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भारतीय परम्परा व आस्था का प्रतीक है हवन-पूजा पाठ

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हवन का वैज्ञानिक महत्व;-
1-हिन्दू सनातन धर्म में पूजा का सबसे अच्छा मार्ग हवन और यज्ञ है। इस विधि से भगवान को सदियों पहले से ही हमारे ऋषि मुनि रिझाते हुए आये है।यज्ञ को अग्निहोत्र कहते हैं।अग्नि ही यज्ञ का प्रधान देवता है। हवन में डाली गई सामग्री प्रसाद सीधे हमारे आराध्य देवी देवताओं तक पवित्र अग्नि के माध्यम से जाता है।वैज्ञानिक तथ्यानुसार जहाॅ हवन होता है, उस स्थान के आस-पास रोग उत्पन्न करने वाले कीटाणु शीघ्र नष्ट हो जाते है।

2-मनुष्य जीवन में यज्ञ और हवन का बहुत महत्व बताया गया है।यज्ञ हवन से देवी देवताओं की पूजा अर्चना ही नही बल्कि हवन यज्ञ से प्रदूषित वातावरण को भी शुद्ध किया जाता।यज्ञ हवन भी एक चिकित्सा पद्धति मानी गयी और हवन यज्ञ के माध्यम से विभिन्न बीमारियों का इलाज किया जाता है।

3-यज्ञोपैथी का पुराना वैदिक इतिहास है और जब चिकित्सा की अन्य पद्धतियां मौजूद नहीं थी तो.यज्ञ हवन आदि से ही वातावरण को बीमारी रहित बनाया जाता था।फ़्रांस के ट्रेले नामक वैज्ञानिक ने हवन पर रिसर्च की। जिसमें उन्हें पता चला की हवन मुख्यतः आम की लकड़ी को जलाकर की जाती है।

4-जब आम की लकड़ी जलती है तो फ़ॉर्मिक एल्डिहाइड नामक गैस उत्पन्न होती है जो खतरनाक बैक्टीरिया और जीवाणुओं को मारती है तथा वातावरण को शुद्ध करती है। इस रिसर्च के बाद ही वैज्ञानिकों को इस गैस और इसे बनाने का तरीका पता चला।गुड़ को जलाने पर भी ये गैस उत्पन्न होती है।टौटीक नामक वैज्ञानिक ने हवन पर की गयी अपनी रिसर्च में ये पाया की यदि आधे घंटे हवन में बैठा जाये अथवा हवन के धुएं से शरीर का सम्पर्क हो तो टाइफाइड जैसे खतरनाक रोग फ़ैलाने वाले जीवाणु भी मर जाते हैं और शरीर शुद्ध हो जाता है।

5-हवन की महत्ता को देखते हुए राष्ट्रीय वनस्पति अनुसन्धान संस्थान लखनऊ के वैज्ञानिकों ने भी इस पर एक रिसर्च किया है कि क्या वाकई हवन से वातावरण शुद्ध होता है और जीवाणु नाश होते है अथवा नही होते हैं ? उन्होंने ग्रंथों में वर्णिंत हवन सामग्री जुटाई और जलाने पर पाया कि ये विषाणु नाश करती है।

6-फिर उन्होंने विभिन्न प्रकार के धुएं पर भी शोध किया और देखा कि सिर्फ आम की लकड़ी मात्र एक किलो जलाने से हवा में मौजूद विषाणु बहुत कम नहीं हो गये किन्तु उसमें जैसे ही उसके ऊपर आधा किलो हवन सामग्री डाल कर जलायी गयी तो एक घंटे के भीतर ही कक्ष में मौजूद बैक्टीरिया का स्तर ९४ % कम हो गया।

7-यही नहीं उन्होंने आगे भी कक्ष की हवा में मौजुद जीवाणुओ का परीक्षण किया और पाया कि कक्ष के दरवाज़े खोले जाने और सारा धुआं निकल जाने के २४ घंटे बाद भी जीवाणुओं का स्तर सामान्य से ९६ प्रतिशत कम था। बार-बार परीक्षण करने पर ज्ञात हुआ कि इस एक बार के धुएं का असर एक माह तक रहा और उस कक्ष की वायु में विषाणु स्तर 30 दिन बाद भी सामान्य से बहुत कम था।

8-यह रिपोर्ट एथ्नोफार्माकोलोजी के शोध पत्र में दिसंबर 2007 में प्रकाशित हो चुकी है। रिपोर्ट में लिखा गया कि हवन के द्वारा न सिर्फ मनुष्य बल्कि वनस्पतियों एवं फसलों को नुकसान पहुचाने वाले बैक्टीरिया का भी नाश होता है।जिससे फसलों में रासायनिक खाद का प्रयोग कम हो सकता है।

9-हवन करने से न सिर्फ भगवान ही खुश होते हैं बल्कि घर की शुद्धि भी हो जाती है।हवन यज्ञ का ही परिणाम है कि ओजोन परतों के छेद कम होने लगे हैं।भारत के अतिरिक्त चीन, जापान, जर्मनी और यूनानआदि देशों में अग्नि को पवित्र माना जाता है। इन देशों में विभिन्न प्रकार की धूप जलाने का चलन है।वस्तुत: अग्नि में जो वस्तु जलाई जाती है उसका स्वरूप सूक्ष्म से सूक्ष्मतर हो जाता है।आधुनिक परमाणु वैज्ञानिकों ने अब इस तथ्य को पूर्णत: आत्मसात कर लिया है कि स्थूल से सूक्ष्म कहीं अधिक शक्तिशाली है।

