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हलषष्ठी व्रत के पौराणिक एवं प्रचलित व्रत कथा

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भादो मास के कृष्ण पक्ष के छठी तिथि पर षष्ठी पर्व मनाने की परंपरा है। महिलाओं के लिए यह एक विशेष पर्व माना जाता है। जो हिन्दू धर्म में गांव से लेकर शहर तक बड़ी संख्या में महिलाएं एकजुट होकर षष्ठी माता के गीत के साथ मनाती हैं। जिसमें घर के किसी एक स्थान पर दीवार पर षष्ठी मइया का प्रतिबिंब स्थापित कर उन्हें सिंदूर आदि चढ़ाया जाता है। तत्पश्चात आरती व मंगल गीत का भी प्रचलन है। संतान के लम्बी उम्र के लिए महिलाएं रखती हैं व्रतःअगस्त माह होने वाली इस षष्ठी व्रत में माता की पूजा अर्चना कर परिवार में खुशहाली तथा संतान की लंबी उम्र की कामना की जाती है। षष्ठी पूजन के दौरान महुआ का सबसे ज्यादा महत्व दिया गया है। इस पूजन में विशेष रूप से महुए के पत्तों पर महुए का फूल मिठाई व पसहर चावल (तिन्नी) का ही षष्ठी मइया को भोग लगाए जाने की परंपरा है। तथा इसी चावल से ही महिलाएं अपना व्रत भी तोड़ती है। वैसे तो तिन्नी का चावल तालाब पोखर के किनारे पर अपने आप ही उग आते हैं। लेकिन बारिश ज्यादा होने के कारण बाजारों में  डेढ़ सौ रुपए प्रति किलो तक खरीद हुई। षष्ठी व्रत में हल बैलों द्वारा खेतों में पैदा हुए अन्न का उपयोग वर्जित माना गया है। इसलिए इसे हलषष्ठी कहा जाता है। तथा इसी दिन बलराम का जन्म हुआ था। तथा उनके विशेष रूप उनके हल को महत्व देते हुए बिना हल चलाए ही पैदा हुए अन्न का उपयोग होता है। ऐसा माना जाता है कि जब माता देवकी के छह पुत्रों को कंस ने मार डाला था। तब पुत्र की रक्षा के कामना हेतु भादो  कृष्ण पक्ष की षष्ठी तिथि को षष्ठी देवी की आराधना करते हुए व्रत रखा था। अन्य कथा के अनुसार अभिमन्यु की पत्नी उत्तरा ने भी अपने पुत्र परीक्षित के लिए भी यह व्रत रखा था।

प्रचलित व्रत कथा-
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भाद्रपद माह के कृष्ण पक्ष की षष्ठी को यह पर्व भगवान श्रीकृष्ण के ज्येष्ठ भ्राता श्री बलरामजी के जन्मोत्सव के रूप में मनाया जाता है। इसी दिन श्री बलरामजी का जन्म हुआ था। प्राचीन काल में एक ग्वालिन थी। उसका प्रसवकाल अत्यंत निकट था। एक ओर वह प्रसव से व्याकुल थी तो दूसरी ओर उसका मन गौ-रस (दूध-दही) बेचने में लगा हुआ था। उसने सोचा कि यदि प्रसव हो गया तो गौ-रस यूं ही पड़ा रह जाएगा।

यह सोचकर उसने दूध-दही के घड़े सिर पर रखे और बेचने के लिए चल दी किन्तु कुछ दूर पहुंचने पर उसे असहनीय प्रसव पीड़ा हुई। वह एक झरबेरी की ओट में चली गई और वहां एक बच्चे को जन्म दिया।

वह बच्चे को वहीं छोड़कर पास के गांवों में दूध-दही बेचने चली गई। संयोग से उस दिन हल षष्ठी थी। गाय-भैंस के मिश्रित दूध को केवल भैंस का दूध बताकर उसने सीधे-सादे गांव वालों में बेच दिया।

