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रीति रिवाज और परम्परा तथा धर्म का फर्क जानिए

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ऊर्दू के रिवाज को हिन्दी में परंपरा और अंग्रेजी में ट्रेडिशन कहते हैं। हिन्दू धर्म में ऐसी हजारों परंपराएं जुड़ी हुई है जिसका धर्म से संबंधित या धर्म से निकला मानकर धर्म की आलोचना की जाती है। अधिकतर लोग यह मानते हैं कि रिवाज के पीछे धर्म का बहुत बड़ा हाथ होता है जबकि यह सही नहीं है।

रिवाज की उत्पत्ति स्थानीय लोक कथाओं, संस्कृति, अंधविश्वास, रहन-सहन, खान-पान आदि के आधार पर होती है। दरअसल लोगों की जिंदगी से संबंध रखने वाला काम रिवाज होता है। यह रिवाज़ एक जगह या वहाँ के लोगों के लिए आम होता है। जैसे खाने के वक्‍त लोगों का व्यवहार कैसा होना चाहिए और उन्हें दूसरों के साथ किस तरह पेश आना चाहिए, कपड़े कैसे पहनना चाहिए और क्या खाना चाहिये। जैसे राजस्थान में धोती और पगड़ी पहनने का रिवाज है तो तमिलनाडु में धोती या लुंगी। यह स्थानीय परंपरा और संस्कृति का हिस्सा है धर्म का नहीं। 

हालांकि बहुत से ऐसे रिजाव है जो पौराणिक कथाओं के आधार पर भी समाज में प्रचलित हो जाते हैं। बहुत से रिवाज ऐसे हैं जो हिन्दू धर्मग्रंथों के अनुसार सही नहीं है, जैसे सती प्रथा, दहेज प्रथा, मूर्ति स्थापना और विसर्जन, माता की चौकी, अनावश्यक व्रत-उपवास और कथाएं, पशु बलि, जादू-टोना, तंत्र-मंत्र, छुआछूत, ग्रह-नक्षत्र पूजा, मृतकों की पूजा, अधार्मिक तीर्थ-मंदिर, 16 संस्कारों को छोड़कर अन्य संस्कार आदि। 
 
अधिकतर रिवाजों को धर्म से जोड़ना उचित नहीं। अधिकतर रिवाज तो अंधविश्वास हैं जो हजारों वर्षों की परंपरा, भय और व्यापार के कारण समाज में प्रचलित हो गए हैं। इसीलिए ये रिवाज आज कोई धार्मिक मायने नहीं रखते। हिन्दू धर्म और रिवाजों में फर्क करना सीखना होगा।



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