नोट -भारत की आजादी में शहीद हुए वीरांगना/जवानो के बारे में यदि आपके पास कोई जानकारी हो तो कृपया उपलब्ध कराने का कष्ट करे . जिसे प्रकाशित किया जा सके इस देश की युवा पीढ़ी कम से कम आजादी कैसे मिली ,कौन -कौन नायक थे यह जान सके । वैसे तो यह बहुत दुखद है कि भारत की आजादी में कुल कितने क्रान्तिकारी शहीद हुए इसकी जानकार भारत सरकार के पास उपलब्ध नही है। और न ही भारत सरकार देश की आजादी के दीवानो की सूची संकलन करने में रूचि दिखा रही जो बहुत ही दुर्भाग्य पूर्ण है।
मंगल पांडे अथवा मंगल पान्डेय ( जन्म 19 जुलाई, 1827 मृत्यु 8 अप्रैल, 1857 ) का नाम भारतीय स्वाधीनता संग्राम में अग्रणी योद्धाओं के रूप में लिया जाता है। जिनके द्वारा भड़काई गई क्रांति की ज्वाला से अंग्रेज ईस्ट इंडिया कंपनी का शासन बुरी तरह हिल गया था। मंगल पांडे की शहादत ने भारत में पहली क्रांति के बीज बोए थे। ब्रह्मदेश (बर्मा वर्तमान म्यांमार ) पर विजय तथा सिक्ख युद्ध की समाप्ति के पश्चात् अंग्रेजों ने भारतवर्ष पर निष्कंटक राज्य करने के सपने देखें होंगे पर उन्हें क्या पता था कि सन 1857 का वर्ष उनकी आशाओं पर तुषारपात का वर्ष सिद्ध होगा।
क्रांतिकारी मंगल पांडे का जन्म 19 जुलाई, 1827 को उत्तर प्रदेश के बलिया जिले के नगवा गाँव में हुआ था। कुछ सन्दर्भों में इनका जन्म स्थल फैजाबाद जिले की अकबरपुर तहसील के सुरहुरपुर ग्राम में बताया गया है। इनके पिता का नाम दिवाकर पांडे तथा माता का नाम श्रीमती अभय रानी था। वे कोलकाता (भूतपूर्व कलकत्ता) के पास बैरकपुर की सैनिक छावनी में 34वीं बंगाल नेटिव इन्फैंट्री की पैदल सेना के 1446 नम्बर के सिपाही थे। भारत की आजादी की पहली लड़ाई अर्थात् 1857 के संग्राम की शुरुआत उन्हीं के विद्रोह से हुई थी।
भारतीय इतिहास में 29 मार्च, 1857 का दिन अंग्रेजों के लिए दुर्भाग्य के दिन के रूप में उदित हुआ। पाँचवी कंपनी की चैंतीसवीं रेजीमेंट का 1446 नं. का सिपाही वीरवर मंगल पांडे अंग्रेजों के लिए प्रलय-सूर्य के समान निकला। बैरकपुर की संचलन भूमि में प्रलयवीर मंगल पांडे का रणघोष गूँज उठा- बंधुओ! उठो! उठो! तुम अब भी किस चिंता में निमग्न हो ? उठो, तुम्हें अपने पावन धर्म की सौगंध ! चलो, स्वातंत्र्य लक्ष्मी की पावन अर्चना हेतु इन अत्याचारी शत्रुओं पर तत्काल प्रहार करो। मंगल पांडे के बदले हुए तेवर देखकर अंग्रेज सारजेंट मेजर ह्यूसन उसने पथ को अवरुद्ध करने के लिए आगे बढ़ा। उसने उस विद्रोही को उसकी उद्दंडता का पुरस्कार देना चाहा। अपनी कड़कती आवाज में उसने मंगल पांडे को खड़ा रहने का आदेश दिया। वीर मंगल पांडे के अरमान मचल उठे। वह शिवशंकर की भाँति सन्नद्ध होकर रक्तगंगा का आह्वान करने लगा। उसकी सबल बाहुओं ने बंदूक तान ली। उसकी सधी हुई उँगलियों ने बंदूक का घोड़ा अपनी ओर खींचा और घुड़ड़ घ का तीव्र स्वर घहरा उठा। मेजर ह्यसन घायल कबूतर की भाँति भूमि पर तड़प रहा था। उसका रक्त भारत की धूल चाट रहा था। 1857 के क्रांतिकारी ने एक फिरंगी की बलि ले ली थी। विप्लव महायज्ञ के पुरोधा मंगल पांडे की बंदूक पहला स्वारा बोल चुकी थी। स्वातंत्र्य यज्ञ की वेदी को दस्यु-देह की समिधा अर्पित हो चुकी थी।
