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अनमोल राय - असमिया लोक-कथा

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बहुत समय पहले की बात है, सिलचर के समीप एक गाँव में जयंत फुकन रहता था। उसके माता-पिता बहुत अमीर थे। अत: उसे पैसे की कोई कमी न थी।

एक दिन वह चाचा के पोते की शादी में दूर गाँव गया। विवाह के पश्चात्‌ वह वहीं रुक गया। अगले दिन वह हाट में गया। वहाँ की रौनक देखकर उसे बड़ा मजा आया।

शाम होते ही सभी दुकानदार लौटने लगे किंतु एक व्यक्ति चुपचाप दुकान लगाए बैठा था। जयंत ने हैरानी से पूछा, 'अरे भई, तुम घर नहीं जाओगे?!
वह दुकानदार मायूसी से बोला, 'मेरी सलाह नहीं बिकी, उसे बेचकर ही जाऊँगा।'
'कौन-सी सलाह, कैसी सलाह?'
'पहले कीमत तो चुकाओ।' दुकानदार ने हाथ नचाते हुए कहा।
'कितने पैसे लगेंगे?' जयंत ने लापरवाही से पूछा।
'एक सलाह का एक हजार रुपया लगेगा, मेरे पास दो ही हैं।'
दुकानदार ने व्यस्तभाव से कहा।

उसकी बात सुनकर जयंत को हँसी आ गई। भला सलाह भी खरीदी जाती है? परंतु जाने जयंत के मन में क्या आया, उसने दो हजार रुपए गिनकर उसके सामने रख दिए।
दुकानदार हिल-हिलकर बोला-

काँटेदार बाड़ न लगाना
घरवाली को राज न बताना
नहीं तो पीछे पड़ेगा पछताना।

जयंत ने उसकी सलाह याद कर ली! घर पहुँचा तो पत्नी दरवाजे पर खड़ी मिली। बाग का माली भी वहीं था। वह माली से दरवाजे के ऊपर बाड़ लगवा रही थी। जयंत को नई-नई सलाह याद थी। उसने पत्नी को वह बाड़ लगाने से मना किया। दो हजार रुपए वाली बात भी बताई। उसकी पत्नी खिलखिलाकर हँस दी।

'मान गए आपको, कोई भी घड़ी-भर में मूर्ख बना जाता है। अरे, इतने रुपए पानी में बहा आए। मेरे लिए जेवर बनवा देते।' जयंत चुपचाप भीतर आ गया। उसे अपनी गलती पर क्रोध आ रहा था। ठीक ही तो कहा पत्नी ने, दो हजार रुपए गँवा दिए।
उस रात जयंत को सोते-सोते विचार आया, 'क्यों न, इन सलाहों को आजमाया जाए।'

उसने एक सूअर के बच्चे का सिर काटकर जंगल में छिपा दिया। फिर खून से सना चाकू, पत्नी को दिखाकर बोला, 'अरी, मुझसे एक आदमी का खून हो गया है, तू किसी से कहना मत, वरना आफत आ जाएगी।'

जयंत की पत्नी के पेट में बात पचना आसान न था। वह मटका लेकर पनघट पर जा पहुँची। वहाँ वह अपने पति की बहादुरी की डींगें हाँकने लगी। एक सखी ने ताना दिया, 'अरी सोनपाही, बहुत बड़ाइयाँ कर रही है। ऐसा कौनसा बड़ा काम कर दिया तेरे पति ने?'

जयंत की पत्नी सोनपाही ने पीछे हटना नहीं सीखा था। बात में नमक-मिर्च लगाकर, उसने शान से सबको बताया कि जयंत ने एक आदमी का खून करके उसकी लाश जंगल में छिपा दी है।

शाम होते-होते पूरे गाँव में यह खबर फैल गई। जयंत खेत से लौट रहा था। लोग उसे देखते और हाय राम! जान बचाओ। कहकर भाग खड़े होते।

जयंत कुछ समझ नहीं पाया। अगले दिन राजा का बुलावा आ पहुँचा। हड़बड़ाहट में जयंत घर से निकला। दरवाजे की कंटीली बाड़ में उसके सिर की पगड़ी गिर गई। जयंत उसे बिना पहने ही चल दिया।

राजा के दरबार में नंगे सिर जाने की सख्त मनाही थी। जयंत को देख, राजा गुस्से से भर उठा। तब जयंत को याद आई वह सलाह- 'काँटेदार बाड़ न लगाना!'
फिर राजा ने उससे गरजकर पूछा, 'तुमने एक आदमी का खून किया है?'
जयंत ने हकलाते हुए उत्तर दिया, 'जी मैं ... नहीं ... ।'
'क्या मैं ... मैं लगा रखी है। स्वयं तुम्हारी पत्नी, उस खून की गवाह है।'
जयंत के कानों में गूँजने लगा।

“घरवाली को राज न बताना।
नहीं तो पीछे पड़ेगा पछताना।'

वह खिलखिलाकर हँस दिया। उसने धीरे-धीरे राजा को समझाया कि किस तरह उसने सलाहों की परीक्षा लेनी चाही। राजा से आज्ञा लेकर वह जंगल में से सूअर का कटा हुआ सिर ले आया। राजा ने सारी बात सुनी तो वह भी हँसते-हँसते लोटपोट हो गया।

जयंत को ढेरों ईनाम देकर विदा किया गया। सोनपाही कुछ नहीं जान पाई, परंतु जयंत ने उन सलाहों को सारी उम्र अमल में लाने का निश्चय कर लिया।

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