विज्ञान के क्षेत्र में लगातार प्रगति और न्यू इंडिया के इस दौर से पहले गुलाम भारत में एक वैज्ञानिक था, जिसने क्रांतिकारी आविष्कार किए और दुनिया ने उसका लोहा माना, लेकिन भारत के लिए ये नाम आज भी अनसुना और अजनबी है.आज के समय में जब विज्ञान के क्षेत्र में भारत दुनिया में अपना लोहा मनवाने की होड़ में शामिल है, एक ऐसे नाम को भुला दिया गया है, जो उस समय भारत का नाम विज्ञान की दुनिया में रोशन कर रहा था, जब भारत में वैज्ञानिक आविष्कारों को लेकर कोई खास दिलचस्पी नहीं थी. एक ऐसा वैज्ञानिक, जिसने खुद विज्ञान के बारे में सीखा और वह जिस अंधेरे से उभरा था, मौत के बाद गुमनामी के उसी अंधेरे में खो गया. आइए जानें कि कौन थे शंकर अबाजी भिसे और क्यों उन्हें याद किया जाना ज़रूरी है.
बात 19वीं सदी की है, जब तत्कालीन बॉम्बे में भिसे की परवरिश हो रही थी. उन दिनों अमेरिका की कुछ विज्ञान पत्रिकाएं वहां आया करती थीं. भिसे की विज्ञान में दिलचस्पी थी और वो मैकेनिकल इंजीनियरिंग की शिक्षा हासिल करना चाहते थे, लेकिन उस वक्त भारत में ये सब मुमकिन नहीं था. भिसे की लगन का नतीजा ये हुआ कि इन्हीं पत्रिकाओं से उन्होंने अपनी शिक्षा और ट्रेनिंग हासिल की और ये बात कई दशकों बाद भिसे ने एक अखबार को बताई, जब उन्हें अपने आविष्कारों के लिए कुछ शोहरत मिली.
इन गैजेट्स और मशीनों के साथ हुई शुरूआत भिसे की विज्ञान में रुचि और खुद की ट्रेनिंग इस कदर थी कि 20 साल की उम्र पार करते ही उन्होंने बॉम्बे में एक वैज्ञानिक क्लब की स्थापना की थी. उसी उम्र में उन्होंने कुछ मशीनें और गैजेट बनाए जिनमें टैंपर प्रूफ बोतल, इलेक्ट्रिक बाइसिकल और बॉम्बे के रेलवे सिस्टम के लिए स्टेशन इंडिकेटर वगैरह. इसके बाद उनके जीवन में बड़ा मौका तब आया, जब 1890 के दशक के आखिर में ब्रिटिश आविष्कारकों की एक पत्रिका ने मशीनें डिज़ाइन करने की एक प्रतियोगिता का ऐलान किया.भिसे ने इसी प्रेरणा के चलते एक रात में चार घंटे के समय में एक मशीन का ब्लूप्रिंट स्केच किया और इसे प्रतियोगिता में भेजा. ब्रिटेन के तमाम प्रतियोगियों को पीछे छोड़कर भिसे विजेता बने. अब भिसे की पूछ परख शुरू हुई और विज्ञान के क्षेत्र में भिसे को बढ़ावा देने के लिए उनके ब्रिटेन जाने के लिए बॉम्बे प्रशासन ने इंतज़ाम शुरू किए. जाते हुए भिसे ने अपने दोस्तों से कहा था 'जब तक मैं कामयाब नहीं होता, या मेरा आखिरी पाउंड खत्म नहीं हो जाता, तब तब मैं घर नहीं लौटूंगा'. ये वाक्य उस समय के नौजवान वैज्ञानिकों के लिए बड़ी प्रेरणा बन गया था.
नौरोजी ने की किसे की मदद
भारतीय राष्ट्रवाद के नेता दादाभाई नौरोजी लंदन में पहले ही प्रतिष्ठित थे. उस समय इंग्लैंड में भिसे को तकनीकी कंपनियों में काम दिलाने और एग्रीमेंट तय करने में नौरोजी ने मदद की थी क्योंकि भिसे के खाते में कई इंटरनेशनल पेटेंट आ चुके थे और नौरोजी इस काबिलियत से प्रभावित थे. इसके बाद भिसे के आविष्कारों का सिलसिला शुरू हुआ, जो 200 आविष्कारों और 40 पेटेंट तक पहुंचा.
