नोट -भारत की आजादी में शहीद हुए वीरांगना/जवानो के बारे में यदि आपके पास कोई जानकारी हो तो कृपया उपलब्ध कराने का कष्ट करे . जिसे प्रकाशित किया जा सके इस देश की युवा पीढ़ी कम से कम आजादी कैसे मिली ,कौन -कौन नायक थे यह जान सके । वैसे तो यह बहुत दुखद है कि भारत की आजादी में कुल कितने क्रान्तिकारी शहीद हुए इसकी जानकार भारत सरकार के पास उपलब्ध नही है। और न ही भारत सरकार देश की आजादी के दीवानो की सूची संकलन करने में रूचि दिखा रही जो बहुत ही दुर्भाग्य पूर्ण है।
खाज्या नायक अंग्रेजों की भील पल्टन में एक सामान्य सिपाही थे। उन्हें सेंधवा-जामली चैकी से सिरपुर चैक तक के 24 मील लम्बे मार्ग की निगरानी का काम सौंपा गया था। खाज्या ने 1831 से 1851 तक इस काम को पूर्ण निष्ठा से किया। एक बार गश्त के दौरान उन्होंने एक व्यक्ति को यात्रियों को लूटते हुए देखा।
इससे वह इतने क्रोधित हो गये कि बिना सोचे-समझे उस पर टूट पड़े। इससे उस अपराधी की मृत्यु हो गयी। शासन ने कानून अपने हाथ में लेने पर उन्हें दस साल की सजा सुनायी। किन्तु कारावास में अनुशासित रहने के कारण उनकी सजा घटा कर पाँच साल कर दी गयी। जेल से छूट कर उनके मन में इस ब्रिटिश शासन के प्रति नफरत भर चुकी थी ..विदेशी सत्ता को वो पहले फौज में रह कर बाद में जेल में रह कर अच्छे से समझ चुके थे ..इससे वह शासन से नाराज हो गये और उनसे बदला लेने का सही समय तलाशने लगे। इतिहासकार डा. एस.एन.यादव के अनुसार जब 1857 में भारत में अंग्रेजों के विरुद्ध विद्रोह भड़क उठा, तो अंग्रेज अधिकारियों ने खाज्या और अनेक पूर्व सैनिक व सिपाहियों को फिर से काम पर रख लियाय पर खाज्या के मन में अंग्रेज शासन के प्रति घृणा बीज तो अंकुरित हो ही चुका था और माना जा रहा है कि वो अन्दर से रह कर अंग्रेजो को नुक्सान पहुचना चाह रहे थे.
इन्होने अन्दर से ही अंग्रेजो की व्यूह रचना को अच्छे से समझ लिया था और पूरी तरह से सोची समझी रणनीति के चलते वो कार्य कर रहे थे ..आखिरकार सही समय आने पर उन्होंने ब्रिटिश पल्टन छोड़ दी और निकल पड़े राष्ट्र को दासता से मुक्त करवाने . उनके मन में प्रतिशोध की भावना इतनी प्रबल थी कि वह बड़वानी (मध्य प्रदेश) क्षेत्र के क्रान्तिकारी नेता भीमा नायक से मिले, जो रिश्ते में उनके बहनोई लगते थे। यहीं से इन दोनों की जोड़ी बनी, जिसने भीलों की सेना बनाकर निमाड़ क्षेत्र में अंग्रेजों के विरुद्ध वातावरण खड़ा कर दिया। भील लोग शिक्षा और आर्थिक रूप से तो बहुत पीछे थेय पर उनमें वीरता और महाराणा प्रताप के सैनिक होने का स्वाभिमान कूट-कूटकर भरा था। जब एक बार ये अंग्रेजों के विरुद्ध खड़े हो गये, तो फिर पीछे हटने का कोई प्रश्न ही नहीं था। इस सेना ने अंग्रेजों के खजाने लूटे, उनका वध किया और अंग्रेजों के पिट्ठुओं को भी नहीं बख्शा। शासन ने इन्हें गिरफ्तार करने के अनेक प्रयास कियेय पर जंगल और घाटियों के गहरे जानकार होने के कारण वीर भील योद्धा मारकाट कर सदा बचकर निकल जाते थे। अब शासन ने भेद नीति का सहारा लेकर इन दोनों भील नायकों को पकड़वाने वाले को एक हजार रु. का पुरस्कार घोषित कर दिया।
