फ्रांस निवासी मोंटगाॅल्फियर नामक दो भाइयों (जोसेफ और जैक्स) को सर्वप्रथम गर्म हवा के गुब्बारे को बनाकर उड़ाने का श्रेय है। सन् 1781 के नवंबर मास की बात है। चिमनी से धुंआ ऊपर उठते देखकर उन्होंने विचार किया कि इसके बल से हल्की वस्तुएं ऊपर उठ सकती हैं। अतः उन्होंने कागज का एक थैला बनाकर उसे आग से थोड़ा ऊपर रखा। उसमें गर्म हवा भर जाने से वह ऊपर उड़ चला।
इस आविष्कार की सूचना जनता में फैल गई और 5 जून, 1783 को मोंटगाॅल्फियर बंधुओं (The Montgolfiers) ने 110 फुट की परिधि के पतले कपड़े के गुब्बारे को भूसे की आग की गर्म हवा से भरकर उड़ाने का सफल प्रदर्शन किया। धुंए से भरा हुआ यह गुब्बारा लगभग 6000 फुट की ऊंचाई तक ऊपर गया और लगभग 10 मिनट तक तैरता रहा।
जब गुब्बारे के भीतर की गरम गैस ठंडी हो गयी तो वह 2 मील दूर धरती पर जा गिरा। वास्तव में यही थी आदमी की बनाई हुई किसी चीज़ की पहली और सच्ची उड़ान और इस करिश्मे से मोंटगाॅल्फियर बंधु गुब्बारों के जनक के रूप में मशहूर हो गए।
इस घटना से कुछ ही दिन पहले हाइड्रोजन गैस के खोजकर्ता हेनरी कैवेंडिश ने इस गैस के गुणों की जांच-परख की थी और उन्होंने यह पता लगाया था कि हाइड्रोजन गैस साधारण वायु से काफी हल्की होती है। अतः इस खोज का लोगों ने लाभ उठाना चाहा। अब गर्म हवा की जगह गुब्बारों में हाइड्रोजन गैस भरने की बात सोची गई इस तरह हाइड्रोजन भरे गुब्बारों का चलन आरंभ हुआ।
पहले उड़ाकों की (First Flyers)
फ्रांस की रायल विज्ञान अकादमी के सहयोग से मोंटगाॅल्फियर बंधुओं ने एक और भी बड़ा गुब्बारा बनाया जिसका व्यास लगभग 41 फुट था। इस गुब्बारे में एक खास बात थी – यह अपने साथ लगभग 500 पौंड वजन का बोझ लेकर सफलतापूर्वक उड़ा। इससे एक बात साबित हो गई कि गुब्बारों के साथ-साथ आदमी भी उड़ सकता है।
गुब्बारे के अपने सफल प्रदर्शन के बाद मोंटगाॅल्फियर बंधुओं ने सितंबर 1783 में दूसरा गर्म हवा का गुब्बारा बनाया जिसमें नीचे एक टोकरी भी लटका दी। टोकरी में एक मुर्गा, एक भेड़ और एक बत्तख को रखकर 19 सितंबर, 1783 को गुब्बारा उड़ाया गया। दर्शकों के आश्चर्य का ठिकाना न रहा जब 8 मिनट बाद गुब्बारा धरती पर आया तो तीनों जीव जिंदा और सही सलामत थे। असली मायने में यही पहले उड़ाके थे।
इस प्रयोग की सफलता से गुब्बारे में स्वयं भी बैठकर उड़ने की हिम्मत लोगों में आयी। ऊपर की घटना को बीते एक माह भी न गुजरा था कि पहला आदमी गर्म हवा के गुब्बारे में बैठकर उड़ा। उस सौभाग्यशाली का नाम था – जीन-फ्रांस्वा पिलाट्रे डी रोजियर (Jean-François Pilâtre de Rozier) ।
15 अक्टूबर, 1783 को फ्रांस निवासी डी रोजियर ने पहली बार आकाश में उड़ने का साहस किया। वे संसार के सर्वप्रथम उड़ाके थे। गुब्बारे की टोकरी में स्वयं बैठकर डी रोजियर ने आकाश की सैर की। वह चार मिनट से अधिक ऊपर रहे और लगभग 85 फुट की ऊंचाई तक पहुंचे।