10-यज्ञ में चार प्रकार के हव्य पदार्थ डाले जाते हैं। सुगंधित-केसर, अगर, तगर, गुग्गल, कपूर, चंदन, इलायची, लौंग, जायफल, जावित्री आदि।पुष्टिकारक-घृत, दूध, फल, कंद, मखाने, अन्न, चावल जौ, गेहूं, उड़द आदि।मिष्ट-शक्कर, शहद, छुहारा, किशमिश, दाख आदि।रोगनाशक-गिलोय, ब्राह्मी, शंखपुष्पी, मुलहठी, सोंठ, तुलसी आदि औषधियां अर्थात जड़ी-बूटियां जो हवन सामग्री में डाली जाती हैं।

11-प्राय: लोगों का विचार है कि यज्ञ में डाले गए घृत आदि पदार्थ व्यर्थ ही चले जाते हैं परंतु उनका यह विचार ठीक नहीं है। विज्ञान के सिद्धांत के अनुसार कोई भी पदार्थ कभी नष्ट नहीं होता अपितु उसका रूप बदलता है। यथा बर्फ का पिघल कर जल रूप में बदलना, जल का वाष्प रूप में बदल कर उड़ जाना। रूप बदलने का अर्थ नष्ट होना नहीं बल्कि अवस्था परिवर्तन है। बस यही सिद्धांत यज्ञ पर भी चरितार्थ होता है।

12-यज्ञ में डाले गए पदार्थ सूक्ष्म होकर आकाश में पहुंच जाते हैं। यज्ञ में पौष्टिक, सुगंधित और रोगनाशक औषधियों की हवन सामग्री से दी गई आहुतियों से पर्यावरण की शुद्धि होती है। सभी पदार्थ सूक्ष्म होकर पृथ्वी, आकाश, अंतरिक्ष में जाकर अपना प्रभाव दिखाते हैं। इससे मनुष्य, अन्य जीव-जंतु एवं वनस्पतियां सभी प्रभावित होते हैं।यज्ञ से शुद्ध हुई जलवायु से उत्पन्न औषधि, अन्न और वनस्पतियां आदि भी शुद्ध एवं निर्दोष होते हैं। वायु, जल आदि जो देव हैं वे यज्ञ से शुद्ध हो जाते हैं, आकाश मंडल निर्मल और प्रदूषणमुक्त हो जाता है। यही उन देवताओं का सत्कार और पूजा है।

13-अग्रि में समर्पित पदार्थ आकाश मंडल में पहुंच कर मेघ बनकर वर्षा में सहायक होते हैं। वर्षा से अन्न और अन्न से प्रजा की तुष्टि-पुष्टि होती है। इस प्रकार जो अग्निहोत्र करता है वह मानो प्रजा का पालन करता है। परमात्मा ने मनुष्य को बहुत कुछ दिया है परंतु क्या मनुष्य ने भी परमात्मा को यज्ञ के द्वारा कुछ दिया है? परमात्मा स्वयं वेद में कहता है :देहि में द दामि ते।।तुम मुझे दो, मैं तुम्हें देता हूं।अत: यज्ञ करते हुए बड़े प्रेम से वेदमंत्र बोल कर आहूति दो जिससे मन शुद्ध, पवित्र और निर्मल बन जाए , प्रदूषण समाप्त हो जाए और विश्व का कल्याण हो।

हवन का तात्विक अर्थ;-
1-श्वास जीवन दायिनी है, आने जाने वाली श्वास को हवन की आहुति वना लो। जब अपनी प्राण दायिनी श्वास को आहुति बना ली तो आप ध्यान करे।जब ध्यान में मूलाधार से ली गयी श्वास सभी चक्रों से गुजर कर, सहत्रार में पहुच कर वापिस मूलाधार को लौटती है तो आज्ञा चक्र में इन की आहुति हो जाती है।जो पाप आप ने किए यही जल जाते हैं ,शेष शुद्ध कर्म वापिस मूलाधार में पहुच जाते हैं।आज्ञा चक्र में ,यहाँ पापो की आहुति उस पवित्र ज्वाला में दी जाती है;जिसे हम माँ काली कहते हैं,जो हम सबके भीतर रहती हैं।यही ज्योति ही हमारे हवन में काम आती है।इससे बड़ा कोई हवन नही ,कोई पूजा नही।

2-सभी साधक जानते हैं कि ग्रहण काल मे मंत्र बहुत जल्दी सिद्ध हो जाते है।यह समय चन्द्र एवम सूर्य के विशेष योग से निर्मित होता है।यह समय हमेशा नही मिलता ।यदि साधक चाहे तो अपने खुद के शरीर में भी चंद एवम सूर्य को पहचान सकता है अर्थात चन्द्र स्वर एवम सूर्य स्वर ।यदि इन दोनो स्वर को मिला दे तो जो योग बनेगा वह सुषुम्ना नाड़ी का योग होगा।यदि इस अवस्था मे भी मन्त्र जप करे तो वह भी जल्दी उसी प्रकार सिद्ध होगा जैसे ग्रहण काल मे होता है।अपने शरीर में ही सब कुछ है।यदि खुद को खोज ले तो ईश्वर को जल्दी पाया जा सकता है।हमें अपनी श्वासो पर सवार माँ काली को जानना चाहिए ।

