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स्वप्न-वृक्ष- बिहार की लोक-कथा

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एक राजा था। उसकी दो रानियां थीं। बड़ी रानी का एक और छोटी रानी के तीन पुत्र थे। राजा अपने चारों पुत्रों को बहुत मानता था, लेकिन बड़ी रानी का पुत्र अपने तीनों भाइयों की अपेक्षा अधिक सीधा, ईमानदार और सच्चे स्वभाव का था। इसलिए उसके प्रति राजा का स्नेह कुछ विशेष था। तीनों भाई इसी कारण उससे ईर्ष्या करते थे।

एक रात राजा ने एक अद्भुत स्वप्न देखा। स्वप्न में उसने एक पेड़ को विचित्र ढंग से उगते-बढ़ते और बड़े पेड़ का आकार लेते देखा। पेड़ की जड़ और उसका तना चांदी के थे, सारी शाखाएं सोने की थीं, सारे पत्ते हीरों से जड़े थे और फलों की जगह मोतियों के गुच्छे लटक रहे थे। पेड़ पर एक सुंदर तोता बैठा था। तोता जब प्रसन्न होता तो पेड़ खिला-खिला रहता था, तोते के उदास होते ही पेड़ भी मुरझा जाता।

राजा को उस पेड़ ने कुछ इस तरह से आकृष्ट कर लिया कि अगले दिन प्रात:काल उसने अपने चारों पुत्रों को बुलवाया और उस अद्भुत लुभावने वृक्ष के विषय में बताते हुए कहा, “तुममें से जो राजकुमार वैसा वृक्ष ला सकेगा, उसे मैं अपना उत्तराधिकारी बनाऊंगा।” इस काम के लिए उसने राजकुमारों को दो वर्ष का समय दिया।

छोटी रानी के तीनों राजकुमारों ने राजा से बहुत सारा धन लिया और वृक्ष की खोज में निकल पड़े। चलते-चलते उन्हें एक ऐसा नगर मिला, जहां सोने-चांदी का काम करने वाले बहुत सारे कारीगर रहते थे। वे तीनों वहीं ठहर गए और कारीगरों से सोने-चांदी का पेड़ बनवाने में लग गए।

पिता से कुछ पैसे लेकर बड़ा राजकुमार भी भाइयों के पीछे-पीछे आ रहा था। तीनों राजकुमारों ने मौक़ा देखकर उसे कुएं में ढकेल दिया। संयोगवश एक चरवाहा पानी पीने के लिए वहां रुका। उसने कुएं में रस्सी डालकर राजकुमार को निकाला। राजकुमार ने उसका धन्यवाद किया और अपने भाइयों की करतूत बताई। उसने अपने पिता के विचित्र स्वप्न के विषय में भी बताया। चरवाहे को राजकुमार से सहानुभूति हो रही थी। उसने बताया, “यहां से कुछ दूर आगे एक जंगल है। वहां एक साधु छह महीने से समाधि में लीन हैं, उनकी समाधि अब टूटने वाली है। तुम उनके पास जाओ, शायद वे उस पेड़ के विषय में कुछ बता सकें।”

कई दिनों तक चलने के बाद राजकुमार जंगल में साधु के पास पहुंचा। बहुत दिनों से समाधि में लीन रहने के कारण उनके चारों ओर घास-फूस का जंगल बन गया था। राजकुमार ने चारों ओर साफ़-सफ़ाई की और प्रतीक्षा करने लगा। साधु की समाधि टूटी, वे राजकुमार की सेवा से बहुत प्रसन्न हुए और उसे एक वरदान मांगने के लिए कहा। राजकुमार ने सोने-चांदी वाले वृक्ष की मांग कर दी। साधु लज्जित होते हुए बोले, “यह तो मेरे वश में नहीं है। आगे दूसरे जंगल में मेरे गुरु हैं, वे शायद तुम्हारी सहायता करें।”

राजकुमार लंबी यात्रा के बाद दूसरे साधु के पास पहुंचा। वे एक साल तक सोते थे। राजकुमार उनकी सेवा करता रहा। जागने पर साधु ने प्रसन्न होकर वरदान मांगने के लिए कहा। राजकुमार ने उनसे भी वही वृक्ष मांगा, लेकिन इन साधु महाराज ने भी खेदपूर्वक अपनी असमर्थता जताई। राजकुमार उदास हो गया। साधु ने उसे ढांढस देते हुए कहा, “आगे के जंगल में मेरे गुरु हैं, उनमें दैवी शक्ति है, वे अवश्य तुम्हारी मदद करेंगे। तुम उनके पास चले जाओ।”