किसके के नाम दर्ज हुए कई आविष्कार और पेटेंट
भिसे ने एक अनोखा इलेक्ट्रॉनिक साइनबोर्ड ईजाद किया, जिसे बाद में लंदन के क्रिस्टल पैलेस में प्रदर्शनी में रखा गया. फिर इसे लंदन, वेल्स और संभवत: पेरिस के स्टोर्स में काम के लिए उपयोग में लाया गया. भिसे ने नौरोजी को अपने नए आविष्कारों के बारे में बताया था कि किचन गैजेट्स, टेलिफोन, सिरदर्द के इलाज के लिए एक डिवाइस और टॉयलेट सफाई के लिए एक ऑटोमेटिक सिस्टम भिसे तैयार कर चुके थे. लेकिन, भिसे ने अपने एक आविष्कार के बारे में संभवत: नौरोजी को नहीं बताया था और वह था पुशअप ब्रा. जी हां, भिसे ने 1905 के ज़माने में सीने के उभार में सहायक ये आविष्कार भी कर दिया था.
इन सबके अलावा, भिसे का सबसे बड़ा आविष्कार था : भिसोटाइप. ये एक ऐसा टाइपराइटर था, जिसने प्रिंटिंग उद्योग में क्रांति ला दी थी. दुनिया भर के निवेशकों ने इस आविष्कार को क्रांतिकारी माना था और उनका अंदाज़ा था कि इससे प्रिंटिंग उद्योग बहुत आगे तक चला जाएगा.
शोहरत से गुमनामी तक
इस क्रांतिकारी आविष्कार ने एक तरफ भिसे को शोहरत दिलाई, तो वही उनके पतन का कारण बना. पहले इस भिसोटाइप को लेकर नौरोजी की मदद से कार्ल मार्क्स के अनुयायी रहे समाजवादी हिंडमैन के साथ करार की बात आगे बढ़ी. हिंडमैन ने भिसे को फाइनेंस का भरोसा दिलाया था. उस वक्त की प्रिंटिंग की सबसे बड़ी कंपनी लिनोटाइप के साथ बातचीत आगे बढ़ी और भिसे अपनी मशीन को फाइनल टच देने की तैयारियों में जुट गए. लेकिन, ऐन मौके पर हिंडमैन ने फाइनेंस न जुटा पाने पर अफसोस ज़ाहिर किया.
इसका अंजाम ये हुआ कि काफी वक्त और पैसा लगा चुकने के बाद भिसे के पास कुछ नहीं बचा था. 1908 में उन्हें बॉम्बे लौटने के लिए मजबूर होना पड़ा. लेकिन, लंदन का ये सफर इतनी आसानी से खत्म होने वाला नहीं था. बॉम्बे आकर उन्होंने अपने टाइपकास्टर के बारे में क्रांतिकारी नेता गोपाल कृष्ण गोखले को बताया. उन्होंने भिसे को बड़े उद्योगपति रतन जे टाटा से मिलवाया. इसके बाद भिसे टाटा के भरोसे पर अमेरिका गए.
न्यूयॉर्क में भिसे को अपने आयोडीन घोल वाले आविष्कार के लिए काफी दौलत व शोहरत मिली. लेकिन, भिसोटाइप के लिए न तो वो मार्केटिंग कर पाए और न ही उस मशीन से उन्हें कुछ हासिल हो पा रहा था. बीबीसी की एक रिपोर्ट में उपरोक्त ज़िक्र के साथ कहा गया है कि इसके बाद उन्होंने इसके आगे का आविष्कार करते हुए 'स्पिरिट टाइपराइटर' भी बनाया. लेकिन, इसका अंजाम भी भिसोटाइप की तरह निराशाजनक रहा. भिसे के अंतिम समय तक उन्हें 'भारत का एडिसन' तो कहा जाता रहा लेकिन न तो उनके आविष्कारों की कद्र हुई और न ही उन्हें लंबे समय तक याद रखा गया.
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