ये तार वाद्य यंत्र हैं। ध्वनि दो बिंदुओं के बीच फैले हुए तार या तारों के कंपन द्वारा उत्पन्न की जाती है। इन यंत्रों को ऐंठन, धनुर, नक्काशीदार गैर-नक्काशीदार वाले उपकरणों में वर्गीकृत किया गया है। इसी तरह के कुछ उपकरण वीणा, लायर, ज़िथर और ल्यूट हैं। ध्वनि की उत्पत्ति तनावयुक्त तार या तांत को खींचकर या झुकाकर कंपन उत्पन्न करने से होती है। तार की लंबाई और उसमें तनाव, ध्वनि की गतिविधि और अवधि को निर्धारित करती है। तार वाद्य यंत्रों को बजाने के तरीकों से वर्गीकृत किया जा सकता है:
- धनुर् के साथ घर्षण द्वारा जैसे कि सारंगी, दिलरुबा, एसराज आदि (रावणास्त्रं सबसे पहले ज्ञात धनुर्वादयों में से एक है);
- तार को खींचकर जैसे कि सरस्वती वीणा, रुद्र वीणा
- या एक हथौड़े या छड़ी-युग्म से मारकर जैसे कि गेट्टुवाद्यम, स्वरमंडल।
60-रोबाना
रोबाना लकड़ी, चर्मपत्र, आँत, इस्पात और हड्डी से बना एक तार वाद्य यंत्र है। यह लोक वाद्य यंत्र हिमाचल प्रदेश में पाया जाता है। यह मुख्य रूप से हिमाचल प्रदेश के लोक और पारंपरिक गायकों द्वारा उपयोग किया जाता है।
इसमें लकड़ी के एकल टुकड़े से बना ढाँचा होता है। चमड़े से ढका हुआ कटोरी के आकार का अनुनादक, जिस पर एक लंबी गर्दन और एक आलंकारिक खूँटी धानी लगी होती है। इसमें आँत के पांच तार और इस्पात का एक अनुकंपी तार होता है। इसे दाहिने हाथ द्वारा हड्डी के मिजराव की मदद से बजाया जाता है। इसका उपयोग हिमाचल प्रदेश के लोक और पारंपरिक गायकों द्वारा किया जाता है।
61-वीणा
वीणा कटहल की लकड़ी और धातु से बना एक तार वाद्य यंत्र है। यह एक पारंपरिक वाद्य यंत्र है जो दक्षिण भारत के कई हिस्सों में पाया जाता है। यह वीणा श्रेणी का कार्नाटक संगीत में खींच कर बजाया जाने वाला प्रमुख वाद्य यंत्र माना जाता है।
यह वीणा श्रेणी का कर्नाटक संगीत में खींच कर बजाया जाने वाला प्रमुख वाद्य यंत्र माना जाता है। यह कटहल की लकड़ी से बना होता है। इसका गहरा और गोल अनुनादक, समतल पृष्ठ वाला अंगुलिपटल (दाँडी) लकड़ी के एक ही कुंदे को खोडकार बनाया जाता है और इसे ‘एक डंडी वीणा’ कहा जाता है। इसकी सजावटी खूँटी धानी को 'व्याली' नामक सांप के आकार में उकेरा जाता है। इसमें चार मुख्य धातु के तार और तीन ड्रोन तार होते हैं। इसमें दो घुड़च होते हैं - एक मुख्य और एक सहायक। इसमें धातु की चौबेस सारिकाएँ मोम के माध्यम से अंगुलिपटल (दाँडी) पर लगाई जाती हैं। यह दक्षिण भारतीय शास्त्रीय संगीत का एक लोकप्रिय वाद्य यंत्र है।
62-रुद्र वीणा
“रुद्र वीणा सागौन की लकड़ी, धातु, कद्दू, और बाँस से बना एक तार वाद्य यंत्र है। यह पारंपरिक वाद्य यंत्र उत्तर भारत के कई हिस्सों में पाया जाता है। यह मुख्य रूप से उत्तर भारतीय शास्त्रीय संगीत में उपयोग किया जाता है।“
“रुद्र वीणा एक प्राचीन वाद्य यंत्र है। इसमें सागौन की लकड़ी या बाँस से बना एक लंबा नलीदार ढाँचा होता है, जिसके दोनों किनारों पर लगभग चौदह इंच के दो खोखले अनुनादक/तुंबे लगे होते हैं। यह तुंबे सूखे या खोखले कद्दू से बने होते हैं। इसमें अंगुलिपटल (दाँडी) पर पीतल की चौबीस सारिकाएँ (मंद्र, मद्ध्य, और तर: तीनों सप्तकों में) लगाई गई होती हैं, जिन्हें मोम की मदद से अचल बनाया जाता है। इन सारिकाओं के ऊपर पीतल की पतली नुकीली प्लेट्स लगाई जाती हैं, जिन्हें