( श्रीवास्तव सरिता )
आज के आधुनिकता की चकाचौध व अवैज्ञानिक सोच ने पूरी दुनिया के लोगो की जिन्दगी को नर्क से भी बदतर बनाकर रख दिया। जिसका नतीजा यह देखने को मिल रहा कि जहां पहले के लोगो की स्वस्थ्य रहने की आयु लगभग सौ वर्षो से ऊपर होता था। परन्तु आधुनिकता के दौर में पहले के लोगो द्वारा चलन में लाये जा रहे उपयोगी सामानो को हंसी का पात्र बनाकर उसे लगातर दरकिनार करते जा रहे। जिसका नतीजा आज यह देखने को मिल रहा है कि आज के समय में लोग 40 वर्ष की आयु पार करते ही तमाम तरह के बीमारियो से ग्रस्त होते जा रहे है। उनके अन्दर मानो जैसे बीमारियों से लछने की क्षमता विलुप्त होता जा रहा। जिसके वजह से आज के समय में लोग इन्ही बीमारियो के चलते असमय काल के गाल में समाते जा रहे।
आज हम बात करते है खड़ाऊँ की - क्या कभी आपने सोचा है कि प्राचीन काल में हमारे ऋषि-मुनी, तपस्वी और संत लोग लकड़ी की बनी खड़ाऊ पादुका ही क्यों पहनते थे। वे भी चाहते तो राजा-महाराजाओं की तरह विभिन्न् प्रकार के चर्म से बने जूते-चप्पल पहन सकते थे, लेकिन उन्होंने नहीं पहने। इसका कारण यह है कि ऋषि-मुनी और संत लोगों के पास अन्य लोगों की अपेक्षा अधिक ज्ञान, बुद्धि, विवेक और शक्ति होती थी। वो जो चाहे वह कर सकते थे, जहां चाहे वहां अपनी इच्छा मात्र से पहुंच सकते थे। त्रिकालदर्शी होते थे वे संत। उनकी शक्ति का प्रवाह भूमि की ओर न हो और वह उनकी देह में ही समाहित रहे इसलिए वे चर्म के जूते-चप्पल आदि नहीं पहनते थे। खड़ाऊँ पुरातन समय में हमारे पूर्वज पैरों में पहना करते थे। यह लकड़ी से बनी होती है। प्राचीन समय से ही भारत में ऋषि-मुनियों द्वारा यह पहनी जाती रही है। खड़ाऊँ जहाँ पहनने में बेहद हल्की होती हैं, वहीं दूसरी ओर यह काफी मजबूत भी होती है।
खड़ाऊ का महत्त्व-
पैरों में लकड़ी के खड़ाऊँ पहनने के पीछे भी हमारे पूर्वजों की सोच पूर्णतः वैज्ञानिक थी। गुरुत्वाकर्षण का जो सिद्धांत वैज्ञानिकों ने बाद में प्रतिपादित किया, उसे हमारे ऋषि-मुनियों ने काफी पहले ही समझ लिया था। इस सिद्धांत के अनुसार शरीर में प्रवाहित हो रही विद्युत तरंगे गुरुत्वाकर्षण के कारण पृथ्वी द्वारा अवशोषित कर ली जाती हैं। यदि यह प्रक्रिया निरंतर चलती रहे तो शरीर की जैविक शक्ति समाप्त हो जाती है। इसी जैविक शक्ति को बचाने के लिए हमारे पूर्वजों ने पैरों में खड़ाऊँ पहनने की प्रथा प्रारंभ की, जिससे शरीर की विद्युत तंरगों का पृथ्वी की अवशोषण शक्ति के साथ संपर्क न हो सके। इसी सिद्धांत के आधार पर खड़ाऊँ पहनी जाने लगी।
धार्मिक एवं सामाजिक महत्व-
पुराने समय में चमड़े का जूता कई धार्मिक और सामाजिक कारणों से समाज के एक बड़े वर्ग को मान्य नहीं था और कपड़े के जूते का प्रयोग हर कहीं सफल नहीं हो पाया। जबकि लकड़ी के खड़ाऊँ पहनने से किसी धर्म व समाज के लोगों को आपत्ति नहीं थी। इसीलिए यह अधिक प्रचलन में आई। कालांतर में यही खड़ाऊँ ऋषि-मुनियों के स्वरूप के साथ जुड़ गई और उनकी मुख्य पहचान भी बन गई। किसी भी साधु-संत के लिए यह आवश्यक है कि वह लकड़ी के खड़ाऊँ धारण करे।
