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अध्यक्ष महोदय (मिस्टर स्पीकर) (व्यंग्य)- हरिशंकर परसाई

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विधानमंडलों में थोड़ी नोंक-झोंक, दिलचस्प टिप्पणी, रिमार्क, हल्की-फुल्की बातें सब कहीं चलती हैं। जब अंग्रेज सरकार थी, तब केंद्र में 'सेंट्रल असेंबली' थी। इसमें बड़े जबरदस्त लोग थे। सरदार वल्लभ भाई पटेल के बड़े भाई विट्ठल भाई पटेल अध्यक्ष थे। असेंबली के अधिवेशन के पहले उन्होंने देखा, मेरा अध्यक्ष का आसन नीचे है और ब्रिटिश वायसराय का ऊपर। विट्ठल भाई ने एतराज किया कि अध्यक्ष मैं हूं। आपकी कुर्सी मेरी कुर्सी से ऊंचे पर नहीं हो सकती। आखिर वायसराय का आसन बराबरी पर किया गया।

इस असेंबली में बड़े ऊंचे व्यक्तित्व थे। एस। सत्यमूर्ति और मोहम्मद अली जिन्ना जैसे लोग थे। मोतीलाल नेहरु थे। जिन्ना जब पहली बार बोलने को खड़े हुए तो उन्होंने कहा- मिस्टर चेयरमैन, दिस इस माई मेडन स्पीच। अंग्रेजी में 'मेडन' के दो अर्थ होते हैं। पर सत्यमूर्ति ने तपाक से कहा- मेडन्स शुड बी मॉडेस्ट! कुमारियों को शर्मीली होना चाहिए। तब एक अब्दुल कयूम खां भी सदस्य थे। घोर काले थे। उन्हें 'कोयले की खदान का कुली' कह देते थे और वे बुरा नहीं मानते थे। गंभीर सदस्यों में हल्की- फुल्की छेड़छाड़ अच्छी रहती है। प्रो।हीरेन मुखर्जी ने अपनी पुस्तक 'पोर्टेट ऑफ पार्लियामेंट' में एक घटना लिखी है। डॉ। श्यामा प्रसाद मुख़र्जी कांग्रेस सरकार की आलोचना कर रहे थे। एक कांग्रेसी मंत्री ने खड़े होकर कहा- आपको सच्चाई भी देखनी चाहिए। श्यामा प्रसाद ने कहा- मैं सच्चाई कैसे देख सकता हूं, जब आप मेरे सामने खड़े हैं।

इंदिरा गांधी प्रधानमंत्री थीं। अरब के शाह ने उन्हें हीरों का हार भेंट किया था। ऐसे उपहार व्यक्तिगत नहीं होते। वे सरकारी खजाने में रख दिए जाते हैं। लोहिया ने हंगामा खड़ा कर दिया था संसद में- गर्दन का वह हार कहां है। लोहिया के बाद एस।ए।डांगे बोले- मैं उन लोगों में नहीं हूं जो प्रधानमंत्री की गरदन देखते रहते हैं। मैं उनकी गरदन के ऊपर देखता हूं कि उनके दिमाग में क्या है। फिर डांगे दूसरे विषय पर बोले।

हमारे यहां आम शिकायत है कि हमारी विधायिकाओं का स्तर बहुत गिर गया है। लोग याद करते हैं, पंडित नेहरु के जमाने की संसद की और आज की संसद की गिरावट पर चिंतित हैं। नेहरु के समय जो संसदीय मर्यादाएं थीं वे अब भंग होती गयीं और संसदीय आचरण में लगातार गिरावट आयी। एक कारण यह हो सकता है। पहली, दूसरी संसद में तथा विधान सभाओं में वे लोग थे, जो स्वाधीनता संग्राम में भाग ले चुके थे। वे समर्पित लोग थे। त्याग-भावना उनमें विशेष थी। वे अनुशासित सिपाही रहे थे स्वाधीनता संग्राम के और उनमें उदात्तता, सहनशीलता थी। स्वाधीनता संग्राम में गांधीजी के नेतृत्व में गांव के अपढ़ भारतीय से लेकर बड़े-से-बड़े बुद्धिवादी शामिल थे। वे एक महान 'मिशन' से कार्य कर रहे थे। सत्ता आने के बाद भी यह मिशन की भावना उनमें रही। वे लोग त्याग की राजनीति जिंदगी भर करते रहे थे, प्राप्ति की राजनीति नहीं।