फिर लोगों ने गुब्बारों में बैठकर उड़ने में दिलचस्पी ली। इस काम के लिए हाइड्रोजन वाले गुब्बारे उपयुक्त पाये गए। सन् 1784 में रॉबर्ट और चार्ल्स नामक दो भाई (Robert brothers) गुब्बारे में बैठकर लगभग 10 हजार फुट की ऊंचाई तक उड़े। उसी साल एलिज़ाबेथ थीबल नाम की एक फ्रेंच महिला ने भी गुब्बारे से उड़ान भरी।
हाइड्रोजन वाले गुब्बारों के उड़ाने के मामले में फ्रांसीसी आविष्कारक और भौतिक वैज्ञानिक जैक्स चार्ल्स (Jacques Charles) बड़े मशहूर हुए। उनके नाम पर कई दशक तक हाइड्रोजन भरे गुब्बारे ‘चार्लियर’ कहलाते रहे। चार्ल्स इतने मशहूर क्यों हुए, इसकी भी एक कहानी है-
एक गुब्बारा पहले के गुब्बारों की अपेक्षा कहीं तेजी से ऊपर उठा तथा 45 मिनट तक हवा में उड़ता रहा और 16 मील दूर जाकर नीचे जमीन पर गिरा। चार्ल्स गुब्बारे के पीछे-पीछे दौड़े और पास जाने पर देखा कि आस-पास के खेतों में काम करने वाले किसान लाठी और डंडों से उसे पीट रहे हैं। इस अजनबी चीज़ को उन्होंने दैत्य समझ रखा था।
इन प्रारंभिक उड़ानों के लगभग 50 वर्षों तक फिर कोई उल्लेखनीय कार्य नहीं हुआ।
गुब्बारों का सुधरा रूप – वायुपोत (Airship)
गुब्बारों से हवाई यात्रा का मार्ग प्रशस्त तो हुआ पर इन्हें उड़ाने के लिए हवाओं की दिशाओं पर निर्भर रहना पड़ता था। उस समय के लोगों के मन में विचार आया कि कितना अच्छा होता यदि गुब्बारों में कोई छोटा-सा इंजन लगाया जा सकता और उसे मन चाहे ढंग से मोड़ा जा सकता। इसी विचार से ‘वायुपोत’ (Airship) अस्तित्व में आए। इस तरह से वायुपोत गुब्बारों के सुधरे रूप थे।
लोगों ने महसूस किया कि वायु की अवरोधक शक्ति को कम करने के लिए गुब्बारे को गोल न बनाकर सिगार की तरह लंबा बनाया जाए। अतः 1784 में एक फ्रेंच जनरल ने सिगार की शक्ल का गुब्बारा बनाया। गुब्बारे के नियंत्रण के लिए उसमें हाथ से चलने वाले पतवार भी लगाए गए थे पर वे बेकार साबित हुए।
असली वायुपोत 1852 में फ्रांसीसी इंजीनियर हेनरी गिफर्ड ने बनाया। सिगार की शक्ल का जो गुब्बारा बनाया गया, उसमें संचालन के लिए वाष्प इंजन का प्रयोग किया गया। यह गुब्बारा 114 फुट लंबा और 39 फुट चैड़ा था। यह स्थिर वायु में 4 मील प्रति घंटे की रफ्तार से उड़ा था। चूंकि वाष्प इंजन का बोझ ही इतना अधिक होता था कि ये गुब्बारे अधिक रफ्तार नहीं पकड़ पाते थे। जाहिर है कि ये गुब्बारे अधिक कामयाब न हो सके।
जब पेट्रोल इंजन का आविष्कार हो गया तो इस दिशा में अप्रत्याशित सफलता मिली। सबसे पहली बार उल्फर्ड ने 1897 में पेट्रोल इंजन लगाकर गुब्बारा बनाया था। उल्फर्ड अपने गुब्बारे में बैठकर उड़ा तो जरूर पर थोड़ी ऊंचाई पर जाते ही इंजन फट गया और उसमें आग लग गयी। आग में फंसकर बेचारे उल्फर्ड की जान चली गई।
उल्फर्ड की मौत के अगले साल अल्बर्ट सैंटोस ड्यूमा ने एक वायुपोत बनाया। यह वह वायुपोत था जिसे ठीक से नियंत्रित किया जा सकता था। ड्यूमा ने इसे नाम दिया – Airship No.1 । एक-एक करके ड्यूमा ने 14 वायुपोतों का निर्माण किया। 19 अक्टूबर, 1901 को ड्यूमा ने अपने वायुपोत में बैठकर 19 मील प्रति घंटे की रफ्तार से दुनिया की सबसे ऊंची मीनार एफिल टॉवर के कई चक्कर लगाए।
