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खर्चा मवेशियान कमलेश्वर

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राज्य के वन-मन्त्री दौरे पर थे। रिजर्व फारेस्ट के डाक बँगले में उन्होंने डेरा डाला। उनके साथ के लश्कर वालों ने भी। उन्होंने वन अधिकारी को बुलवाया और ताकीद की-देखो रेंजर बाबू! मैं पुराने मन्त्री की तरह नहीं हूँ, हमारी पार्टी की छवि भी अलग है! इसलिए पुराने तौर-तरीके अब नहीं चलेंगे।
जी सर!
-इसलिए मेरे ठहरने इत्यादि का जो भी खर्चा हो, उसका बाजाब्ता बिल आप देंगे और मैं भुगतान करूंगा।
“देखा जाएगा सर!
-देखा क्‍या जाएगा?
-जी सर...ठीक है!
साथ आए लोगों की आँखें वाह-वाही में चमकने लगीं-यह हुई न अपनी पार्टी के आदर्शों वाली बात!

तीसरे दिन मन्त्री महोदय लौटने लगे। वन-अधिकारी और सहसीलदार उन्हें विदा करने को मौजूद थे। मन्त्री महोदय को चलते-चलते याद आया।
-वो खर्चे वगैरह का बिल आपने नहीं दिया?
-कहा न था सर, वह देखा जाएगा।
-नहीं, नहीं...बिल लेके आइए।

आखिर संकुचित होते हुए वन विश्राम गृह के महाराज और चौकीदार ने बिल वन-अधिकारी को थमा दिया। उसने वह कागज मन्त्री महोदय को दे दिया। बिल देखकर मन्त्री महोदय की भौंहें चढ़ गईं।
-यह मेरा बिल है?...आप लोग बड़े भ्रष्ट लोग हो...मेरा तीन दिन का बिल दो हजार साढ़े तीन सौ रुपए?...यह क्या बदतमीजी है!
-सर! वो आपके साथ उन्‍नीस लोग और थे।-डरते-डरते तहसीलदार ने कहा।
-लेकिन इसमें ये अंडे-मुर्गी! यह सब क्‍या है। मैं तो शाकाहारी हूँ....यह सब खाता नहीं!
“सर! आपके साथ के लोग तो खाते हैं।
लेकिन यहाँ जंगल में यह अण्डे-मुर्गी कैसे आ गए?...शहर से मँगवाए गए?
-नहीं सर! यहीं जंगल में एक मुर्गी-पालन केन्द्र खोला गया था, उसी के सब अण्डे-मुर्गी काम आ गए!
-क्‍या मतलब?

-आप परेशान न हों सर! हम दस बारह मुर्गे-मुर्गियां शहर से लाके उसे फिर चालू कर देंगे!
-ठीक है...विकास का कोई काम रुकना नहीं चाहिए....और कान खोल के सुन लीजिए, मैं किसी भ्रष्ट अधिकारी को बर्दाश्त नहीं करूँगा!

फिर मन्त्री महोदय ने अपना पर्स खोला। वे अचकचाये। उसमें सिर्फ चार-पाँच सौ रुपए थे। वे शहीद की तरह बोले :
-इतने रुपए मेरे जैसे शाकाहारी के लिए बहुत काफी थे।
-कहा न सर...रहने दीजिए। इन्तज़ाम हो जाएगा....
-कैसे हो जाएगा? पहले जो मन्त्री लोग आते थे, उनका खर्चा आखिर आप कहाँ से पूरा करते थे?
-वह बात रहने दीजिए सर!
क्यों, क्यों? बताइए!
-वह ऐसा था सर....वन अधिकारी बोलते-बोलते रुक गया।
-वो ऐसा क्या था....बोलते क्‍यों नहीं?

-वो ऐसा था सर कि वन-मन्त्रालय से पहले हमें खर्चा मवेशियान मिलता था....
-खर्चा मवेशियान! यह क्‍या है भई?

-सर! जो आवारा पशु-मवेशी यहाँ घुस आते थे, उन्हें बाड़े में बन्द कर के रखने का नियम था। उन्हीं के चारे-पानी के लिए खर्चा-मवेशियान मिलता था। आप लोग कभी आ जाते थे, तो उसी मद में से दौरे-वौरे का खर्चा निकल आता था सर! पिछली सरकार तक तो यह चलता रहा सर! आपने मन्त्रि पद सँभालते ही इस पर पाबन्दी लगा दी सर! नहीं तो कोई दिक्कत ही नहीं थी सर!

मन्त्री जी ने एक पल कुछ सोचा और वन अधिकारी को बिल थमाते हुए बोले-ठीक है, ठीक है। आप आके मन्त्रालय में मुझसे मिलिए!
-यस सर!
और मन्त्री महोदय अपनी जीप में सवार होकर अगले दौरे पर चले गए।

(‘महफ़िल’ से)

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