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शून्य और दशमलव प्रणाली के खोजकर्ता

 
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दशमलव पद्धति को दशाधार अथवा दाशमिक संख्या पद्धति अथवा संख्या पद्धति भी कहते हैं। अन्य बोलियों में इसे डिसिमल सिस्टम, डेनारी, बेस 10 भी कहते है। यह वह गिनती है जिसमें कुल 10 संख्याओं की मदद ली जाती है ( 1 2 3 4 5 6 7 8 9 )। इसे दस चिन्हों के मदद से व्यक्त किया जाता है। यह सर्वप्रथम भारत में ही शुरू हुई थी। संस्कृत साहित्य में गणित को सर्वश्रेष्ठ विज्ञान माना जाता है। आर्यभट्ट ने लगभग 5 वी शताब्दी में अंको का आविष्कार कर दिया था। धीरे धीरे इसे बोलने चलने मे इकाई दहाई सैकड़ा हजार इत्यादि प्रयोग होने लगे। गणित के विद्वानों ने प्रश्नों को हल करने के अनेक से उपाय निकालें जैसे वर्गमूल, घनमूल, गुना जोड़ इत्यादि। छोटे भागोवाली संख्याओं को हल करने के लिए दशमलव का प्रयोग होने लगा।

दशमलव पद्धति की खोज -

अंकों को दस चिन्हों के माध्यम से व्यक्त करने की प्रथा का प्रादुर्भाव सर्वप्रथम भारत में ही हुआ था। संस्कृत साहित्य में अंकगणित को श्रेष्ठतम विज्ञान माना गया है। लगभग पाँचवीं शताब्दी में भारत में आर्यभट द्वारा अंक संज्ञाओं का आविष्कार हुआ था। इस प्रकार एक (इकाई), दस (दहाई), शत (सैकड़ा), सहस्त्र (हजार) इत्यादि संख्याओं को मापने के उपयोग में लाया जाने लगा। गणित विषयक विभिन्न प्रश्न हल करने के लिए भारतीय विद्वानों ने वर्गमूल, धनमूल और अज्ञात संख्याओं को मालूम करने के ढंग निकाले। संख्याओं के छोटे भागों को व्यक्त करने के लिए दशमलव प्रणाली प्रयोग में आई।

दशमलव की खोज किसने की

तमिलनाडु के चंद्रशेखर वेकेंटरमन नाम के वैज्ञानिक ने दशमलव प्रणाली की खोज की थी। 28 दिसंबर 1956 मैं दशमलव प्रणाली को राष्ट्रपति की स्वीकृति मिली थी। यह पद्धति इतनी ही सरल है कि इसे मापने और बोलने में भी प्रयोग किया जाने लगा। सरकार द्वारा स्वीकृत होने के बाद यही ढंग मापने व तौलने के लिए देशभर में प्रयोग किया जाने लगा। धीरे-धीरे अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भी इसका इस्तेमाल किया जाने लगा। इसका मूल अंक 10 है। प्रत्येक माप पर 10 या इसके 10 वे भाग को लिया जाता है।

दशमलव संख्या के छोटे से छोटे भाग को दर्शाता है। जिसके हर 10 या 10^n होता है। उदाहरण के लिए 9/10,98/100,98/1000 तथा 98/10000 आदि है। जिन्हें क्रमशः 0.9, 0.98, 0.098, 0.0098 लिखते है।

इससे संख्याओं के भिन्न से भिन्न भाग को पता करने में बहुत ही आसानी मिलती है।
दशमलव प्रणाली आने के बाद मापन व तौलन व यातायात में बहुत ही सुविधा प्राप्त हुई है।

सम्मान एवं पुरस्कार

डॉ.रामन को उनके योगदान के लिए भारत के सर्वोच्च पुरस्कार भारत रत्न और नोबेल पुरस्कार, लेनिन पुरस्कार जैसे अंतर्राष्ट्रीय पुरस्कारों से सम्मानित किया गया। रामन इफेक्ट की लोकप्रियता और उपयोगिता का अनुमान इसी से लगा सकते हैं कि खोज के दस वर्ष के भीतर ही सारे विश्व में इस पर क़रीब 2,000 शोध पेपर प्रकाशित हुए। इसका अधिक उपयोग ठोस, द्रव और गैसों की आंतरिक अणु संरचना का पता लगाने में हुआ। इस समय रामन केवल 42 वर्ष के थे और उन्हें ढ़ेरों सम्मान मिल चुके थे।

रामन को यह पूरा विश्वास था कि उन्हें अपनी खोज के लिए 'नोबेल पुरस्कार' मिलेगा। इसलिए पुरस्कारों की घोषणा से छः महीने पहले ही उन्होंने स्टॉकहोम के लिए टिकट का आरक्षण करवा लिया था। नोबेल पुरस्कार जीतने वालों की घोषणा दिसम्बर सन् 1930 में हुई। रामन पहले एशियाई और अश्वेत थे जिन्होंने विज्ञान में नोबेल पुरस्कार जीता था। यह प्रत्येक भारतीय के लिए गर्व की बात थी। इससे यह स्पष्ट हो गया कि विज्ञान के क्षेत्र में भारतीय किसी यूरोपियन से कम नहीं हैं। यह वह समय था जब यूरोपियन विज्ञान पर अपना एकाधिकार समझते थे। इससे पहले सन् 1913 में रवीन्द्रनाथ टैगोर साहित्य के लिए नोबेल पुरस्कार पा चुके थे। नोबेल पुरस्कार के पश्चात रामन को विश्व के अन्य भागों से कई प्रतिष्ठित सम्मान प्राप्त हुए। देश में विज्ञान को इससे बहुत ही प्रोत्साहन मिला। यह उपलब्धि वास्तव में एक ऐतिहासिक घटना थी। इससे भारत के स्वतंत्रता पूर्व के दिनों में कई युवक-युवतियों को विज्ञान का विषय लेने की प्रेरणा मिली।

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