सार कहा जाता है। इसमें 4 मुख्य तार और 3 चिकारी/ताल (दो दाईं ओर और एक बाईं ओर) तार होते हैं। ये सभी तार 3 कीलों, जिन्हें ककुभा कहा जाता है, की मदद से नली के एक कोने पर बांधे जाते हैं, जिसमें तारों को समायोजित करने के लिए दोनों तरफ 8 नियामक होते हैं। चार मुख्य तार मुख्य घुड़च से गुजरते हैं और अपने संबंधित खूँटियों में बंधने से पहले, वे मेरु कहे जाने वाले एक ऊपरी घुड़च से होकर गुजरते हैं। चिकारी तार अपनी-अपन खूँटियों पर लगने के लिए दो पार्श्व घुड़च पर लगे होते हैं, एक-एक दोनों तरफ। इसमें लगभग साढ़े तीन फ़ीट की लंबाई वाला एक अंगुलिपटल (दाँडी) होता है जो सभी सारिकाओं और तारों को एक साथ रखता है। यह दाहिने हाथ की तर्जनी और मध्यमा अंगुली में पहने जाने वाले मिजराव से बजाया जाता है। पार्श्व तारों को छोटी उंगली पर पहने गए मिजराव से बजाया जाता है। ड्रोन तारों के बाएँ पार्श्व को छोटी उंगली पर पहने गए मिजराव से बजाया जाता है। रुद्र वीणा को बजाने का पारंपरिक आसन वज्रासन या दरबारी बैठक हुआ करता था (जिसमें वीणा को तिरछे रखा जाता था, जहाँ ऊपरी तुंबा बाएँ कंधे पर टिका होता है, जबकि निचला तुंबा दाहिनी जांघ पर रखा जाता है और अंगुलिपटल (दाँडी) छाती के पास रखा जाता है)। बाद में, वादकों ने इसे बजाने के लिए एक नई मुद्रा का आविष्कार किया, जिसे सुखासन के रूप में जाना जाता है (इसमें वीणा को आधा तिरछा रखा जाता है, ऊपरी तुंबे को दाहिनी जांघ पर रखा जाता है, जबकि निचले तुंबे को फर्श पर रखा जाता है और अंगुलिपटल (दाँडी) को छाती से दूर रखा जाता है। पारंपरिक मुद्रा में रुद्र वीणा बजाते समय जिन कठिनाइयों का सामना करना पड़ता था, इस नई मुद्रा से उन परेशानियों में कमी आई। माना जाता है कि वीणा शब्द का उद्गम वण शब्द से हुआ है, और यह ऋग्वेद में वर्णित एक तार वाद्य यंत्र है। वैदिक पुजारी कात्यायन ने अथर्व वेद में सौ तारों से युक्त एक वाद्य यंत्र के बारे में बताने के लिए भी वण का प्रयोग किया। वण का अर्थ ध्वनि (शब्द) और गति उत्पन्न करना है। इसलिए, वण को वह तार वाद्य यंत्र माना जाता था जिसने वीणा को जन्म दिया। यह माना जाता है कि रुद्र वीणा भगवान शिव द्वारा देवी पार्वती की सुंदरता के लिए एक श्रद्धांजलि के रूप में बनाई गई थी। माना जाता है कि इस वाद्य यंत्र को भगवान शिव ने सबसे पहले बजाया था, और यह भी माना जाता है कि इसमें आध्यात्मिक शक्तियाँ होती हैं। यह माना जाता था कि रुद्र वीणा महिलाओं के नाजुक कंधों के लिए बहुत भारी हुआ करता था। लिहाजा, महिलाओं को इसे बजाने की अनुमति नहीं थी। हालांकि, आधुनिक युग कुछ महिला वादक भी हैं। रुद्र वीणा अब लगभग विलुप्ति के कगार पर पहुँच चुका एक दुर्लभ वाद्य यंत्र बन गया है। इसको बनाने वाले शिल्पकार और साथ ही इसके वादक, दोनों ही, अब बहुत कम पाए जाते हैं। इस वाद्य यंत्र ने उन्नीसवीं सदी के शुरुआती दिनों में सुरबहार, सितार और सरोद, आदि जैसे अन्य तार वाद्य यंत्रों के विकास के साथ ही अपना महत्व खो दिया। यह लकड़ी से बना एक लंबा नलीदार ढाँचा। इसमें दो बड़े आकार के गोल अनुनादक होते हैं, जो केंद्र से एक समान दूरी पर, नली के नीचे लगे होते हैं और उत्तम गुणवत्ता वाले कद्दू से बने होते हैं। इसमें चार बजने वाले तार लगे होते हैं, जिनमें से एक इस्पात और तीन तांबे