मणिपुर के आदिवासी कबीले में काबुई नामक युवक रहता था। वह मनचाहे रूप बदलने में चतुर था। दिन में वह आदमी के वेष में रहता था, किंतु शाम होते ही किसी भी जंगली पशु के रूप में बदल जाता।
एक शाम उसने जंगली भैंसे का रूप धारण किया और शिकार की तलाश में चल पड़ा। एक बुढिया जंगल से लकड़ी काटकर लौट रही थी। वह दबे पाँव उसके पास पहुँचा और बोला, 'आज मैं तुझे खाकर ही भूख मिटऊँगा।'
बुढ़िया के तो होश ही उड़ गए। अचानक उसे जान बचाने की तरकीब सूझ गई। मुँह बनाकर बोली, 'खाना है तो खा लो पर मुझमें वह स्वाद कहाँ, जो थाबाटन में होगा।'
काबुई चौंका। गरजकर पूछा, 'थाबाटन कौन है?'
'वह सात भाइयों की अकेली बहन है। अच्छा भरा हुआ शरीर है, कितना ताजा मांस है?' बुढ़िया बोली।
काबुई ने बुढ़िया से वादा किया कि थाबाटन का पता पाने पर वह उसे छोड़ देगा।
बुढ़िया ने उसे बताया कि थाबाटन के भाई उसे कमरे में बंद कर जाते हैं। जब बाहर से भाई संकेत करते हैं, तभी वह दरवाजा खोलती है अन्यथा वह बाहर नहीं निकलती।
“कैसा संकेत?! काबुई ने पूछा। बुढ़िया ने उत्तर दिया, “मैं एक दिन वहाँ से गुजर रही थी तो मैंने उनकी बातचीत सुनी थी। वह बहन से कह रहे थे जब हम कहें-
'प्यारी बहना, हम आए हैं।
तेरी ही माँ के जाए हैं।
तभी तू द्वार खोलना।'
काबुई उस संकेत को पाकर खुश हुआ। बुढिया उसे थाबाटन का घर दिखाकर लौट गई।
काबुई अपनी आवाज बदलना भूल गया। अपनी कठोर आवाज में उसने संकेत वाक्य दोहराया। थाबाटन जान गई कि यह आवाज उसके भाईयों की नहीं है। उसने दरवाजा खोलने से मना कर दिया।
काबुई गुस्से से भरा हुआ बुढ़िया के पास पहुँचा। जैसे ही वह उसे खाने लगा। चालाक बुढ़िया ने कहा- 'चलो, मैं साथ चलकर दरवाजा खुलवाती हूँ।'
बुढ़िया ने ठीक भाईयों जैसी आवाज में पुकारा।
इस बार थाबाटन धोखा खा गई। उसने दरवाजा खोल दिया। अजनबी काबुई को देखकर वह घबरा गई। काबुई ने उसकी सुंदरता देखी तो उसे खाने का निश्चय त्याग दिया। रोती-कलपती थाबाटन राह में अपने दुपट्टे का कपड़ा फाड़कर फेंकती रही ताकि सात भाई उस तक पहुँच सकें।
काबुई ने उससे जबरदस्ती विवाह कर लिया। निश्चित समय पर उनके यहाँ पुत्र का जन्म भी हुआ। वह भी पिता की तरह राक्षसी स्वभाव का था।
थाबाटन ने काबुई को अपने विश्वास में ले लिया। उसने दिखावा किया कि वह पिछली बातें भूल चुकी है तथा काबुई को दिल से चाहती है। बातों ही बातों में उसने काबुई के रहस्यमयी संसार की सब बातें जान लीं। उसने भयभीत होते हुए पूछा, 'कहीं तुम्हें किसी ने मार दिया तो मेरा क्या होगा?'
काबुई खिलखिलाकर बोला कि उसे कोई नहीं मार सकता। साथ ही उसने अपने मरने का एकमात्र रास्ता भी बतला दिया। थाबाटन ने उसे याद कर लिया। वह दिन-रात उसे खत्म करने के उपाय सोचती रहती।
एक दिन उसने काबुई को एक बाँस की नली देकर कहा, ' प्रिय! तुम इसमें पानी भर लाओ, मैं स्वादिष्ट खाना बना रही हूँ।' इससे पहले काबुई ने उसे अकेला नहीं छोड़ा था। वह उसकी बातों में आकर नदी पर चला गया।
थाबाटन ने उसके जाते ही घर की हर वस्तु को तोड़ना-फोडना आरंभ कर दिया। काबुई की सभी जादुई चीजें भी नष्ट कर दीं। इतने पर भी थाबाटन का गुस्सा शांत न हुआ। उसने पूरे घर को आग लगा दी।
इधर काबुई बाँस की नली में पानी भर रहा था। ज्यों ही वह पानी भरता बाँस की नलकी खाली हो जाती। दरअसल, उस नलकी में दोनों ओर छेद था, जो बाहर से दिखाई नहीं देता था। थाबाटन के मोह में काबुई बहुत समय तक खोखली नली में पानी भरता रहा। कुछ समय बाद असल बात सामने आई तो उसके क्रोध की सीमा न रही। वह हुंकारता हुआ घर की ओर दौड़ा। थाबाटन ने राक्षस बालक को भी आग में डाल दिया। वह स्वयं काबुई की प्रतीक्षा कर रही थी।
काबुई के आते ही उसने उसी के बताए तरीके से उसका वध कर दिया। तभी दुपट्टे के टुकड़ों के सहारे सातों भाई भी उसे ढूँढते हुए पहुँच गए। अपनी बहन की सूझ-बूझ और चतुराई को देखकर वे दंग रह गए। उन्होंने थाबाटन की पीठ थपथपाई व उसे गले से लगा लिया।
बहादुर थाबाटन ने वेष बदलने वाले खतरनाक काबुई का जादू सदा के लिए मिटा दिया।
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