राजकुमार आगे बढ़ा। घनघोर जंगल में भटकते-भटकते अंततः उसे तीसरे साधु महाराज भी मिल गए। वे भी राजकुमार की मनोकामना पूरी नहीं कर पाए, लेकिन उन्होंने उसे तरकीब बताई। सामने के मंदिर की तरफ़ इशारा करते हुए उन्होंने कहा, “उस मंदिर के देवता की पूजा करो, देवता प्रसन्न होकर तुम्हें एक मणि देंगे। वह मणि तुम्हें पाताल लोक ले जाएगी। वहां ढेर सारी परियां रहती हैं। वे ही तुम्हारी मनोकामना पूरी कर सकती हैं।”

राजकुमार ने वैसा ही किया और उसे मणि मिल गई। मणि के सहारे वह पाताल लोक पहुंच गया। देवता की मणि देखते ही प्रहरियों ने द्वार खोल दिए। उस दिव्यलोक में कई परियां थीं जिनके अलग-अलग महल थे। पहला महल ‘चांदी परी’का था। वहां सब कुछ चांदी का बना था। एक बड़े कमरे में चांदी परी सिंहासन पर बैठी थी। उसने राजकुमार का स्वागत किया और बोली, “मैं तुम्हारी ही प्रतीक्षा कर रही थी।” राजकुमार ने आश्चर्य से कहा, “मैं तो अपने पिता की इच्छा पूरी करने के लिए यहां तक आया हूं तुम्हें तो मैं जानता भी नहीं, अपनी कुछ विशेषता बताओ?” चांदी परी ने कहा, “मैं जब चाहूं, चांदी की जड़ और चांदी के तने वाला पेड़ बना सकती हूं।” उसने पलक झपकते ही वैसा पेड़ बनाकर दिखा दिया। राजकुमार ने चांदी परी से कहा, “तुम मेरी प्रतीक्षा करो, मैं बाक़ी परियों के महल भी देखना चाहता हूं।”

आगे बढ़ने पर राजकुमार ने एक सोने का महल देखा। वह ‘सोना परी’का महल था। प्रहरी ने उसे सोना परी के पास पहुंचा दिया। सोना परी ने भी चांदी परी जैसी ही बात कही। उसका विशेष गुण यह था कि जब चांदी परी पेड़ की जड़ और तना बना देती तब सोना परी उसे सोने की डालियों से सजा देती थी। राजकुमार के विस्मय का ठिकाना नहीं रहा।

सोना परी से आज्ञा लेकर वह आगे बढ़ा तो उसे ‘हीरा परी’ और फिर ‘मोती परी’ के महल मिले। वह बारी-बारी दोनों परियों से मिला। जब चांदी परी और सोना परी पेड़ की जड़, तना और डालियां बना लेतीं, तब हीरा परी हीरे के पत्तों से डालियों को सजा देती थी और फिर मोती परी मोतियों के फलों से डालियां भर देती थी। अंत में राजकुमार ‘तोता परी’ के महल में पहुंचा। तोता परी की विशेषता यह थी कि जब चांदी, सोने, हीरे और मोती से बना पेड़ तैयार हो जाता तब वह एक सुंदर तोता बना कर पेड़ पर बैठा देती थी। जब तोता प्रसन्न रहता तब पेड़ सुंदर खिला-खिला रहता था, तोते के उदास होते ही पेड़ भी मुरझाने लगता था। राजकुमार को अपनी मनोकामना पूरी होती लगी। वह सभी परियों को साथ लेकर मणि के सहारे पृथ्वी लोक पर वापस आ गया।

राजकुमार ने मंदिर में देवता की मणि उन्हें लौटा दी और साधु महाराज को धन्यवाद देने गया। उसकी सफलता से साधु महाराज बहुत प्रसन्न हुए। उन्होंने राजकुमार को एक लाठी और एक रस्सी दी जिससे ज़रूरत पड़ने पर वह रास्ते में परियों सहित अपनी भी रक्षा कर सके। साधु ने बताया कि लाठी और रस्सी की शक्ति से वह जब चाहे किसी को भी अपने पास बुला सकता था। वहां से आगे, वह दूसरे साधु को भी धन्यवाद देने के लिए रुका। साधु उसकी पितृभक्ति से बहुत प्रभावित हुए और प्रसन्न होकर उसे एक विशेष कटोरा दिया जिससे वह अपनी इच्छानुसार हज़ारों लोगों को स्वादिष्ट भोजन करा सकता था।