के तार होते हैं जो निचले छोर पर हुक से बंधे, और नली के समानांतर खिंचे होते हैं और अलंकृत समस्वरण खूँटी तक ले जाए जाते हैं। नली के दोनों तरफ घुड़चों पर दो ड्रोन तार होते हैं जो अपनी-अपनी खूँटियों तक खिंचे होते और उससे बंधे होते हैं। चौबीस पीतल युक्त उभरे हुए लकड़ी की सारिकाएँ होती हैं जिन्हें मोम की मदद से नली पर लगाया गया होता है। इसमें लगे अनुनादक बड़े पैमाने पर लकड़ी के फूलों की नक्काशी से सजाए गए होते हैं। इसमें खूँटी धानी पर भी नक्काशी हुई होती है। नली का निचला सिरा एक पक्षी की उकेरा जाता है और हाथी के दांत से बने चौड़े समतल घुड़च के लिए आधार के रूप में कार्य करता है। बजाते समय, एक तुंबा बाएं कंधे पर और दूसरा तुंबा दाहिनी जांघ पर टिका होता है। इसे दाहिने हाथ की उंगलियों पर पहने जाने वाले तार से बने मिजराव के द्वारा बजाया जाता है। यह उत्तरी भारतीय शास्त्रीय संगीत में उपयोग होने वाला वाद्य यंत्र है।”
63-विचित्र वीणा
“विचित्र वीणा तूमड़ीऔर लकड़ी से बना एक तार वाद्य यंत्र है। यह पारंपरिक वाद्य यंत्र उत्तर भारत के कई हिस्सों में पाया जाता है। यह मुख्य रूप से उत्तर भारतीय शास्त्रीय संगीत शैली में उपयोग होता है। इसे बट्टा बीन भी कहते हैं।”
“इसमें लकड़ी का एक लंबा डंडा, तूमड़ी से बने, एक जैसे व्यास और ऊँचाई वाले दो विशाल अनुनादकों पर टिका होता है। इसमें पाँच प्रमुख, तीन ड्रोन, और ग्यारह अनुकंपी तार होते हैं। इसमें तीन घुड़च होते हैं, एक प्रमुख, एक सहायक, और अनुकंपी तारों के लिए एक छोटा घुड़च। इसे दाएँ हाथ की उँगलियों में पहने गए मिजरावों से बजाया जाता है और बाएँ हाथ से पकड़े हुए काँच या पत्थर के टुकड़ों से रोका जाता है। यह उत्तर भारतीय शास्त्रीय संगीत शैली में उपयोग होता है। इसे बट्टा बीन भी कहते हैं।”
64-विनयकुंजू-
विनयकुंजू रेशे और चर्मपत्र से बना एक तार वाद्य यंत्र है। यह पारंपरिक वाद्य यंत्र तमिलनाडु में पाया जाता है। मालाबार के 'पुल्लूवनों' द्वारा मुख्यत: उपयोग किया जाता है।
नाशपाती के आकार का अनुनादक चर्म से ढका होता है, जो पीछे से खुला होता है। एक लंबा अंगुलिपटल (दाँडी) होता है। रेशे का केवल एक तार होता है। गज से बजाया जाता है। मालाबार के 'पुल्लूवनों' द्वारा उपयोग किया जाता है।
65-विलकोट्टी याज़-
"विलकोट्टी याज़ लकड़ी और इस्पात से बना एक तार वाद्य यंत्र है। यह दुर्लभ वाद्य यंत्र तमिलनाडु में पाया जाता है। एक पुराने संगीत वाद्य यंत्र का एक प्रतिरूप, जिसका उपयोग संभवतः रागात्मक संगत प्रदान करने के लिए किया जाता है।"
“पुराने संगीत वाद्य यंत्र का एक प्रतिरूप है। नवचंद्राकार खोखला लकड़ी का ढाँचा। पूँछ पर सात लकड़ी की खूँटियाँ जिनमें सात इस्पात के तार बँधे होता हैं। जैसा कि प्राचीन मूर्तिकलाओं में देखा गया है, संभवतः रागात्मक संगत प्रदान करने के लिए वाद्य यंत्र को शायद उंगलियों द्वारा झनझनाया जाता था।"
66-श्री-मंडल
"श्री-मंडल धातु, कपास और इस्पात से बना एक तार वाद्य यंत्र है। यह मंदिर वाद्य यंत्र राजस्थान में पाया जाता है। इसका मंदिरों और अन्य समारोहों में मुख्यत: उपयोग किया जाता है। इसे शोभायात्राओं में भी निकाला जाता है।"