तब के एक हजार रु. आज के दस लाख रु. के बराबर होंगे। फिर भी भीमा और खाज्या नायक बिना किसी भय के क्षेत्र में घूम-घूमकर लोगों को संगठित करते रहे। 11 अप्रैल, 1858 को बड़वानी और सिलावद के बीच स्थित आमल्यापानी गाँव में अंग्रेज सेना और इस भील सेना की मुठभेड़ हो गयी। अंग्रेज सेना के पास आधुनिक शस्त्र थे, जबकि भील अपने परम्परागत शस्त्रों से ही मुकाबला कर रहे थे। प्रातः आठ बजे से शाम तीन बजे तक यह युद्ध चला। इसमें खाज्या नायक के वीर पुत्र दौलतसिंह सहित अनेक योद्धा बलिदान हुए। आज भी सारा निमाड़ क्षेत्र उस वीरों के प्रति श्रद्धा से नत होता है, जिन्होंने अपने राष्ट्रीय स्वाभिमान के लिए प्राणाहुति दी।
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अभी थोड़े समय पहले अहिंसा और बिना खड्ग बिना ढाल वाले नारों और गानों का बोलबाला था ! हर कोई केवल शांति के कबूतर और अहिंसा के चरखे आदि में व्यस्त था लेकिन उस समय कभी इतिहास में तैयारी हो रही थी एक बड़े आन्दोलन की ! इसमें तीर भी थी, तलवार भी थी , खड्ग और ढाल से ही लड़ा गया था ये युद्ध ! जी हाँ, नकली कलमकारों के अक्षम्य अपराध से विस्मृत कर दिए गये वीर बलिदानी जानिये जिनका आज बलिदान दिवस ! आज़ादी का महाबिगुल फूंक चुके इन वीरो को नही दिया गया था इतिहास की पुस्तकों में स्थान ! किसी भी व्यक्ति के लिए अपने मुल्क पर मर मिटने की राह चुनने के लिए सबसे पहली और महत्वपूर्ण चीज है- जज्बा या स्पिरिट। किसी व्यक्ति के क्रान्तिकारी बनने में बहुत सारी चीजें मायने रखती हैं, उसकी पृष्ठभूमि, अध्ययन, जीवन की समझ, तथा सामाजिक जीवन के आयाम व पहलू। लेकिन उपरोक्त सारी परिस्थितियों के अनुकूल होने पर भी अगर जज्बा या स्पिरिट न हो तो कोई भी व्यक्ति क्रान्ति के मार्ग पर अग्रसर नहीं हो सकता। देश के लिए मर मिटने का जज्बा ही वो ताकत है जो विभिन्न पृष्ठभूमि के क्रान्तिकारियों को एक दूसरे के प्रति, साथ ही जनता के प्रति अगाध विश्वास और प्रेम से भरता है। आज की युवा पीढ़ी को भी अपने पूर्वजों और उनके क्रान्तिकारी जज्बे के विषय में कुछ जानकारी तो होनी ही चाहिए। आज युवाओं के बड़े हिस्से तक तो शिक्षा की पहुँच ही नहीं है। और जिन तक पहुँच है भी तो उनका काफी बड़ा हिस्सा कैरियर बनाने की चूहा दौड़ में ही लगा है। एक विद्वान ने कहा था कि चूहा-दौड़ की सबसे बड़ी दिक्कत यह है कि व्यक्ति इस दौड़ में जीतकर भी चूहा ही बना रहता है। अर्थात इंसान की तरह जीने की लगन और हिम्मत उसमें पैदा ही नहीं होती। और जीवन को जीने की बजाय अपना सारा जीवन, जीवन जीने की तैयारियों में लगा देता है। जाहिरा तौर पर इसका एक कारण हमारा औपनिवेशिक अतीत भी है जिसमें दो सौ सालों की गुलामी ने स्वतंत्र चिन्तन और तर्कणा की जगह हमारे मस्तिष्क को दिमागी गुलामी की बेड़ियों से जकड़ दिया है। आज भी हमारे युवा क्रान्तिकारियों के जन्मदिवस या शहादत दिवस पर ‘सोशल नेट्वर्किंग साइट्स’ पर फोटो तो शेयर कर देते हैं, लेकिन इस युवा आबादी में ज्यादातर को भारत की क्रान्तिकारी विरासत का या तो ज्ञान ही नहीं है या फिर अधकचरा ज्ञान है। ऐसे में सामाजिक बदलाव में लगे पत्र-पत्रिकाओं की जिम्मेदारी बनती है कि आज की युवा आबादी को गौरवशाली क्रान्तिकारी विरासत से परिचित करायें ताकि आने वाले समय के जनसंघर्षों में जनता अपने सच्चे जन-नायकों से प्ररेणा ले सके। आज हम एक ऐसी ही क्रान्तिकारी साथी का जीवन परिचय दे रहे हैं जिन्होंने जनता के लिए चल रहे संघर्ष में बेहद कम उम्र में बेमिसाल कुर्बानी दी।
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