हवन कुंड और हवन के नियमों के बारे में विशेष जानकारी ;-
1-जन्म से मृत्युपर्यन्त सोलह संस्कार या कोई शुभ धर्म कृत्य यज्ञ अग्निहोत्र के बिना अधूरा माना

जाता है।शास्त्रों में अग्नि देव को जगत के कल्याण का माध्यम माना गया है जो कि हमारे द्वारा दी गयी होम आहुतियों को देवी देवताओं तक पहुंचाते है। जिससे देवगण तृप्त होकर कर्ता की कार्यसिद्धि करते है। इसलिये पुराणों में कहा गया है"अग्निर्वे देवानां दूतं''।कोई भी मन्त्र जाप की पूर्णता , प्रत्येक संस्कार , पूजन अनुष्ठान आदि समस्त दैवीय कर्म , हवन के बिना अधूरा रहता है।

2-हवन के प्रकार-हवन दो प्रकार के होते हैं वैदिक तथा तांत्रिक। आप हवन वैदिक करायें या तांत्रिक दोनों प्रकार के हवनों को कराने के लिए हवन कुंड की वेदी और भूमि का निर्माण करना अनिवार्य होता हैं। शास्त्रों के अनुसार वेदी और कुंड हवन के द्वारा निमंत्रित देवी देवताओं की तथा कुंड की सज्जा की रक्षा करते हैं। इसलिए इसे “मंडल” भी कहा जाता हैं।

3-हवन की भूमि – हवन करने के लिए उत्तम भूमि को चुनना बहुत ही आवश्यक होता हैं। हवन के लिए सबसे उत्तम भूमि नदियों के किनारे की, मन्दिर की, संगम की, किसी उद्यान की या पर्वत के गुरु ग्रह और ईशान में बने हवन कुंड की मानी जाती हैं। हवन कुंड के लिए फटी हुई भूमि, केश युक्त भूमि तथा सांप की बाम्बी वाली भूमि को अशुभ माना जाता हैं।

4-हवन कुंड की बनावट – हवन कुंड में तीन सीढियाँ होती हैं. जिन्हें “ मेखला ” कहा जाता हैं। हवन कुंड की इन सीढियों का रंग अलग – अलग होता हैं।

4-1. हवन कुंड की सबसे पहली सीधी का रंग सफेद होता हैं।

4-2. दूसरी सीढि का रंग लाल होता हैं।

4-3. अंतिम सीढि का रंग काला होता हैं।

5-ऐसा माना जाता हैं कि हवन कुंड की इन तीनों सीढियों में तीन देवता निवास करते हैं।

5-1. हवन कुंड की पहली सीढि में विष्णु भगवान का वास होता हैं।

5-2. दूसरी सीढि में ब्रह्मा जी का वास होता हैं।

5-3. तीसरी तथा अंतिम सीढि में शिवजी का वास होता हैं।

6-हवन कुंड के बाहर गिरी सामग्री को हवन कुंड में न डालें - आमतौर पर जब हवन किया जाता हैं तो हवन में हवन सामग्री या आहुति डालते समय कुछ सामग्री नीचे गिर जाती हैं। जिसे कुछ लोग हवन पूरा होने के बाद उठाकर हवन कुंड में डाल देते हैं। ऐसा करना वर्जित माना गया हैं। हवन कुंड की ऊपर की सीढि पर अगर हवन सामग्री गिर गई हैं तो उसे आप हवन कुंड में दुबारा डाल सकते हैं। इसके अलावा दोनों सीढियों पर गिरी हुई हवन सामग्री वरुण देवता का हिस्सा होती हैं. इसलिए इस सामग्री को उन्हें ही अर्पित कर देना चाहिए।

7-तांत्रिक हवन कुंड - वैदिक हवन कुंड के अलावा तांत्रिक हवन कुंड में भी कुछ यंत्रों का प्रयोग किया जाता हैं। तांत्रिक हवन करने के लिए आमतौर पर त्रिकोण कुंड का प्रयोग किया जाता हैं।
8-हवन कुंड के प्रकार - हवन कुंड कई प्रकार के होते हैं। जैसे कुछ हवन कुंड वृताकार के होते हैं तो कुछ वर्गाकार अर्थात चौरस होते हैं। कुछ हवन कुंडों का आकार त्रिकोण तथा अष्टकोण भी होता हैं।

हवन कार्य में विशेष सावधानियां ;-
1-मुँह से फूंक मारकर, कपड़े या अन्य किसी वस्तु से धोक देकर हवन कुण्ड में अग्नि प्रज्ज्वलित करना तथा जलती हुई हवन की अग्नि को हिलाना - डुलाना या छेड़ना नही चाहिए।

हवन कुण्ड में प्रज्ज्वलित हो रही अग्नि शिखा वाला भाग ही अग्नि देव का मुख कहलाता है। इस भाग पर ही आहुति करने से सर्वकार्य की सिद्धि होती है। अन्यथा....