खबरदार, जो कोई आगे बढ़ा ! आज हम तुम्हारे अपवित्र हाथों को ब्राह्मण की पवित्र देह का स्पर्श नहीं करने देंगे। ह्यसन को धराशायी हुआ देख लेफ्टिनेंट बॉब वहाँ जा पहुँचा। उस अश्वारूढ़ गोरे ने मंगल पांडे को घेरना चाहा। पहला ग्रास खाकर मंगल पांडे की बंदूक की भूख भड़क उठी थी। उसने दूसरी बार मुँह खोला और लेफ्टिनेंट बॉब घोड़े सहित भू-लुंठित होता दिखाई दिया। गिरकर भी बॉब ने अपनी पिस्तौल मंगल पांडे की ओर सीधी करके गोली चला दी। विद्युत गति से वीर मंगल पांडे गोली का वार बचा गये और बॉब खिसियाकर रह गया। अपनी पिस्तौल को मुँह की खाती हुई देख बॉब ने अपनी तलवार खींच ली और वह मंगल पांडे पर टूट पड़ा। मंगल पांडे भी कच्चे खिलाड़ी नहीं थे। बॉब ने मंगल पांडे पर प्रहार करने के लिए तलवार तानी ही थी कि मंगल पांडे की तलवार का भरपूर हाथ उस पर ऐसा पड़ा कि बॉब का कंधा और तलवार वाला हाथ जड़ से कटकर अलग जा गिरा। एक बलि मंगल पांडे की बंदूक ले चुकी थी और दूसरी उसकी तलवार ने ले ली।
लेफ्टिनेंट बॉब को गिरा हुआ देख एक दूसरा अंग्रेज मंगल पांडे की ओर बढ़ा ही था कि मंगल पांडे के साथी भारतीय सैनिक ने अपनी बंदूक डंडे की भाँति उस अंग्रेज की खोपड़ी पर दे मारी। अंग्रेज की खोपड़ी खुल गई। अपने आदमियों को गिरते हुए देख कर्नल व्हीलर मंगल पांडे की ओर बढ़ाय पर सभी क्रुद्ध भारतीय सिंह गर्जना कर उठे- खबरदार, जो कोई आगे बढ़ा! आज हम तुम्हारे अपवित्र हाथों को ब्राह्मण की पवित्र देह का स्पर्श नहीं करने देंगे। कर्नल व्हीलर जैसा आया था वैसा ही लौट गया। इस सारे कांड की सूचना अपने जनरल को देकर, अंग्रेजी सेना को बटोरकर ले आना उसने अपना धर्म समझा। जंग-ए-आजादी के पहले सेनानी मंगल पांडे ने 1857 में ऐसी चिंगारी भड़काई, जिससे दिल्ली से लेकर लंदन तक की ब्रिटिश हुकूमत हिल गई।
नारा मारो फिरंगी को-मारो फिरंगी को यह प्रसिद्ध नारा भारत की स्वाधीनता के लिए सर्वप्रथम आवाज उठाने वाले क्रांतिकारी मंगल पांडे की जुबां से 1857 की क्रांति के समय निकला था। भारत की आजादी के लिए क्रांति का आगाज 31 मई, 1857 को होना तय हुआ था, परन्तु यह दो माह पूर्व 29 मार्च, 1857 को ही आरम्भ हो गई। मंगल पांडे को आजादी का सर्वप्रथम क्रान्तिकारी माना जाता है। फिरंगी अर्थात् अंग्रेज या ब्रिटिश जो उस समय देश को गुलाम बनाए हुए थे, को क्रांतिकारियों व भारतियों द्वारा फिरंगी नाम से पुकारा जाता था। गुलाम जनता तथा सैनिकों के हृदय में क्रांति की जल रही आग को धधकाने के लिए व लड़कर आजादी लेने की इच्छा को दर्शाने के लिए यह नारा मंगल पांडे द्वारा गुंजाया गया था।
अंग्रेजी सेना द्वारा बंदी वीर मंगल पांडे ने अपने कर्तव्य की पूर्ति कर दी थी। शत्रु के रक्त से भारत भूमि का तर्पण किया था। मातृभूमि की स्वाधीनता जैसे महत कार्य के लिए अपनी रक्तांजलि देना भी अपना पावन कर्तव्य समझा। मंगल पांडे ने अपनी बंदूक अपनी छाती से अड़ाकर गोली छोड़ दी। गोली छाती में सीधी न जाती हुई पसली की तरफ फिसल गई और घायल मंगल पांडे अंग्रेजी सेना द्वारा बंदी बना लिये गये। अंगेजों ने भरसक प्रयत्न किया कि वे मंगल पांडे से क्रांति योजना के विषय में उसके साथियों के नाम-पते पूछ सकेंय पर वह मंगल पांडे थे, जिनका मुँह अपने साथियों को फँसाने के लिए खुला ही नहीं।