अब पहले वाले साधु के पास जाना बाक़ी था। उनके पास पहुंचकर जब राजकुमार ने सारी बातें बताईं तो साधु को विश्वास नहीं हुआ। उन्होंने सोने-चांदी का बना पेड़ देखने की इच्छा जताई। राजकुमार के परियों से कहने भर की देर थी और पेड़ बनकर तैयार था। साधु की आंखें चकाचौंध हो गईं। उनके मन में लालच उत्पन्न हो गया। उन्होंने राजकुमार को आज्ञा दी, “सभी परियों को यहीं छोड़कर तुम यहां से चले जाओ।” राजकुमार को विवश होकर उनकी आज़ा माननी पड़ी। कुछ दूर जाते ही अचानक उसे रस्सी और लाठी की याद आ गई। उसने दोनों से कहा, “सभी परियों को साधु से छीनकर ले आओ।" कुछ ही पल में सभी परियां राजकुमार के सामने थीं।

राजा ने वृक्ष लाने के लिए राजकुमारों को दो वर्ष का समय दिया था। वह समय भी जल्दी ही पूरा होने वाला था। राजकुमार जल्दी-जल्दी आगे बढ़ा। संयोगवश रास्ते में उसे उसके तीनों भाई मिल गए। वे सोने- चांदी का पेड़ बनवाकर राजमहल को वापस लौट रहे थे। उन्होंने चालाकी से राजकुमार से सारी बातें जान लीं। उनकी नीयत फिर ख़राब हो गई। चलते-चलते उन्हें रास्ते में वही कुआं मिला। उन्होंने धोखे से राजकुमार को उसमें धकेल दिया और परियों के साथ राजमहल में वापस आ गए।

अगले दिन तीनों भाई परियों को लेकर दरबार में आए। उन्होंने राजा के सामने परियों से रुपहला-सुनहरा वृक्ष बनाने के लिए कहा, परंतु बहुत मिन्नतें करने के बाद भी परियों ने वृक्ष नहीं बनाया। वे पहले ही तीनों राजकुमारों के अपने बड़े भाई के प्रति दुर्व्यवहार से क्रुद्ध और दुखी थीं। लेकिन राजकुमार भला कहां हार मानने वाले थे? सोने-चांदी का जो वृक्ष वे कारीगरों से बनवाकर लाए थे, उसे उन्होंने दरबार में मंगवाया। राजा ने उसे देखा, लेकिन संतुष्ट नहीं हुआ। उसने कहा, “मैंने तो पेड़ को बनते हुए देखा था, बना-बनाया नहीं, और फिर इस पर तो तोता भी नहीं है। उचित यही होगा कि हम बड़े राजकुमार के भी आने की प्रतीक्षा कर लें।”

उधर कुएं में गिरे राजकुमार को एक बार फिर उसी चरवाहे ने बचा लिया। राजकुमार ने आभार व्यक्त करते हुए कटोरे की मदद से चरवाहे के परिवार सहित सारे गांव वालों को स्वादिष्ट भोजन कराया। फिर वह बहुत दुखी और उदास मन से राजमहल की ओर लौटा। उसके साथ न परियां थीं, न पिता के स्वप्न वृक्ष को बनाने की क्षमता। राजमहल में प्रवेश करते ही उसे दरबार में हुई सारी घटना का पता चला। वह उसी समय पिता के पास गया और उन्हें अपने भाइयों की सारी करतूत बताई। उसने वादा किया कि अगले दिन वह दरबार में स्वप्नवृक्ष को बनते हुए दिखाएगा।

लाठी और रस्सी की मदद से उसने परियों को अपने पास बुला लिया। अगले दिन वह उनके साथ दरबार में आया। परियों ने राजा के सामने रुपहला-सुनहरा, हीरे-मोतियों जड़ा पेड़ बनाया। अंत में पेड़ पर सुंदर तोता भी आया। राजा प्रसन्‍नता से गदगद्‌ हो उठे। उन्होंने राजकुमार को अपना उत्तराधिकारी घोषित कर दिया।

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