प्राचीन ऋषि मुनि -
किसी पशु की चर्म से बने जूते नकारात्मक शक्तियां खींचते हैं इसलिए प्राचीन ऋषि उनका इस्तेमाल नहीं करते थे। आज भी अनेक विद्वान संत लकड़ी की पादुकाएं ही पहनते हैं, जिन्हें खड़ाऊ भी कहते हैं। आजकल की आधुनिक लाइफ स्टाइल में लोग तरह-तरह के जूते-चप्पल आदि पहनते हैं, वे स्वास्थ्य के लिए बेहद हानिकारक होते हैं।
सकारात्मक ऊर्जा को बढ़ाती है खड़ाऊ-
खड़ाऊ पादुका पहनने वाले रिलैक्स रहते हैं। पांव की तंत्रिकाएं जब प्राकृतिक रूप से बनी पादुका के साथ जुड़ी रहती हैं तो यह शरीर में सकारात्मक ऊर्जा को बढ़ाती है। इससे शरीर में प्रतिरोधक क्षमता में बृद्ध होता है जिससे रोगों खात्मा आसानी के साथ होता है। पादुकाएं अनेक प्रकार की लकड़ियों से बनती हैं, जिनका शरीर पर अलग-अलग तरह से असर होता है। आम की लकड़ी से बनी पादुकाएं धार्मिक कार्यों में पहनी जाती हैं। इन्हें पहनने से शरीर में सकारात्मक ऊर्जा का प्रवाह नीचे से ऊपर की ओर जाता है, जो मस्तिष्क को तरोताजा रखती है ।
महिलाएं और युवतियां -
खासकर महिलाएं और युवतियां हाई हील के सैंडल, चप्पल आदि पहनती हैं जो न सिर्फ उनके पैरों के लिए बल्कि उनके शरीर का संतुलन बिगाड़ने का काम भी करते हैं। लेकिन फैशन के चक्कर में वे अपनी सेहत से भी समझौता कर लेती है। यही नही यदि गर्भवती महिलाये यदि हाई हील के सैंडल, चप्पल आदि पहनती तो उन्हे प्रसव के समय कठिनाइयों के दौर से गुजरना पडता हंे जिसका अन्तोगत्वा नतीजा यह होता है कि उनके बच्चे आपरेशन के द्वारा पैदा होना सम्भव होता हंे हालांकि अब कई लोग लकड़ी की पादुका की अपना रहे हैं। आजकल की लाइफ स्टाइल में रोज तो इन्हें पहनना संभव नहीं है लेकिन जब भी मौका मिले घर में ही लकड़ी की खड़ाऊ पादुका पहन लेना चाहिए।
तंत्रिका तंत्र मजबूत बनाता खड़ाऊ -
सागवान की लकड़ी से बनी पादुकाएं मजबूत होती हैं। इन्हें पहनने से शरीर की तंत्रिका तंत्र मजबूत बनता है। रोग प्रतिरोधक शक्ति बढ़ती है। नीम की लकड़ी से बनी पादुकाएं पहनने से शरीर के बैक्टीरिया समाप्त होते हैं और इन्हें पहनने वाला व्यक्ति निरोगी रहता है। बबूल की लकड़ी से बनी पादुकाओं से हड्डियों को मजबूती प्रदान करती हैं। इन्हें पहनने से शरीर का संतुलन सुधरता है। पीपल की लकड़ी से बनी पादुकाएं पहनने से शरीर का रक्त प्रवाह सुधरता है। इससे स्किन संबंधी रोग दूर होते हैं।
खड़ाऊ पहनने के अन्य फायदे-
- खड़ाऊ (पादुका) किसी जानवर की चमड़ी से नहीं बनी होती है, इसलिए यह पूर्णतया शुद्ध होती है।
- इसे बनाने में कई तरह की लकड़ियों का प्रयोग किया जाता है, जो हमारे पैरों की त्वचा को कोई नुकसान नहीं पहुंचाती।
- पादुका पहनने से हमारे शरीर का संतुलन बेहतर बनता है, इसे पहनकर चलने वालों की शारीरिक मुद्रा बिलकुल सही और आकर्षक होती है।
- पादुका पहनने से हमारे पैरों के उन प्वाइंट्स पर प्रेशर बनता है जो एक्युप्रेशर के लिहाज से बिलकुल सही हैं।
- यदि इन प्वाइंट्स पर प्रेशर बनता रहे तो शरीर के कई रोग अपने आप ही नष्ट हो जाते हैं।
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