श्रीमान सुंदरम पिल्लै के कान टेलीफोन की घंटी सुनकर झन्ना गए। वे इस समय मुंबई सरकार की विद्युत् योजना के ज्ञापन--पत्र के तीसरे पन्ने का चौथे अनुच्छेद का अनुवाद कर रहे थे। उन्होंने 'है' शब्द पर अपना वाक्य समाप्त किया, लेकिन टेलीफोन की घंटी लगातार बजती रही।
टेबल पर रखे कागजों को समेटकर कंपोजिंग--रूम तक ले जाते हुए वेडिवेलु के कदम सहसा रुक गए और उसने लौटकर फोन उठाया, “हैलो, कौन है? '' आशंका भरे स्वर से उसने पूछा।
“यह महत्त्वपूर्ण योजना केवल मुंबई के लिए ही नहीं है, बल्कि...” कागजों में लीन सुंदरम पिल्लै को रिसीवर देते हुए उसने कहा, ''सर, फोन।”!
सुंदरम पिल्लै ने सावधानी के साथ कलम को मेज पर रखा और दफ्ती को मेज पर टिकाया। रूमाल ढूँढ़ने के लिए एक ओर झुककर वे झोले की पड़ताल करने लगे। लेकिन उन्हें वहाँ रूमाल नहीं मिला। अंत में पेपर वेट के नीचे दबे रुमाल से उन्होंने माथे का पसीना पोंछा। शर्ट की बाँह ऊपर करते हुए, “कौन? क्या कहा, कहानी? आप क्या बात करते हैं? आज ही शाम को? तैयार समझिए।'' फोन पर बात समाप्त करके फिर से मुंबई प्रांत की विद्युत् योजना के काम में जुट गए।
पिल्लै ने आदेशात्मक स्वर में कहा, “वडिवेलु, प्रूफ।” इसके बाद रंग उड़ी हुई मसालेदानी को, जिसे उन्होंने प्यार से 'पानदान' का नाम दे रखा था, उठाकर पान लगाने लगे। पान लगाना उनके लिए रिवाज नहीं, महायज्ञ है।
उनके पानदान में प्रत्येक सामग्री के लिए स्थान निश्चित है, जिस प्रकार देवताओं की प्रतिष्ठा के लिए दिशा निश्चित की जाती है। लेकिन यह कल्पना भी सरासर गलत है कि सामग्री निर्धारित स्थान पर ही मिलेगी।दरअसल पिल्लैजी का विचार है, हर वक्त आदमी के पास समस्त सुविधाएँ नहीं रहतीं, इसलिए उन्हें अपने को गलत समझे जाने का दुःख नहीं होता था।
'चूना' का स्थान सदा दक्षिण दिशा अर्थात् यमराज की दिशा में होता था, जो सूखे ढेले की शक्ल में विराजमान रहता था। पिललैजी एक--एक पान उठाकर, उसके डंठल निकालते, उस पर चूना लगाते और फिर सुपारी या उसके नाम का चूड़ा डालकर पान को बीड़ा की शक्ल देकर अपने मुँह में डाल लेते।
इसके बाद तंबाकू की तलाश शुरू हो जाती। अकसर बह तंबाकू उनके पास बैठे सहयोगी के पास होती और बिना किसी औपचारिकता के वे वह पुड़िया उठा लेते। कुरसी पर बैठते हुए सारी तंबाकू मुँह के अंदर और कागज कूडेदान में होता। यही उनकी दिनचर्या है।
उस दिन भी वे अपने सहयोगी की मेज पर जा पहुँचे। मित्र ने झुँझलाते हुए कहा, “क्यों बंधु आ गए? मेरे पास भी बस एक वक्त के लायक ही है।'” तंबाकू मुँह में डालने तक पिल्लै ने उसकी बातों पर ध्यान नहीं दिया। फिर कहा, “अरे, खत्म हो गई, मैं अभी मँगा देता हूँ।'' फिर मध्यम चाल से अपनी मेज तक आकर किताबों में लीन हो गए।
“सर, जरा प्रूफ पढ़ दीजिए। पेज बनाना है।'' सम्मान देने के अंदाज में वडिवेलु ने कहा।
पिल्लै का ध्यान भंग हुआ तो वे गुर्राए--'' अरे प्रूफ, कहाँ है? लाकर तो दो।''
वडिवेलू ने प्रूफ हाथ में पकड़ाते हुए कहा, '' मैं यहीं रख गया था।''
