को  प्रकाशित किया।  जिस पर   राष्ट्रपति द्वारा हस्ताक्षर कर तीसरे दिन सहमती दे  दी गयी। 

जाने मृत्युभोज निषेध अधिनियम 1960  क्या है ?

मृत्यु भोज निषेध कानून जिसमे गंगा प्रसादी धार्मिक रूप से किसी भी पंडो पुजारियों के लिए धार्मिक संस्कार और परंपरा के नाम पर किसी  प्रकार के मृत्युभोज का आयोजन करना कानूनन अपराध है।  

मृत्युभोज क्या है - 
मृत्युभोज  किसी भी व्यक्ति के यहाँ यदि उनके किसी परिजन की मृत्यु हो जाती है तो मृत्यु के उपरांत धार्मिक परंपरा मानते हुए अपने समाज के लोगों को बुलाकर भोज का आयोजन करना जिसमे गंगा प्रसादी ,नुक्ता ,मौसर अदि मृत्यु के बाद कराये जाने वाला भोज मृत्यु कहलाता है। 

मृत्युभोज निषेध कानून की धाराएँ - 
धारा - 2  किसी परिजन की मृत्यु हो जाने पर किसी भी समय कराये जाने वाला भोज नुक्ता मौसर , गंगाप्रसादी मृत्यु भोज कहलाता है।   कोई भी व्यक्ति अपने परिजन समाज पंडो पुजारियों के  संस्कार या परंपरा के नाम पर मृत्यु भोज का आयोजन  नहीं करेगा। -मृत्युभोज कराने वाले और उसमे शामिल होना दोनों अपराध है। 

धारा -3  मृत्यु  भोज में कोई भी व्यक्ति न करेगा और ना ही शामिल होगा ऐसा करने पर दोनों को सजा व दंड 

धारा -4   में लिखा है  धारा 3 अनुसार यदि कोई व्यक्ति मृत्यु भोज के लिए उकसायेगा या साथ देगा ,या प्रेरित करता है उसको एक वर्ष का साधारण कारावास और 1000 रुपये जुर्माना। 

धारा 5  में लिखा है की स्थानीय जनप्रतिनिधि (पंच ,सरपंच) एवं पटवारी , लम्बरदार , ग्राम सेवक का दायित्व बनता है  जैसे ही उनको मृत्युभोज के बारे में जानकारी प्रदान होती है तो वो तुरंत न्यायिक मजिस्ट्रेड के पास प्रार्थना पत्र लेकर रुकवा सकते है।    

धारा 6  में लिखा है यदि कोई व्यक्ति धारा 5 की बातों को नहीं मनाता है। तो उसे १ वर्ष का कारावास और 1 हजार रुपये जुर्माना 
 
धारा 7  में लिखा गया है की यदि पंच सरपंच पटवारी या ग्रामसेवक इसके बारे में  बताते है तो उन्हें भी सजा का प्रावधान है। इसमें तीन माह तक की सजा हो सकता  है। 

धारा 8   में लिखा है यदि कोई व्यक्ति सेठ, माहंजन साहूकार या दूकानदार कोई हो मृत्युभोज के लिए रूपया या सामान उधार देता है  तो उन्हें उस रूपए को वसूलने का अधिकार नहीं होगा। और उसके द्वारा दिए गए सामान भी जप्त कर लिया जायेगा। 

राजस्थान पहला राज्य जिसने मृत्युभोज पर प्रतिबन्ध लगाया। 




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