1-1-कम जलने वाला भाग नेत्र - यहाँ आहुति डालने पर अंधापन ,

1-2-धुँआ वाला भाग नासिका - यहां आहुति डालने से मानसिक कष्ट ,
1-3-अंगारा वाला भाग मस्तक - यहां आहुति डालने पर धन नाश

1-4-काष्ठ वाला भाग अग्नि देव का कर्ण कहलाता है यहां आहुति करने से शरीर में कई प्रकार की व्याधि हो जाती है।

2-हवन अग्नि को पानी डालकर बुझाना नही चाहिए।

आहुति के अनुसार हवन कुंड बनवायें ;–
  • 1. अगर अगर आपको हवन में 50 या 100 आहुति देनी हैं तो कनिष्ठा उंगली से कोहनी (1 फुट से 3 इंच )तक के माप का हवन कुंड तैयार करें।
  • 2. यदि आपको 1000 आहुति का हवन करना हैं तो इसके लिए एक हाथ लम्बा (1 फुट 6 इंच ) हवन कुंड तैयार करें। .
  • 3. एक लक्ष आहुति का हवन करने के लिए चार हाथ (6 फुट) का हवनकुंड बनाएं।
  • 4. दस लक्ष आहुति के लिए छ: हाथ लम्बा (9 फुट) हवन कुंड तैयार करें।
  • 5. कोटि आहुति का हवन करने के लिए 8 हाथ का (12 फुट) या 16 हाथ का हवन कुंड तैयार करें।
  • 6. यदि आप हवन कुंड बनवाने में असमर्थ हैं तो आप सामान्य हवन करने के लिए चार अंगुल ऊँचा, एक अंगुल ऊँचा, या एक हाथ लम्बा – चौड़ा स्थण्डिल पीली मिटटी या रेती का प्रयोग कर बनवा सकते हैं।
  • 7. इसके अलावा आप हवन कुंड को बनाने के लिए बाजार में मिलने वाले ताम्बे के या पीतल के बने बनाए हवन कुंड का भी प्रयोग कर सकते हैं। शास्त्र के अनुसार इन हवन कुंडों का प्रयोग आप हवन करने के लिए कर सकते हैं। पीतल या ताम्बे के ये हवन कुंड ऊपर से चौड़े मुख के और नीचे से छोटे मुख के होते हैं।
  • 8-हवन कुण्ड का अर्थ है हवन की अग्नि का निवास-स्थान। प्राचीन काल में कुण्ड चौकोर खोदे जाते थे, उनकी लम्बाई, चौड़ाई समान होती थी । आज की स्थिति में कुण्ड इस प्रकार बनने चाहिए कि बाहर से चौकोर रहें, लम्बाई, चौड़ाई गहराई समान हो । पर उन्हें भीतर तिरछा बनाया जाय ।
  • 9-लम्बाई, चौड़ाई चौबीच-चौबीस अँगुल हो तो गहराई भी 24 अँगुल तो रखना चाहिये पर उसमें तिरछापन इस तरह देना चाहिये कि पेंदा छ:-छ: अँगुल लम्बा चौड़ा रह जाय । इस प्रकार के बने हुए कुण्ड समिधाओं से प्रज्ज्वलित रहते हैं, उनमें अग्नि बुझती नहीं । थोड़ी सामग्री से ही कुण्ड ऊपर तक भर जाता है और अग्निदेव के दर्शन सभी को आसानी से होने लगते हैं ।

सुरक्षा चक्र का महत्व;-
1-आपने साधना क्षेत्र में सुरक्षा चक्र के बारे मे पढा और सुना होगा।तंत्र साधना में कुछ उग्र साधना है कुछ सौम्य साधना है इनमें से सौम्य साधना बिना किसी बाधा के सिद्ध हो जाती है। उग्र साधना में कुछ भूल चूक होने पर हमें कई बार बहुत मुश्किलो का सामना करना पडता है। साधना के दौरान किसी विघ्न के कारण शक्ति के कोप का शिकार होना पडता है।

2-कुछ साधनायो मे चूक होने पर पागल या जान जाने का डर भी रहता है।कुछ मे परिवार के सदस्यो को हानि हो सकती है।तंत्र की क्रिया उलट होकर हमें नुकसान पहुचाती है।

तो इन सारी परेशानी से बचाव के लिये हम साधना करते समय एक सुरक्षा घेरा खींच कर साधना में बैठतै है।यही घेरा सुरक्षा चक्र कहलाता है।इसे कार लगाना भी कहते हैं।जो कुछ चूक होने पर हमारी रक्षा करता है।

कैसे लगाये सुरक्षा चक्र ;-
1-जब हम साधना करने बैठते है तो सबसे पहले हमें अपने आसन के चारो ओर एक गोल घेरा चाकू की मदद से खीच लेना चाहिये। घैरा खीचते समय अपने किसी रक्षा मंत्र का जाप करना चाहिये जो पहले से ही सिद्ध कर रखा हों।आप किसी रक्षा स्त्रोत का पाठ भी कर सकते है। किसी कवच को पढते हुये भी घेरा बना सकते है।

2-कुछ ना हो तो अपने गुरूमंत्र का जाप करते हुये भी घेरा बना सकते है।अपने इष्ट मंत्र से भी कार खीच सकते है। घेरा चाकू से , किसी लोहे की कील से भी खीच सकते हैं।अपने चारो ओर पानी से भी घेरा बना सकते हैं।मंत्र पढते हुये भस्म से भी घेरा खीचा जा सकता है।कुछ साधनाओं में सिन्दूर या शिगंरफ से भी घेरा बनाया जाता है।

3-चाहे कुछ हो साधना के दौरान हमेशा कार लगाकर ही बैठे फिर पूजन आदि शुरू करें।

कई साधनायो में कुछ बहुत ही डरावने अनुभव होते है।तो वो सब कार से बाहर ही होगे, कोई भी उपद्रव घेरे के अंदर प्रवेश नही कर सकता है।