श्रीमान सुंदरम ने पन्नों को पलटते हुए मात्राओं, विराम--चिह्नों को सुधारा और अपने हस्ताक्षर कर दिए।
फिर वडिवेलु के हाथ में उसे देकर दोबारा किताब में लीन हो गए।
पुनः टेलीफोन की घंटी टनटना उठी, उस समय घड़ी में तीन बज रहे थे।
“हैलो! कौन...? आप एक घंटे में लड़के को भेज दीजिए। कितने पृष्ठ हैं? चार? हाँ, हो जाएगा..., ले लाउट कर दीजिए.. तब मैं खुद ही लेता आऊँगा; लड़के को भेज दिया है? तब मैं यहीं मिल जाऊँगा,'' कहते हुए कलम और कागज हाथ में उठा लिया और लिखने की मुद्रा में बैठ गए। मन नहीं लगा। सारी चीजें छोड़कर उँगलियाँ चटकाने लगे। एक लंबी जम्हाई ली और अपनी पूर्वावस्था में आ गए। मेज की दराज खोलकर पान बनाया और फिर तंबाकू खाकर बस 'चुस्त' हो गए।
पिल्लै ने लिखना शुरू किया--'एक नगर में एक राजा था...' फिर अपनी लेखनी को विराम दे दिया। वे इधर --उधर टहलने लगे। कुछ देर बाद...
'वह कहानियों का शौकीन था। अपने दुश्मन राजा के पास दूत भेजकर पुछवाया कि क्या वह कहानी सुनाना जानता है...।'
फिर इतना लिखकर उसने बरामदे में आकर पान की पीक फेंकी और मुँह साफ किया। एक गिलास पानी पीकर पुन: लिखना शुरू किया।
'...राजा के मंत्री को कहानियाँ बिल्कुल नापसंद थीं। लेकिन राजा कहानियों के शौक के कारण अपना सारा राज्य खोकर एक छोटा सा नवाब मात्र रह गया। मंत्री ने राजा को समझाने का एक उपाय खोजा।'
'सरकारी नीति के अनुसार योजना तैयार करने के लिए एक विशेष कमेटी गठित करने का निश्चय किया गया।'
पिल्लै कलम बंद कर पुन: सोचने लगा।
'...इस विशेष कमेटी के लिए ब्रिटेन से कानून विशेषज्ञ, कथा विशेषज्ञ तथा ब्रिटिश रॉयल चिकित्सा संघ से चिकित्सा विशेषज्ञ को बुलवाने का निश्वय किया गया। चूँकि इस विशेष खर्च के लिए राजकोष में पर्याप्त धन नहीं था, अत: इस बात पर विचार किया गया कि नए कर लगाए जाएँ या कर्ज लिया जाए।
बड़े राजा को इस बात की भनक लग गई। उसने मंत्री को आदेश भेजा कि राज्य के नियमों के अनुसार उसे ऐसा करने का कोई अधिकार नहीं है।
'मंत्री ने गंभीरता से विचार किया और इस योजना को स्थगित करना ही उचित समझा।'
इसी बीच बड़े राजा ने छोटे राजा को सम्मानार्थ एक लाख पृष्ठों की एक कहानी की पुस्तक भेंट की। लाख पृष्ठों की पुस्तक देखकर राजा की आँखों में आँसू भर आए कि उम्र के इस पड़ाव में वह यह पुस्तक पूरी नहीं पढ़ सकता।
राज्य के कर्मचारी और प्रजा ने राजा के प्रति सहानुभूति जताई। लेकिन मंत्री पेड़ की तरह अचल रहा।'
उसने वाक्य को फिर से लिखा--पेड़ की तरह...।
कहानी की स्वगति देखकर सुंदरम पिल्लै ने संतोष की साँस ली।
कहानी के अगले मोड़ पर प्रधानमंत्री का शिरोच्छेदन करवाया और तभी उन्हें विश्वास हो गया कि कहानी की आत्मा मर चुकी है। अब अगला चरण उसे जीवित करने का प्रयास था। इसके लिए दो उपाय किए जा सकते थे या तो परमशिव को आह्वान किया जा सकता था या फिर जादूगर बुलाकर राजा की बेटी से उसकी शादी कराई जा सकती थी। अभी यह विचार--मंथन चल ही रहा था कि संपादक ने कमरे में प्रवेश किया, “'क्यों सर, खत्म हो गई?"