1857 के विद्रोह का प्रारम्भ एक बंदूक की वजह से हुआ था। सिपाहियों को 1853 में एनफील्ड बंदूक दी गयी थीं, जो कि 0.577 कैलीबर की बंदूक थी तथा पुरानी और कई दशकों से उपयोग में लायी जा रही ब्राउन बैस के मुकाबले में शक्तिशाली और अचूक थी। नयी बंदूक में गोली दागने की आधुनिक प्रणाली का प्रयोग किया गया था, परन्तु बंदूक में गोली भरने की प्रक्रिया पुरानी थी। नयी एनफील्ड बंदूक भरने के लिये कारतूस को दांतों से काट कर खोलना पड़ता था और उसमे भरे हुए बारूद को बंदूक की नली में भर कर कारतूस में डालना पड़ता था। कारतूस का बाहरी आवरण में चर्बी होती थी, जो कि उसे नमी अर्थात् पानी की सीलन से बचाती थी। बंधुओ! उठो! उठो! तुम अब भी किस चिंता में निमग्न हो ? उठो, तुम्हें अपने पावन धर्म की सौगंध! चलो, स्वातंत्र्य लक्ष्मी की पावन अर्चना हेतु इन अत्याचारी शत्रुओं पर तत्काल प्रहार करो। सिपाहियों के बीच अफवाह फैल चुकी थी कि कारतूस में लगी हुई चर्बी सुअर और गाय के मांस से बनायी जाती है। यह हिन्दू और मुसलमान सिपाहियों दोनों की धार्मिक भावनाओं के विरुद्ध था। अंग्रेज अफसरों ने इसे अफवाह बताया और सुझाव दिया कि सिपाही नये कारतूस बनायें, जिसमें बकरे या मधुमक्क्खी की चर्बी प्रयोग की जाये। इस सुझाव ने सिपाहियों के बीच फैली इस अफवाह को और मजबूत कर दिया। दूसरा सुझाव यह दिया गया कि सिपाही कारतूस को दांतों से काटने की बजाय हाथों से खोलें। परंतु सिपाहियों ने इसे ये कहते हुए अस्वीकार कर दिया कि वे कभी भी नयी कवायद को भूल सकते हैं और दांतों से कारतूस को काट सकते हैं। तत्कालीन अंग्रेज अफसर प्रमुख (भारत) जार्ज एनसन ने अपने अफसरों की सलाह को दरकिनार हुए इस कवायद और नयी बंदूक से उत्पन्न हुई समस्या को सुलझाने से मना कर दिया।
29 मार्च सन् 1857 को नए कारतूस को प्रयोग करवाया गया, मंगल पण्डे ने आज्ञा मानने से मना कर दिया और धोखे से धर्म को भ्रष्ट करने की कोशिश के ख़िलाफ उन्हें भला-बुरा कहा, इस पर अंग्रेज अफसर ने सेना को हुकम दिया कि उसे गिरफ्तार किया जाये, सेना ने हुक्म नहीं माना। पलटन के सार्जेंट हडसन स्वंय मंगल पांडे को पकड़ने आगे बढ़ा तो, पांडे ने उसे गोली मार दी, तब लेफ्टीनेंट बल आगे बढ़ा तो उसे भी पांडे ने गोली मार दी। घटनास्थल पर मौजूद अन्य अंग्रेज सिपाहियों नें मंगल पांडे को घायल कर पकड़ लिया। उन्होंने अपने अन्य साथियों से उनका साथ देने का आह्वान किया। किन्तु उन्होंने उनका साथ नहीं दिया। उन पर मुकदमा (कोर्ट मार्शल) चलाकर 6 अप्रैल, 1857 को मौत की सजा सुना दी गई।
फौजी अदालत ने न्याय का नाटक रचा और फैसला सुना दिया गया। 8 अप्रैल का दिन मंगल पांडे की फाँसी के लिए निश्चित किया गया। बैरकपुर के जल्लादों ने मंगल पांडे के पवित्र खून से अपने हाथ रँगने से इनकार कर दिया। तब कलकत्ता से चार जल्लाद बुलाए गए। 8 अप्रैल, 1857 के सूर्य ने उदित होकर मंगल पांडे के बलिदान का समाचार संसार में प्रसारित कर दिया। भारत के एक वीर पुत्र ने आजादी के यज्ञ में अपने प्राणों की आहुति दे दी। वीर मंगल पांडे के पवित्र प्राण-हव्य को पाकर स्वातंत्र्य यज्ञ की लपटें भड़क उठीं। क्रांति की ये लपलपाती हुई लपटें फिरंगियों को लील जाने के लिए चारों ओर फैलने लगीं।