4-शमसान में साधना करते समय हमेशा कार लगाकर बैठे।भूत प्रेत बहुत उपद्रवी होते है , ये साधक का साधना करते समय ही सामान उठा कर ले जाते है और बहुत परेशान करते है। इसलिये इनकी साधना चाहे घर में करो या बाहर हमेशा सुरक्षा घेरा खीच कर बैठे।

5-कुछ साधनायो में मल मूत्र की बरसात होती है।कुछ में आग के शोले बरसते है,कुछ में कटे हुये मानव अगो की बरसात होती है।तो यदि साधक ने कार नही लगायी है तो वो नुकसान उठा बैठता है। इसलिये हमेशा घेरा लगाकर ही साधना करें। चाहे जो साधना सिद्ध कर रखी हो , चाहे आपके इष्ट कोई हो , हमेशा घेरे के अंदर ही रह कर साधना करनी चाहिये। और चाहे जो हो जाये बीच में कभी भी आसन से खडे नही होना चाहिये।

6-साधना पूरी किये बिना भूलकर भी घेरे से बाहर नही जाना चाहिये।साधक यदि ऐसा करता है तो उसे हानि उठानी पड़ सकती है।साधना के दौरान जो घेरा आपने खीचा है उसके अंदर ही आपको सत्य दिखाई देखा। घेरे से बाहर की दुनिया आपके लिये असत्य है। घेरे से बाहर चाहे आपके परिवार वालो को कोई जान से मारता हुया दिखाई दें, चाहे ऑधी से पेड़ उखड कर अपने ऊपर गिरते दिखाई दें, अपने आसन पर जम कर बैठे रहना, आपका कुछ नही बिगडेगा।

7-यहीं गुरू और शिष्य का विश्वास काम आता है ।यदि गुरू के वचन का विश्वास नही किया , गिरते पेड़ को देख कर भागनै लगे, घेरे से बाहर गये तो वो आखिरी दौड़ हो सकती है। इसलिये कहा है कि जो डर गया सो मर गया आप ये समझ सकते है कि सुरक्षा चक्र हमारे लिये कितना आवश्यकहै।इसलिये कभी भी साहस कम होने पर ज्यादा उग्र साधना नही करनी चाहिये।शमसान साधना ,वैताल साधना आदि ऐसी ही उग्र साधना है ।ये साधना गुरू के सानिध्य में उनके साथ रहने पर ही करनी चाहिये।

मंत्र पुरश्चरण विधि ;-
1-किसी मंत्र का प्रयोग करने से पहले उसका विधिवत सिद्ध होना आवश्यक है।उसके लिये मंत्र का पुरष्चरण किया जाता है।पुरष्चरण का अर्थ है मंत्र की पॉच क्रियाये ,जिसे करने से मंत्र जाग्रत होता है और सिद्ध होकर कार्य करता है।
(मंत्र जाप का >दशांश हवन (का ) >,दशांश तर्पण (का ) > दशांश मार्जन (का) >दशांश साधु भोजन)

2-किसी नाम अथवा मंत्र से इक्षित फल की प्राप्ति के लिए उसमें पुरुश्चरण करने का विधान है। पुरुश्चरण क्रिया युक्त मंत्र शीघ्र फलप्रद होता है। मंत्रादि की पुरुश्चरण क्रिया कर लेने पर कोई भी सिद्धी अपने आराध्य मंत्र के द्वारा सरलता से प्राप्त की जा सकती है।

3-पुरुश्चरण के दो चरण हैं। किसी कार्य की सिद्धी के लिए पहले से ही उपाय सोचना, तदनुसार अनुष्ठान करना तथा किसी मंत्र, नाम जप, स्तोत्र आदि को अभीष्ट कार्य की सिद्धि के लिए नियमपूर्वक सतत् जपना। इष्ट सिद्धि की कामना से सर्वप्रथम मंत्र, नामादि का पुरश्चरण कर लें। अर्थात मंत्र में जितने अक्षर हैं उतने लाख जप करें। मंत्र का दशांश अर्थात दसवां भाग हवन करें। हवन के लिए मंत्र के अंत में ‘स्वाहा’ बोलें।

4-हवन का दशांश तर्पण करें। अर्थात मंत्र के अंत में ‘तर्पयामी’ बोलें। तर्पण का दशांश मार्जन करें अर्थात मंत्र के अंत में ‘मार्जयामि’ अथवा ‘अभिसिन्चयामी’ बोलें। मार्जन का दशांश साधु ब्राह्मण आदि को श्रद्धा भाव से भोजन कराएं, दक्षिणादि से उनको प्रसन्न करके उनका आशीर्वाद लें। इस प्रकार पुरुश्चरण से मंत्र साधक का कुछ भी असाध्य नहीं रह जाता।

5-अपने-अपने बुद्धि-विवेक अथवा संत कृपा से आराध्य देव का मंत्र, नाम, स्तोत्रादि चुनकर आप भी उसे सतत् जपकर जीवन को सार्थक बना सकते हैं। लम्बी प्रक्रिया में न जाना चाहें तो अपने आराध्य देव के शत, कोटि अथवा लक्ष नाम जप ही आपके लिए प्रभावशाली मंत्र सिद्ध हो सकते हैं।

6-भौतिक'इच्छा की पूर्ति के लिए आप सरल सा उपाय भी कर सकते हैं। एक प्रयोग पूरे 100 दिन का है अर्थात इसे सौ दिनों में पूरा करना है। बीच में यदि कोई दिन छूट जाए तो उसके स्थान पर उसी क्रम में दिनों की संख्या आप आगे भी बढ़ा सकते हैं। जिस प्रयोजन के लिए नाम, मंत्रादि, जप प्रारम्भ कर रहे हैं उसके अनुरुप बैठने का एक स्थान सुनिश्चित कर लें ।
यज्ञ के कुंडों की क्या महत्ता है;-