"विभिन्न माप की गोल आकृतियों की धात्विक प्लेटों को कपास की डोरियों की मदद से इस्पात के ढाँचे पर लटका दिया जाता है, जब टकराती हैं तो कई तरह की ध्वनियाँ उत्पन्न होती हैं, कभी-कभी अष्टम स्वर पर समस्वरित की जाती हैं। मंदिरों और अन्य समारोहों में मुख्यत: उपयोग की जाती हैं। इसे शोभायात्राओं में भी निकाला जाता है।"
67-संतूर-
“संतूर लकड़ी, इस्पात, और बाँस से बना एक तार वाद्य यंत्र है। यह पारंपरिक वाद्य यंत्र जम्मू और कश्मीर में पाया जाता है। यह मुख्य रूप से सूफ़ीयाना क़लाम नामक कश्मीर के पारंपरिक संगीत में उपयोग होता है। इस वाद्य यंत्र को अब शास्त्रीय वाद्य यंत्र में एक महत्वपूर्ण स्थान मिल गया है।“
इसमें एक समलंब लकड़ी का डिब्बा होता है जिसपर इस्पात के 120 तार लकड़ी के 30 घुड़च पर 4-4 के जोड़े में व्यवस्थित होते हैं। लकड़ी के घुड़च 15-15 के जोड़े में दोनों तरफ व्यवस्थित होते हैं। इन्हें बाँस के पतले मुद्गरों की सहायता से बजाया जाता है। इसे बजाते समय लकड़ी की त्रिभुजाकार धानी पर रखा जाता है। यह सूफ़ीयाना क़लाम नामक कश्मीर के पारंपरिक संगीत में उपयोग होता है। इसने शास्त्रीय संगीत वाद्य यंत्र के रूप में अपना एक प्रमुख स्थान बना लिया है।
68-सत्संग-
"सत्संग लकड़ी और चर्मपत्र से निर्मित एक तार वाद्य यंत्र है। यह लोक वाद्य यंत्र सिक्किम में पाया जाता है। सिक्किम के संगीत और नृत्य में मुख्य रूप से उपयोग किया जाता है।"
"एकल लकड़ी के कुंदे से बना एक धनुर्वाद्य। छोटा अंगुलिपटल (दाँडी), आयताकार खूँटी धानी और चर्मपत्र चिपका हुआ अनुनादक। अनुनादक के सिरे पर तार धारक से बँधे चार इस्पात के तार और ऊपरी ओर की खूँटियों से संलग्न होते हैं। इस वाद्य यंत्र को घोड़े से बाल से बने गज से बजाया जाता है। यह सिक्किम के संगीत और नृत्य में प्रयुक्त होता है।"
69-सरोद
“सरोद नारियल के खोल, तुन की लकड़ी, ड्रोन, शिकरी और हाथी दाँत से निर्मित एक तार वाद्य यंत्र है। यह पारंपरिक वाद्य यंत्र उत्तरी भारत के कई हिस्सों में पाया जाता है। खींचकर बजाए जाने वाले इस वाद्य यंत्र का उपयोग उत्तर भारतीय शास्त्रीय संगीत में एकल संगीत कार्यक्रमों के लिए किया जाता है।"
“खींचकर बजाया जाने वाला उत्तर भारत का लोकप्रीय वाद्य यंत्र। इसका पूरा ढाँचा 'तुन' की लकड़ी के एकल कुंदे से उकेरकर बनाया गया है। इसमें एक गोल अनुनादक, विस्तृत अंगुलिपटल (दाँडी), लंबी और पतली, धनुषाकार, खूँटी धानी होती है। अनुनादक बकरी की बहुत बारीक खाल की झिल्ली से युक्त होता है। इसमें तारों के दो जोड़े होते हैं। ऊपरी जोड़े में चार मुख्य बजाने वाले तार, चार ड्रोन तार, दो चिकारी तार होते हैं। निचले जोड़े में पंद्रह अनुकंपी तार होते हैं। सभी तार अनुनादक के नीचे एक धातु तार धारक से जुड़े होते हैं, घुड़च से गुज़रते हैं और अंत में अपने संबंधित खूँटी से जुड़े होते हैं। मुख्य हाथी दाँत का घुड़च, अनुनादक पर स्थित होता है। ड्रोन तारों को समर्थन देने के लिए ऊपरी नट के समानांतर एक छोटा चौकोर घुड़च लगाया जाता है। तारों को नारियल के खोल से बने मिजराव को दाहिने हाथ मे रखकर खींचा जाता है। चिकने अंगुलिपटल (दाँडी) पर तारों को रोकने के लिए नाखून के हिस्से या बाएँ हाथ की उंगली के पोर उपयोग किये जाते हैं। यह वाद्य यंत्र एकल संगीत कार्यक्रमों के लिए उत्तर भारतीय शास्त्रीय संगीत में उपयोग किया जाता है।"
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