"आप तो लड़के भेजनेवाले थे।” कहते हुए सुंदरम उठ खड़े हुए।
मित्र मेज पर पड़े कागजों को पलटने लगे-- 'लड़के के हाथ आप ही भेज देते।' उसने सोचा।
“बस, इतना ही, पोस्टर अक्षरों में छापा जाए, तब भी चार पन्ने नहीं भरेंगे। इसका क्या मतलब है?"
"आप ही बताइए?"
“अच्छा चलिए, कॉफी पीकर आते हैं” मित्र ने कहा।
“फिर लौटे क्यों, वहीं से घर चलते हैं।” सुंदरमजी ने कहा।
“वहाँ जाकर लिखेंगे।” मित्र ने पूछा।
"यह तो वहाँ जाकर सोचते हैं।'' पिल्लै सब समेटकर दराज बंद करने लगे। मित्र भी जाने के लिए तैयार हो गए।
"एक मिनट, जरा पान खा लें, तब चलते हैं।” सुंदरम बैठ गए।
पान खाना खत्म हुआ।
“बस, एक मिनट'', कहते हुए वाक्य पूरा किया।
“राजा ने मंत्री को यह दंड दिया कि उसे उनकी पढ़ी हुईं सारी कहानियों को पढ़ना होगा।”
“इस प्रकार का अंत कैसा लगेगा? !" पिल्लै ने पूछा।
मित्र सचमुच झुँझला गए और कहा, '' अब किसी तरह करिए, मेरे पास एक बड़ी कूड़ेदानी रखी है।''
“वह तो मेरे पास भी है।'' पिल्ले ने कहा।
कहानी के राजा और मंत्री, प्रांतीय विद्युत् योजना के साथ मसलकर फेंक दिए गए।
(पुदुमैपित्तन का मूल नाम वृद्धाचलम् है। उनका जन्म 25 अप्रैल, 1906 को हुआ और 20 जून, 1948 को वे असमय स्मृति शेष हुए। वे उपनाम 'पुदुमैपित्तन' से प्रसिद्ध हुए तथा अपने समय के लोकप्रिय प्रगतिवादी कथाकार थे। कथा साहित्य में नए शिल्प विधान, अनूठा अभिव्यंजन, सशक्त शब्द-- विन्यास एवं विलक्षण शैली के प्रस्तुतीकरण दुवारा उन्होंने कई मौलिक प्रयोग किए। मुख्यतः आंचलिक शैली को अपनाने का श्रेय उन्हीं को है। उनके कथा-- स्रोत पीड़ित, दलित, दीन -हीन वर्गों में से ही अधिक फूटे। उनकी कहानियाँ अपने समय की सामाजिक विकृतियों, अंधविश्वासों और स्वार्थी छलनाओं को प्रतिबिंबित करती हैं। उनकी प्रकाशित रचनाओं में उल्लेखनीय हैं: आठ कथा-संग्रह, एक कविता-संग्रह, दो नाटक, एक लघु उपन्यास और तीन अनुवाद (अंग्रेजी से) ।)
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