यज्ञ से वर्षा होती है, वर्षा से अन्न पैदा होता है, जिससे संसार का जीवन चलता है। वायुमंडल में मंत्रों का प्रभाव पड़ता है जो प्राकृतिक घटनाएं जैसे- भूकंप, ओलावृष्टि, हिंसात्मक घटनाओं का शमन होता है, क्योंकि यज्ञ शब्दब्रह्म है।

यज्ञ कुंड के प्रकार;-
यज्ञ कुंड मुख्यत: नौ प्रकार के होते हैं और सभी का प्रयोजन अलग अलग होता हैं ।

1 -योनी कुंड – योग्य पुत्र प्राप्ति हेतु ।

2 -अर्ध चंद्राकार कुंड – परिवार मे सुख शांति हेतु ।परन्तु पर पतिपत्नी दोनों को एक साथ आहुति देना पड़ती हैं ।

3 -त्रिकोण कुंड – शत्रुओं पर पूर्ण विजय हेतु ।

4 -वृत्त कुंड – जन कल्याण और देश मे शांति हेतु ।

5 -सम अष्टास्त्र कुंड – रोग निवारण हेतु ।

6 -सम षडास्त्र कुंड – शत्रुओ मे लड़ाई झगडे करवाने हेतु ।

7-चतुष् कोणास्त्र कुंड – सर्व कार्य की सिद्धि हेतु ।

8 -पदम कुंड – तीव्रतम प्रयोग और मारण प्रयोगों से बचने हेतु ।

9-विषम अष्टास्त्र/विषम षडास्त्र कुंड-लक्ष्मी प्राप्ति के लिए।

यज्ञ के नौ कुंडों की विशेषता ;-
1-सभी प्रकार की मनोकामना पूर्ति के लिए प्रधान चतुरस्त्र कुंड का महत्व होता है।

2-पुत्र प्राप्ति के लिए योनि कुंड का पूजन जरूरी है।

3- ज्ञान प्राप्ति के लिए आचार्य कुंड यज्ञ का आयोजन जरूरी होता है।

4-शत्रु नाश के लिए त्रिकोण कुंड यज्ञ फलदाई होता है।

5-व्यापार में वृद्धि के लिए वृत्त कुंड लाभदाई होता है।

6-मन की शांति के लिए अर्द्धचंद्र कुंड लाभदाई होता है।

7- लक्ष्मी प्राप्ति के लिए समअष्टास्त्र कुंड, विषम अष्टास्त्र कुंड, विषम षडास्त्र कुंड का विशेष महत्व होता है।

मण्डप का महत्व;-
1-मण्डपों के निर्माण में द्वार, खम्भे, तोरण द्वार, ध्वजा,शिखर, छादन, रङ्गीन वस्त्र आदि वर्णन हैं ।इनके वस्तु भेद, रङ्ग भेद, नाप दिशा आदि के विधान बताए गए हैं ।

2-मण्डपों के नाम भी अलग- अलग-प्रयोग विशेष के आधार पर लिखे गये हैं ।कुण्डों में चतुरस्र कुण्ड, योनि कुण्ड, अर्ध चन्द्र कुण्ड, अष्टास्त्र कुण्ड, सप्तास्त्र कुण्ड, पञ्चास्त्र कुण्ड, आदि अनेक प्रकार के कुण्डों के खोदने के अनेक विधान हैं ।कुण्डों के साथ में योनियाँ लगाने का वर्णन है ।योनियों के भेद-उपभेद एवं अन्तरों का विवेचन है ।इन सबका उपयोग बहुत बड़े यज्ञों में ही सम्भव है ।

3-इसी प्रकार अनेक देव-देवियाँ यज्ञ मण्डप के मध्य तथा दिशाओं में स्थापित की जाती हैं ।साधारण यज्ञों को सरल एवं सर्वोपयोगी बनाने के लिए मोटे आधार पर ही काम करना होगा ।मण्डप की अपने साधन और सुविधाओं की दृष्टि से पूरी-पूरी सजावट करनी चाहिये और उसके बनाने में कलाप्रियता, कारीगरी एवं सुरुचि का परिचय देना चाहिए ।

4-रंगीन वस्त्रों, रंगीन कागजों, केले के पेड़ों आम्र पल्लवों, पुष्पों, खम्भों, द्वारों, चित्रों, ध्वजाओं, आदर्श वाक्यों, फल आदि के लटकनों से उसे भली प्रकार सजाना चाहिए ।वेदी का कुण्ड जो कुछ भी बनाया जाय, टेका-तिरछा न हो ।उसकी लम्बाई-चौड़ाई तथा गोलाई सधी हुई हो ।

5-कुण्ड या वेदी को रंगविरंगे चौक पूर कर सुन्दर बनाना चाहिये ।पिसी हुई मेंहदी से हरा रंग, पिसी हल्दी से पीला रंग, आटे से सफेद रंग, गुलाल या रोली से लाल रंग की रेखाएँ खींचकर, चौक को सुन्दर बनाया जा सकता है ।6-सर्वतोभद्र, देव-स्थापना की चौकियाँ या वेदियाँ, कलश, जल घट, आसन आदि को बनाने या रखने में भी सौन्दर्य एवं शोभा का विशेष ध्यान रखना चाहिए । जिस प्रकार देव मन्दिरों में भगवान की प्रतिमा नाना प्रकार के वस्त्रों, आभूषणों, एवं श्रंङ्गारों से सजाई जाती है, उसी प्रकार यज्ञ भगवान की शोभा के लिए भी पूरी तत्परता दिखाई जानी चाहिये ।