आरंभिक वायुपोत का ढांचा दृढ़ नहीं था, वे मुड़ जाते थे। लंबी यात्राओं के लिए ऐसे वायुपोतों की आवश्यकता की थी जो काफी मजबूत हों ताकि दुर्गम यात्राओं को आसानी से पार किया जा सके। अतः वायुपोतों का निश्चित ढांचा होना जरूरी समझा गया। ऐसा दृढ़ वायुपोत बनाने का श्रेय जर्मनी के फर्डिनेंड वाॅन जे़पेलिन (Ferdinand von Zeppelin) को है।
जे़पेलिन ने एल्युमीनियम की तीलियों की मदद से एक ढांचा तैयार किया और उसके अंदर 15 अलग-अलग खानों में हाइड्रोजन भरे थैले रख दिए। ढांचे को चारों ओर से मजबूत कपड़े की चादर से ढक दिया गया ताकि हवा का दबाव सीधा हाइड्रोजन के थौलों पर न पड़े।
इस वायुपोत के नीचे लटकती हुई दोनों गाड़ियों में 15-16 अश्वशक्ति के पेट्रोल इंजन लगाये गए। जे़पेलिन का वायुपोत सन् 1900 के जून में 18 मील प्रति घंटे की रफ्तार से उड़ा। आगे चल कर ऐसे वायुयानों का चलन खूब बढ़ गया। जे़पलिन के नाम पर इन्हें ‘जे़पेलिन’ कहा जाने लगा।
प्रथम महायुद्ध में जे़पेलिन वायुपोतों का उपयोग बमों के गिराने के लिए किया गया। युद्ध के दौरान जर्मनी के जे़पेलिन पोतों ने लंदन पर बम वर्षा करके भारी तबाही मचा दी। फिर अमेरिका और इंग्लैंड ने भी ऐसे पोत बनाए। युद्ध की समाप्ति के बाद सैनिक आवश्यकताओं और यात्रियों को ले जाने के लिए भी जे़पेलिन पोतों का निर्माण हुआ।
हजारों मील की लंबी यात्राओं को बिना किसी बाधा के पार कर लेने में जे़पेलिन पोत बड़े कारगर साबित हुए। ब्रिटिश वायुपोत ‘आर-34’ ने सबसे पहले अटलांटिक महासागर पार किया। ब्रिटेन के ही वायुपोत ‘आर-101’ ने कई लंबी उड़ानें भरीं। 1930 में वह एक उड़ान में फ्रांस की किसी पहाड़ी से टकराकर जल गया। उस दुर्घटना में 48 लोगों की जानें गयी। जर्मन वायुपोत ‘ग्रैफ ज़ेपेलिन’ ने 1934 में सारी दुनिया का चक्कर लगाया।
जे़पेलिन वायुपोतों के निर्माण में जर्मनी सदा अग्रणी रहा है। जर्मनी ने ही सबसे विशाल वायुपोत ‘हिंडनबर्ग’ (Hindenburg) बनाया गया था जो 813 फुट लंबा और 135 फुट चैड़ा था। इसके इंजनों की शक्ति 4000 हार्स पावर के बराबर थी। ईंधन के लिए बिना रुके हुए हिंडनबर्ग 30 मील प्रति घंटे की रफ्तार से 8000 मील तक का सफर आसानी से तय कर सकता था। इसमें कैप्टन, पायलट सहित 90 आदमियों के बैठने की अच्छी व्यवस्था थी।
हिंडनबर्ग ने कई सफल उड़ान भरी पर 1937 में एक उड़ान के दौरान आग लग जाने से यह विशाल पोत भी आग की भेंट चढ़ गया। इस भीषण दुर्घटना में 35 व्यक्ति अपनी जान गवां बैठे। दुर्घटना का परिणाम यह हुआ कि जर्मन अधिकारियों ने ‘ग्रैफ जे़पेलिन’ की सेवाएं समाप्त कर दी। ‘ग्रैफ जे़पेलिन’ पोत 1928 में जर्मन जनता के चंदों से तैयार हुआ था। बिना किसी दुर्घटना के यह 1928 से लेकर 1937 तक अटलांटिक महासागर के आर-पार सवारियां ढोता रहा। ‘हिंडनबर्ग’ की दुर्घना से चिंतित होकर जर्मन अधिकारियों ने भयवश इसकी भी सेवाएं सदा के लिए समाप्त कर दी।
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