(आत्मकथ्य)
लिखने बैठ गया हूँ पर नहीं जानता संपादक की मंशा क्या है और पाठक क्या चाहते हैं, क्यों आखिर वे उन दिनों में झाँकना चाहते हैं, जो लेखक के अपने हैं और जिनपर शायद वह परदा डाल चुका है। अपने गर्दिश के दिनों को, जो मेरे नामधारी एक आदमी के थे, मैं किस हैसियत से फिर जीऊँ ?-उस आदमी की हैसियत से या लेखक की हैसियत से ? लेखक की हैसियत से गर्दिश को फिर जी लेने और अभिव्यक्त कर देने में मनुष्य और लेखक, दोनों की मुक्ति है। इसमें मैं कोई ‘भोक्ता’ और ‘सर्जक’ की निःसंगता की बात नहीं दुहरा रहा हूँ। पर गर्दिश को फिर याद करने, उसे जीने में दारुण कष्ट है। समय के सींगों को मैंने मोड़ दिया था। अब फिर उन सींगों को सीधा करके कहूँ-आ बैल, मुझे मार !
गर्दिश कभी थी अब नहीं है, आगे नहीं होगी-यह गलत है। गर्दिश का सिलसिला बदस्तूर है, मैं निहायत बेचैन मन का संवेदनशील आदमी हूँ। मुझे चैन कभी मिल ही नहीं सकता। इसलिए गर्दिश नियति है।
हाँ, यादें बहुत हैं। पाठक को शायद इसमें दिलचस्पी हो कि यह जो हरिशंकर परसाई नाम का आदमी है, जो हँसता है, जिसमें मस्ती है, जो ऐसा तीखा है कटु है-इसकी अपनी जिन्दगी कैसी रही है ? यह कब गिरा फिर कब उठा ? कैसे टूटा ? कैसे फिर से जुड़ा ? यह एक निहायत कटु, निर्मम और धोबीपछाड़ आदमी है।
संयोग कि बचपन की सबसे तीखी याद ‘प्लेग’ की है। 1936 या 37 होगा। मैं शायद आठवीं का छात्र था। कस्बे में प्लेग पड़ी थी। आबादी घर छोड़ जंगल में टपरे बना कर रहने चली गयी थी। हम नहीं गये थे। माँ सख्त बीमार थी। उन्हें लेकर जंगल नहीं जाया जा सकता था। भाँय-भाँय करते पूरे आस-पास में हमारे घर ही चहल-पहल थी। काली रातें। इनमें हमारे घर जलने वाले कंदील। मुझे इन कंदीलों से डर लगता था। कुत्ते तक बस्ती छोड़ गये थे, रात के सन्नाटे में हमारी आवाजें हमें ही डरावनी लगती थीं। रात को मरणासन्न माँ के सामने हम लोग आरती गाते-जय जगदीश हरे, भक्त जनों के संकट पल में दूर करे। गाते गाते पिताजी सिसकने लगते, माँ बिलख कर हम बच्चों को हृदय से चिपटा लेती और हम भी रोने लगते। रोज का यह नियम था। फिर रात को पिताजी, चाचा और दो एक रिश्तेदार लाठी-बल्लम लेकर घर के चारों तरफ घूम-घूम कर पहरा देते। ऐसे भयकारी, त्रासदायक वातावरण में एक रात तीसरे पहर माँ की मृत्यु हो गयी। कोलाहल और विलाप शुरू हो गया। कुछ कुत्ते भी सिमट कर आ गये और योग देने लगे।
पाँच भाई-बहनों में माँ की मृत्यु का अर्थ मैं ही समझाता था-सबसे बड़ा था।
प्लेग की वे रातें मेरे मन में गहरे उतरी हैं। जिस, आंतक, अनिश्चय निराशा और भय के बीच हम जी रहे थे, उसके सही अकंन के लिए बहुत पन्ने चाहिए। यह भी कि पिता के सिवा हम कोई टूटे नहीं थे। वह टूट गये थे। वह इसके बाद भी 5-6 साल जिये, लेकिन लगातार बीमार, हताश, निष्क्रिय और अपने से ही डरते हुए। धंधा ठप्प। जमा-पूँजी खाने लगे। मेरे मैट्रिक पास होने की राह देखी जाने लगी। समझने लगा था कि पिताजी भी अब जाते ही हैं बीमारी की हालत में उन्होंने एक बहन की शादी कर ही दी थी-बहुत मनहूस उत्सव था वह। मैं बराबर समझ रहा था कि मेरा बोझ कम किया जा रहा है। फिर अभी दो छोटी बहनें और एक भाई थे।
मैं तैयार होने लगा। खूब पढ़ने वाला, खूब खेलने वाला और खूब खाने वाला मैं शुरू से था। पढ़ने और खेलने में मैं सब भूल जाता। मैट्रिक हुआ, जंगल विभाग में नौकरी मिली। जंगल में सरकारी टपरे में रहता। ईंटें रखकर, उन पर पटिये जमा कर बिस्तार लगाता, नीचे जमीन चूहों ने पोली कर दी थी। रात भर नीचे चूहे धमाचौकड़ी करते रहते और मैं सोता रहता। कभी चूहे ऊपर आ जाते तो नींद टूट जाती पर मैं फिर सो जाता। छह महीने धमाचौकड़ी करते चूहों पर मैं सोया। बेचारा परसाई ?