7-कुण्ड और मण्डप-निर्माण के विधि-विधानों में जहाँ विज्ञान का समावेश है, वहाँ शोभा, सजावट, कला एवं सुरुचि प्रदर्शन भी एक महत्वपूर्ण कारण है ।

कुण्ड और मण्डप-निर्माण के विधि-विधान;-
1-कुण्ड और मण्डपों के सम्बन्ध में इस प्रकार के उल्लेख ग्रन्थों में मिलते है..बड़े यज्ञों में 32 हाथ ( 48 फुट) 36 फुट अर्थात 16 = 24 फुट का चौकोर मण्डप बनाना चाहिये ।मध्यम कोटि के यज्ञों में 14 ( 18 फुट) हाथ अथवा 12 हाथ (18 फुट) का पर्याप्त है ।छोटे यज्ञों में 10 हाथ ( 15 फुट ) या 8 ( 12 फुट) हाथ की लम्बाई चौडाई का पर्याप्त है ।

2-मण्डप की चबूतरी जमीन से एक हाथ या आधा हाथ ऊँची रहनी चाहिए ।बड़े मण्डपों की मजबूती के लिए 16 खंभे लगाने चाहिये ।खम्भों को रङ्गीन वस्त्रों से लपेटा जाना चाहिए । मण्डप के लिये प्रतीक वृक्षों की लकड़ी तथा बाँस का प्रयोग करना चाहिए ।मण्डप के एक हाथ बाहर चारों दिशाओं में 4 तोरण द्वार होते हैं,यह 7 हाथ ( 10 फुट 6 इंच) उँचे और 3. 5 चौड़े होने चाहिए ।

3-इन तोरण द्वारों में से पूर्व द्वार पर शङ्क,दक्षिण वाले पर चक्र,पच्छिम में गदा और उत्तर में पद्म बनाने चाहिए ।इन द्वारों में पूर्व में पीपल,पच्छिम में गूलर-उत्तर में पाकर,दक्षिण में बरगद की लकड़ी लगाना चाहिए,यदि चारों न मिलें तो इनमें से किसी भी प्रकार की लकड़ी चारों दिशाओं में लगाई जा सकती है ।

4-पूर्व के तोरण में लाल वस्त्र, दक्षिण के तोरण में काला वस्त्र, पच्छिम के तोरण में सफेद वस्त्र, उत्तर के तोरण में पीला वस्त्र लगाना चाहिए ।सभी दिशाओं में तिकोनी ध्वजाएँ लगानी चाहिये ।पूर्व में पीली, अग्निकोण में लाल, दक्षिण में काली, नैऋत्य में नीली,पच्छिम में सफेद, वायव्य में धूमिल, उत्तर में हरी, ईशान में सफेद लगानी चाहिये ।दो ध्वजाएँ ब्रह्मा और अनन्त की विशेष होती है,ब्रह्मा की लाल ध्वजा ईशान मेंऔर अनन्त की पीली ध्वजा नैऋत कोण में लगानी चाहिए ।

5-इन ध्वजाओं में सुविधानुसार वाहन और आयुध भी चित्रित किये जाते हैं ।ध्वजा की ही तरह पताकाएं भी लगाई जाती है इन पताकाओं की दिशा और रङ्ग भी ध्वजाओं के समान ही हैं ।पताकाएं चौकोर होती हैं ।एक सबसे बड़ा महाध्वज सबसे उँचा होता है ।मण्डप के भीतर चार दिशाओं में चार वेदी बनती हैं ।

6-ईशान में ग्रह वेदी,अग्निकोण में योगिनी वेदी,नैऋत्य में वस्तु वेदीऔर वायव्य में क्षेत्रपाल वेदी,प्रधान वेदी पूर्व दिशा में होनी चाहिए ।एक कुण्डी यज्ञ में मण्डप के बीच में ही कुण्ड होता है ।उसमें चौकोर या कमल जैसा पद्म कुण्ड बनाया जाता हैं ।

7-कामना विशेष से अन्य प्रकार के कुण्ड भी बनते हैं ।पंच कुण्डी यज्ञ में आचार्य कुण्ड बीच में,चतुरस्र पूर्व में,अर्थचन्द्र दक्षिण में,वृत पच्छिम मेंऔर पद्म उत्तर में होता है ।नव कुण्डी यज्ञ में आचार्य कुण्ड मध्य में चतुररसा्र कुण्ड पूर्व में,योनि कुण्ड अग्नि कोण में,अर्धचन्द्र दक्षिण में,त्रिकोण नैऋत्य में, वृत पच्छिम में,षडस्र वायव्य में,पद्म उत्तर में,अष्ट कोण ईशान में होता है ।

8-प्रत्येक कुण्ड में 3 मेखलाएं होती हैं ।ऊपर की मेखला 4 अंगुल,बीच की 3 अंगुल,नीचे की 2 अँगुल होनी चाहिए ।ऊपर की मेखला पर सफेद रङ्ग ,मध्य की पर लाल रङ्गऔर नीचे की पर काला रङ्ग करना चाहिए । 50 से कम आहुतियों का हवन करना हो तो कुण्ड बनाने की आवश्यकता नहीं ।भूमि पर मेखलाएं उठाकर स्थाण्डिल बना लेना चाहिए ।