बाद में प्राप्ति की राजनीति हावी हो गयी। राजनीती धंधा हो गयी। 'पोलिटिकल करियर' आ गया, बिजनेस करियर या मिलिटरी करियर या एजुकेशनल करियर की तरह। बर्नार्ड शॉ ने कहा था- पॉलिटिक्स इज द लास्ट रेफ्यूज ऑफ ए स्काउन्ड्रल। बदमाश आदमी का आखिरी मुकाम राजनीति है। बर्नार्ड शॉ का कथन अतिवादी है। पूरी तरह ठीक नहीं। पर यह सही है कि राजनीति में घटिया से घटिया आदमी आने लगे। पोलिटिकल करियर दूसरे देशों में भी होता है, पर उनकी जीविका का साधन दूसरा होता है। राजनीति उनकी जीविका नहीं होती। हमारे यहां राजनीति देश सेवा और धंधा दोनों हो गयी। इन धंधे में किन गंदे तरीकों से धन कमाया जाता है यह सबको मालूम है। जैसे यह सब जानते हैं कि तबादलों का मौसम राजनेताओं के पैसा कमाने का मौसम है।

फिर हमारी चुनाव-पद्धति ऐसी है कि पहले उसमें धन आया और फिर अपराधी आए। धीरे-धीरे बढ़ते-बढ़ते ऐसा आज हो गया कि विधान-सभा की सीट जीतने के लिए पंद्रह-बीस लाख रूपए और दो हजार किराए के गुंडे चाहिए। बिहार की नेकनामी है कि यहां हर नेता के पास अपराधी गिरोह होता है। काला पैसा होता है। लुटेरे लूटते भी हैं और चुनाव प्रचार भी करते हैं। धन भी बांटा जाता है- तेरा तुझको सौंपत का लागते है मोर।

सदनों की कार्यवाही का हाल ये है कि राज्य सभा के भूतपूर्व अध्यक्ष डॉ। शंकरदयाल शर्मा रो पड़े थे। इतनी हुल्लड़, अनुशासनहीनता और अराजकता। एक बात कही जा सकती है- ये हमारे समाज के प्रतिनिधि हैं, इस नाते समाज में जो हो रहा है, नहीं करें तो झूठे प्रतिनिधि होंगे। मगर ये हमारे माननीय सदस्य पान के ठेले पर खड़े होकर और चाय की गुमटी में घंटा-भर बैठकर लोगों की बातें सुनें। वे क्या कहते हैं। उनकी शिकायतें क्या हैं। उनका दुःख-दर्द क्या है। यह भी सुनें कि वे अपने भाग्य-विधाताओं को बहुत गाली देते हैं।

सदन की बैठक शुरू होते ही काम रोको के 4-5 प्रस्ताव जरूरी भी और गैर-जरूरी भी। फिर बात-बात पर रोक-टोक, बहिर्गमन, अध्यक्ष को चुनौती, घूंसे तानकर एक दूसरे पर झपटना, अध्यक्ष के आसन के सामने इकट्ठे बैठ जाना, कोई कार्यवाही नहीं होने देना। देश की समस्याओं पर विचार कम, एक-दूसरे को उखाड़ने की कार्यवाही अधिक। इनकी एक अलग छोटी-सी दुनिया है। सदन में वे अपनी ही प्रतिध्वनि सुनते हैं और खुश होते हैं। बाहर की ध्वनियां वहां नहीं पहुंचतीं।

एक तो राजनीति में अपराधियों का प्रवेश और उनकी प्रतिष्ठा। दूसरे सांसदों और विधायकों की यह अराजकता। संसदीय लोकतंत्र के लिए खतरा बढ़ रहा है।

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