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रावल की रेल कमलेश्वर

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तो दोस्तो, हुआ ऐसा कि मैं कच्छ के दिशाहारा रेगिस्तान की यात्रा से ध्वस्त और त्रस्त किसी तरह भुज (गुजरात) पहुँचा। स्टेशन के अलावा और कोई भरोसे की जगह नहीं थी, इसलिए वहीं चला गया।

स्टेशन पर मीटर गेज की एक बड़ी ख़ूबसूरत साफ-सुथरी गाड़ी खड़ी थी। मैंने ऐसी रेल पहले नहीं देखी थी। पूछा तो लोगों ने बताया, यह 'रावल की रेल' है। कच्छ के रेगिस्तान से लौटते हुए मैं भूगोल भूल चुका था। थकान से त्रस्त था। 'रावल की रेल” को देखा तो लगा कि यह कहीं तक तो पहुँचाएगी।

कुछ देर स्टेशन की एक बैंच पर आराम करने के बाद मैंने रेल का निरीक्षण किया। उसमें तीन ही डिब्बे और एक पुरातन-सा खूबसूरत इंजिन था। मैंने देखा कि तीन डिब्बों में एक फ़र्स्ट क्लास, दूसरा सैकिण्ड क्लास और तीसरा थर्ड क्लास था। पर तीनों श्रेणियों की यात्री सुविधाओं में कोई अन्तर नहीं था।

जो सुविधाएँ फर्स्ट क्लास में थीं, बिल्कुल वही सुविधाएँ सैकिण्ड और थर्ड क्लास में थीं।

मैं टिकट खिड़की पर गया तो पता चला कि सुविधाएँ समान होते हुए भी फर्स्ट क्लास का किराया पचास रुपया, सैकिण्ड का तीस और थर्ड क्लास का किराया सिर्फ पन्द्रह रुपया था। मैंने बुकिंग क्लर्क से किराये में इस अन्तर का कारण पूछा तो वह बोला-जिस क्लास का टिकट खरीदना हो, खरीद के बैठ जाइए, बाद में पता चल जाएगा।

-क्या मतलब? तीनों श्रेणियों में सुविधाएँ समान, पर टिकिट की कीमत अलग-अलग!

तो बुर्किंग क्लर्क ने कहा-बहस मत कीजिए। जिस क्लास का टिकट चाहिए, ले लीजिए....
-लेकिन टिकिट की कीमतों में यह अन्तर!
-कहा न, टिकिट लीजिए और बैठ जाइए, बाद में पता चल जाएगा!

जाहिर है कि मैं थर्ड क्लास का टिकिट लेकर 'रावल की रेल' में बैठ गया। इंजिन ने बड़ी कर्णप्रिय सीटी दी और कुछ साँसे भरीं। रावल की रेल चल पड़ी। वह बड़ी मधुर गति से चली जा रही थी। दस-बारह किलोमीटर के बाद रेल की साँसें फूलने लगीं। इंजिन ने मधुर सीटियाँ दीं। गहरी-गहरी साँसें लीं, पर रेल आगे नहीं बढ़ सकी। पता चला कि सामने ऊँची चढ़ाई है, उस चढ़ाई पर इंजिन तमाम उसाँसें फेंकने के बाद भी नहीं चढ़ पा रहा है।

और इसके बाद एक सीटी सुनाई दी। यह गार्ड साहब की सीटी थी। वे सीटी बजाकर यात्रियों को मुखातिब कर रहे थे-

यात्री बन्धुओ! इंजिन इस चढ़ाई को पार नहीं कर पा रहा है, इसलिए बोझ कम करना जरूरी है। ध्यान से सुनिए-फ़र्स्ट क्लास के पैसिंजर बैठे रहें, सैकिण्ड क्लास के पैसिंजर उतर कर ट्रेन के साथ-साथ चलें और थर्ड क्लास के पैसिंजर उतर कर गाड़ी को धक्का लगाएँ!

तो दोस्तो! यही है अपने लोकतन्त्र की सच्चाई...हम और आप सब अपने लोकतन्त्र की रेल में थर्ड क्लास के यात्री हैं...अपने लोकतन्त्र को चलाने और जीवित रखने के लिए थर्ड क्लास के यात्रियों की बड़ी जरूरत है, नहीं तो यह लोकतन्त्र-रावल की रेल-नहीं चल सकती।

(‘महफ़िल’ से)

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