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अभी थोड़े समय पहले अहिंसा और बिना खड्ग बिना ढाल वाले नारों और गानों का बोलबाला था ! हर कोई केवल शांति के कबूतर और अहिंसा के चरखे आदि में व्यस्त था लेकिन उस समय कभी इतिहास में तैयारी हो रही थी एक बड़े आन्दोलन की ! इसमें तीर भी थी, तलवार भी थी , खड्ग और ढाल से ही लड़ा गया था ये युद्ध ! जी हाँ, नकली कलमकारों के अक्षम्य अपराध से विस्मृत कर दिए गये वीर बलिदानी जानिये जिनका आज बलिदान दिवस ! आज़ादी का महाबिगुल फूंक चुके इन वीरो को नही दिया गया था इतिहास की पुस्तकों में स्थान ! किसी भी व्यक्ति के लिए अपने मुल्क पर मर मिटने की राह चुनने के लिए सबसे पहली और महत्वपूर्ण चीज है- जज्बा या स्पिरिट। किसी व्यक्ति के क्रान्तिकारी बनने में बहुत सारी चीजें मायने रखती हैं, उसकी पृष्ठभूमि, अध्ययन, जीवन की समझ, तथा सामाजिक जीवन के आयाम व पहलू। लेकिन उपरोक्त सारी परिस्थितियों के अनुकूल होने पर भी अगर जज्बा या स्पिरिट न हो तो कोई भी व्यक्ति क्रान्ति के मार्ग पर अग्रसर नहीं हो सकता। देश के लिए मर मिटने का जज्बा ही वो ताकत है जो विभिन्न पृष्ठभूमि के क्रान्तिकारियों को एक दूसरे के प्रति, साथ ही जनता के प्रति अगाध विश्वास और प्रेम से भरता है। आज की युवा पीढ़ी को भी अपने पूर्वजों और उनके क्रान्तिकारी जज्बे के विषय में कुछ जानकारी तो होनी ही चाहिए। आज युवाओं के बड़े हिस्से तक तो शिक्षा की पहुँच ही नहीं है। और जिन तक पहुँच है भी तो उनका काफी बड़ा हिस्सा कैरियर बनाने की चूहा दौड़ में ही लगा है। एक विद्वान ने कहा था कि चूहा-दौड़ की सबसे बड़ी दिक्कत यह है कि व्यक्ति इस दौड़ में जीतकर भी चूहा ही बना रहता है। अर्थात इंसान की तरह जीने की लगन और हिम्मत उसमें पैदा ही नहीं होती। और जीवन को जीने की बजाय अपना सारा जीवन, जीवन जीने की तैयारियों में लगा देता है। जाहिरा तौर पर इसका एक कारण हमारा औपनिवेशिक अतीत भी है जिसमें दो सौ सालों की गुलामी ने स्वतंत्र चिन्तन और तर्कणा की जगह हमारे मस्तिष्क को दिमागी गुलामी की बेड़ियों से जकड़ दिया है। आज भी हमारे युवा क्रान्तिकारियों के जन्मदिवस या शहादत दिवस पर ‘सोशल नेट्वर्किंग साइट्स’ पर फोटो तो शेयर कर देते हैं, लेकिन इस युवा आबादी में ज्यादातर को भारत की क्रान्तिकारी विरासत का या तो ज्ञान ही नहीं है या फिर अधकचरा ज्ञान है। ऐसे में सामाजिक बदलाव में लगे पत्र-पत्रिकाओं की जिम्मेदारी बनती है कि आज की युवा आबादी को गौरवशाली क्रान्तिकारी विरासत से परिचित करायें ताकि आने वाले समय के जनसंघर्षों में जनता अपने सच्चे जन-नायकों से प्ररेणा ले सके। आज हम एक ऐसी ही क्रान्तिकारी साथी का जीवन परिचय दे रहे हैं जिन्होंने जनता के लिए चल रहे संघर्ष में बेहद कम उम्र में बेमिसाल कुर्बानी दी।
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