सातवीं पुतली कौमुदी ने जो कथा कही वह इस प्रकार है-
एक दिन राजा विक्रमादित्य अपने शयन-कक्ष में सो रहे थे। अचानक उनकी नींद करुण-क्रन्दन सुनकर टूट गई। उन्होंने ध्यान लगाकर सुना तो रोने की आवाज नदी की तरफ से आ रही थी और कोई स्री रोए जा रही थी। विक्रम की समझ में नहीं आया कि कौन सा दुख उनके राज्य में किसी स्री को इतनी रात गए बिलख-बिलख कर रोने को विवश कर रहा है। उन्होंने तुरन्त राजपरिधान पहना और कमर में तलवार लटका कर आवाज़ की दिशा में चल पड़े। क्षिप्रा के तट पर आकर उन्हें पता चला कि वह आवाज़ नदी के दूसरे किनारे पर बसे जंगल से आ रही है। उन्होंने तुरन्त नदी में छलांग लगा दी तथा तैरकर दूसरे किनारे पर पहुँचे। फिर चलते-चलते उस जगह पहुँचे जहाँ से रोने की आवाज़ आ रही थी। उन्होंने देखा कि झाड़ियों में बैठी एक स्री रो रही है।
उन्होंने उस स्री से रोने का कारण पूछा। स्री ने कहा कि वह कई लोगों को अपनी व्यथा सुना चुकी है, मगर कोई फायदा नहीं हुआ। राजा ने उसे विश्वास दिलाया कि वे उसकी मदद करने का हर संभव प्रयत्न करेंगे। तब स्री ने बताया कि वह एक चोर की पत्नी है और पकड़े जाने पर नगर कोतवाल ने उसे वृक्ष पर उलटा टँगवा दिया है। राजा ने पूछा क्या वह इस फैसले से खुश नहीं है। इस पर औरत ने कहा कि उसे फैसले पर कोई आपत्ति नहीं है, लेकिन वह अपने पति को भूखा-प्यासा लटकता नहीं देख सकती। चूँकि न्याय में इस बात की चर्चा नहीं कि वह भूखा-प्यासा रहे, इसलिए वह उसे भोजन तथा पानी देना चाहती है।
विक्रम ने पूछा कि अब तक उसने ऐसा किया क्यों नहीं। इस पर औरत बोली कि उसका पति इतनी ऊँचाई पर टँगा हुआ है कि वह बगैर किसी की सहायता के उस तक नहीं पहुँच सकती और राजा के डर से कोई भी दण्डित व्यक्ति की मदद को तैयार नहीं होता। तब विक्रम ने कहा कि वह उनके साथ चल सकती है। दरअसल वह औरत पिशाचिनी की और वह लटकने वाला व्यक्ति उसका पति नहीं था। वह उसे राजा के कन्धे पर चढ़कर खाना चाहती थी। जब विक्रम उस पेड़ के पास आए तो वह उस व्यक्ति को चट कर गई। तृप्त होकर विक्रम को उसने मनचाही चीज़ मांगने को कहा। विक्रम ने कहा वह अन्नपूर्णा प्रदान करे जिससे उनकी प्रजा कभी भूखी नहीं रहे। इस पर वह पिशाचिनी बोली कि अन्नपूर्णा देना उसके बस में नहीं, लेकिन उसकी बहन प्रदान कर सकती है। विक्रम उसके साथ चलकर नदी किनारे आए जहाँ एक झोपड़ी थी।
पिशाचिनी के आवाज़ देने पर उसकी बहन बाहर निकली। बहन को उसने राजा का परिचय दिया और कहा कि विक्रमादित्य अन्नपूर्णा के सच्चे अधिकारी है, अत: वह उन्हें अन्नपूर्णा प्रदान करे। उसकी बहन ने सहर्ष अन्नपूर्णा उन्हें दे दी। अन्नपूर्णा लेकर विक्रम अपने महल की ओर रवाना हुए। तब तक भोर हो चुकी थी। रास्ते में एक ब्राह्मण मिला। उसने राजा से भिक्षा में भोजन माँगा। विक्रम ने अन्नपूर्णा पात्र से कहा कि ब्राह्मण को पेट भर भोजन कराए। सचमुच तरह-तरह के व्यंजन ब्राह्मण कि सामने आ गए। जब ब्राह्मण ने पेट भर खाना खा लिया तो राजा ने उसे दक्षिणा देना चाहा। ब्राह्मण अपनी आँखों से अन्नपूर्णा पात्र का चमत्कार देख चुका था, इसलिए उसने कहा- "अगर आप दक्षिणा देना ही चाहते है तो मुझे दक्षिणास्वरुप यह पात्र दे दें, ताकि मुझे किसी के सामने भोजन के लिए हाथ नहीं फैलाना पड़े।" विक्रम ने बेहिचक उसी क्षण उसे वह पात्र दे दिया। ब्राह्मण राजा को आशीर्वाद देकर चला गया और वे अपने महल लौट गए।
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