नहीं, नहीं, मैं खूब मस्त था। दिन भर काम। शाम को जंगल में घुमाई फिर हाथ से बना कर खाया गया भरपेट भोजन-शुद्ध घी और दूध। और चूहों ने बड़ा उपकार किया। ऐसी आदत डाली कि आगे की जिन्दगी में भी तरह-तरह के चूहे मेरे नीचे ऊधम करते रहे हैं, साँप तक सर्राते रहे हैं, मगर मैं पटिया बिछा कर पटिये पर सोता रहा हूँ। चूहों ने ही नहीं, मनुष्यनुमा बिच्छुओं और साँपों ने भी मुझे बहुत काटा है-पर ‘जहर मोहरा’ मुझे शुरू में ही मिल गया। इसलिए ‘बेचारा परसाई’ का मौका ही नहीं आने दिया। उसी उम्र से दिखाऊ सहानुभूति से मुझे बेहद नफरत है। अभी भी दिखाऊ सहानुभूति वाले को चाँटा मार देने की इच्छा होती है जब्त कर जाता हूँ वरना कई शुभचिंतक पिट जाते।
फिर स्कूल मास्टरी। फिर टीचर्स ट्रेनिंग और नौकरी की तलाश-उधर पिताजी मृत्यु के नजदीक। भाई पढ़ाई रोककर उनकी सेवा में। बहनें बड़ी बहन के साथ हम शिक्षण की शिक्षा ले रहे हैं।
फिर नौकरी की तलाश। एक विद्या मुझे और आ गयी थी-बिना टिकट सफर करना। जबलपुर से इटारसी, टिमरनी, खंडवा, इन्दौर, देवास बार-बार चक्कर लगाने पड़ते। पैसे थे नहीं। मैं बिना टिकट बेखटके गाड़ी में बैठ जाता। तरकीबें बचने की बहुत आ गयी थीं। पकड़ा जाता तो अच्छा अंग्रेजी में अपनी मुसीबत का बखान करता। अंग्रेजी के माध्यम से मुसीबात बाबुओं को प्रभावित कर देती और वे कहते-लेट्स हेल्प दि पूअर बॉय।
दूसरी विद्या सीखी-उधार माँगने की। मैं बिल्कुल निःसंकोच भाव से किसी से भी उधार माँग लेता। अभी भी इस विद्या में सिद्ध हूँ।
तीसरी चीज सीखी बेफिक्री ! जो होना होगा, होगा, क्या होगा ? ठीक ही होगा। मेरी एक बुआ थी। गरीब, जिन्दगी गर्दिश भरी, मगर अपार जीवन-शक्ति थी उसमें। खाना बनने लगता तो उनकी बहू कहती-बाई, न दाल ही है न तरकारी। बुआ कहती-चल, चिन्ता नहीं। राह मोहल्ले में निकलती और जहाँ उसे छप्पर पर सब्जी दिख जाती, वहीं अपनी हम उम्र मालकिन से कहती-ए कौशल्या तेरी तोरई अच्छी आ गयी है। जरा दो मुझे तोड़ के दे। और खुद तोड़ लेती। बहू से कहती-ले बना डाल, जरा पानी जादा डाल देना। मैं यहाँ-वहाँ से मारा हुआ उसके पास जाता तो वह कहती-चल, कोई चिन्ता नहीं, कुछ खा ले।
उसका यह वाक्य मेरे लिए ताकत बना-कोई चिन्ता नहीं।
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