9-50 से 99 तक आहुतियों के लिए 21अंगुल का कुण्ड होना चाहिए । 100से 999 तक के लिए 22. 5 अँगुल का,एक हजार आहुतियों के लिए 2 हाथ=( 1.5)फुट का,तथा एक लाख आहुतियों के लिए 4 हाथ ( 6 फुट)का कुण्ड बनाने का प्रमाण है ।

10-यज्ञ-मण्डप में पच्छिम द्वार से साष्टाङ्ग नमस्कार करने के उपरान्त प्रवेश करना चाहिए ।हवन के पदार्थ चरु आदि पूर्व द्वार से ले जाने चाहिए ।दान की सामग्री दक्षिण द्वार से और पूजा प्रतिष्ठा की सामग्री उत्तर द्वार से ले जानी चाहिए ।

11-कुण्ड के पिछले भाग में योनियों बनाई जाती है ।इनके सम्बन्ध में कतिपय विद्वानों का मत है कि वह वामार्गी प्रयोग है ।वे इसे अश्लील एवं अवैदिक भी बताते हैं ।अनेक याज्ञिक कुण्डों में योनि-निर्माण के विरुद्ध भी हैं और योनि-रहित कुण्ड ही प्रयोग करते हैं ।योनि निर्माण की पद्धति वेदोक्त है या अवैदिक, इस प्रश्न पर गम्भीर विवेचना अपेक्षणीय है ।लम्बाई, चौड़ाई, सब दृष्टि से चौकोर कुण्ड बनाने का कुण्ड सम्बन्धी ग्रन्थों में प्रमाण है ।

12-अनेक स्थानों पर ऐसे कुण्ड बनाये जाते हैं, जो लम्बे चौड़े और गहरे तो समान लम्बाई के होते हैं, पर वे तिरछे चलते हैं और नीचे पेंदे में जाकर ऊपर की अपेक्षा चौथाई-चौड़ाई में रह जाते हैं । इसके बीच में भी दो मेखलाएं लगा दी जाती हैं ।इस प्रकार बने हुए कुण्ड अग्नि प्रज्ज्वलित करने तथा शोभा एवं सुविधा की दृष्ठि से अधिक उपयुक्त हैं।

हवन की महत्ता -
हवन की महत्ता  देखते हुए राष्ट्रीय वनस्पति अनुसंधान संस्थान, लखनऊ के वैज्ञानिकों ने भी इस पर रिसर्च की। उन्होंने ग्रंथों में वर्णित हवन सामग्री जुटाई और जलने पर पाया कि यह विषाणु नाश करती है। फिर उन्होंने विभिन्न प्रकार के धुएं पर भी शोध किया और देखा कि सिर्फ एक किलो आम की लकड़ी जलने से हवा में मौजूद विषाणु बहुत कम नहीं हुए पर जैसे ही उसके ऊपर आधा किलो हवन सामग्री डाल कर जलाई गई, एक घंटे के भीतर ही कक्ष में मौजूद जीवाणुओं का स्तर 14 प्रतिशत कम हो गया।

यही नहीं, उन्होंने आगे भी कक्ष की हवा में मौजूद जीवाणुओं का परीक्षण किया और पाया कि कक्ष के दरवाजे खोले जाने और सारा धुआं निकल जाने के 24 घंटे बाद भी जीवाणुओं का स्तर सामान्य से 96 प्रतिशत कम था। बार-बार परीक्षण करने पर ज्ञात हुआ कि इस बार के धुएं का असर एक माह तक रहा और उस कक्ष की वायु में विषाणु स्तर 30 दिन बाद भी सामान्य से बहुत कम था। रिपोर्ट में लिखा गया कि हवन द्वारा न सिर्फ मनुष्य बल्कि वनस्पतियों, फसलों को नुक्सान पहुंचाने वाले जीवाणुओं का नाश होता है जिससे फसलों में रासायनिक खाद का प्रयोग कम हो सकता है।

हवन- मेरी आस्था
हिंदू धर्म में सर्वोपरि पूजनीय वेदों और ब्राह्मण ग्रंथों में यज्ञ/हवन की क्या महिमा है, उसकी कुछ झलक इन मन्त्रों में मिलती है-

अग्निमीळे पुरोहितं यज्ञस्य देवमृत्विजम्. होतारं रत्नधातमम् [ ऋग्वेद १/१/१/]

समिधाग्निं दुवस्यत घृतैः बोधयतातिथिं. आस्मिन् हव्या जुहोतन. [यजुर्वेद 3/1]

अग्निं दूतं पुरो दधे हव्यवाहमुप ब्रुवे. [यजुर्वेद 22/17]

सायंसायं गृहपतिर्नो अग्निः प्रातः प्रातः सौमनस्य दाता. [अथर्ववेद 19/7/3]

प्रातः प्रातः गृहपतिर्नो अग्निः सायं सायं सौमनस्य दाता. [अथर्ववेद 19/7/4]

तं यज्ञं बर्हिषि प्रौक्षन् पुरुषं जातमग्रतः [यजुर्वेद 31/9]

अस्मिन् यज्ञे स्वधया मदन्तोधि ब्रुवन्तु तेवन्त्वस्मान [यजुर्वेद 19/58]

यज्ञो वै श्रेष्ठतमं कर्म [शतपथ ब्राह्मण 1/7/1/5]

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