उधर जिस झरबेरी के नीचे उसने बच्चे को छोड़ा था, उसके समीप ही खेत में एक किसान हल जोत रहा था। अचानक उसके बैल भड़क उठे और हल का फल शरीर में घुसने से वह बालक मर गया। इस घटना से किसान बहुत दुखी हुआ, फिर भी उसने हिम्मत और धैर्य से काम लिया। उसने झरबेरी के कांटों से ही बच्चे के चिरे हुए पेट में टांके लगाए और उसे वहीं छोड़कर चला गया।

कुछ देर बाद ग्वालिन दूध बेचकर वहां आ पहुंची। बच्चे की ऐसी दशा देखकर उसे समझते देर नहीं लगी कि यह सब उसके पाप की सजा है। वह सोचने लगी कि यदि मैंने झूठ बोलकर गाय का दूध न बेचा होता और गांव की स्त्रियों का धर्म भ्रष्ट न किया होता तो मेरे बच्चे की यह दशा न होती। अत: मुझे लौटकर सब बातें गांव वालों को बताकर प्रायश्चित करना चाहिए। ऐसा निश्चय कर वह उस गांव में पहुंची, जहां उसने दूध-दही बेचा था। वह गली-गली घूमकर अपनी करतूत और उसके फलस्वरूप मिले दंड का बखान करने लगी। तब स्त्रियों ने स्वधर्म रक्षार्थ और उस पर रहम खाकर उसे क्षमा कर दिया और आशीर्वाद दिया। बहुत-सी स्त्रियों द्वारा आशीर्वाद लेकर जब वह पुन: झरबेरी के नीचे पहुंची तो यह देखकर आश्चर्यचकित रह गई कि वहां उसका पुत्र जीवित अवस्था में पड़ा है। तभी उसने स्वार्थ के लिए झूठ बोलने को ब्रह्म हत्या के समान समझा और कभी झूठ न बोलने का प्रण कर लिया।

हल छठ व्रत का महत्व
हल छठ व्रत महिलाएं अपनी संतान की लंबी आयु और सुखमय जीवन के लिए रखती हैं। ऐसी मान्यता है कि इस दिन बलराम जी और हल की पूजा करने से संतान को लंबी आयु प्राप्त होती है और वह जीवन भर सुखी रहता है। बलराम जी की अस्त्र हल है, इसलिए इस दिन हल की पूजा करने का विधान है। हल के कारण ही इसे हल छठ कहा जाता है।

पूजा विधि
इस दिन महलाएं निर्जला व्रत रखती हैं। इस व्रत में शाम के समय पूजा का विधान है। शाम को महिलाएं एक प्रतिकात्मक तालाब बनाती हैं। पूजा के लिए पलाश और कांस की टहनियों को एक साथ बांधा जाता है। फिर चना, गेहूं, धान, जौ, मूंग, मक्का, महुआ आदि को बांस के एक पात्र में रख लेते हैं। इसके बाद दूध और गंगा जल से षष्ठी देवी की पूजा-अर्चना की जाती है। वहां पर चौक बनाकर हल छठ को स्थापित करते हैं और उसे जनेऊ अर्पित करते हैं तथा विधि विधान से उसकी पूजा करते हैं। इस व्रत में महिलाओं को भैंस के दूध, दही और घी का प्रयोग करना होता है। इसमें गाय के दूध और दही का प्रयोग वर्जित है। इस व्रत के पारण में महिलाएं भैंस के दूध से बना दही और महुआ का सेवन करती हैं।

प्रार्थना मन्त्र –
गंगाद्वारे कुशावर्ते विल्वके नीलेपर्वते।
स्नात्वा कनखले दे
वि हरं लब्धवती पतिम्‌॥
ललिते सुभगे देवि-सुखसौभाग्य दायिनि।
अनन्तं देहि सौभाग्यं मह्यं, तुभ्यं नमो नमः॥

अर्थात हे देवि ! आपने गंगाद्वार, कुशावर्त, विल्कल, नीलापर्वत और कनखल तीर्थ में स्नान करके भगवान शंकर को पति के रूप में प्राप्त किया है । सुख और सौभाग्य देने वाली ललिता देवि आपको बारम्बार नमस्कार है, आप मुझे अचल सुहाग दीजिये।

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