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सिद्ध शक्तिपीठ देवी पाटन,नमो नमो पाटन की माई

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सिद्ध शक्तिपीठ मां पाटेश्वरी का मन्दिर देवी पाटन उत्तर प्रदेश के बलरामपुर जिले में तुलसीपुर रेलवे स्टेशन से पश्चिमोत्तर लगभग एक किलोमीटर पर सिरिया सूर्या रामगंगा , नदी के पूर्वी तट पर स्थित है। यह पूरे देश के विभिन्न भागों में अवस्थित 51 शक्तिपीठों में 26 वां है और इनमें इसका विशिष्ट स्थान है। यह शक्तिपीठ युगों से शक्ति की प्रतीक दुर्गा - जाग्रत भगवती पीठ के रूप में सुख्यात है। 

देवीपाटन मंदिर उत्तर प्रदेश राज्य के बलरामपुर नगर में स्थित है। देवीपाटन मंदिर में स्थित जगदमाता पाटेश्वरी अपने अलौकिक इतिहास को समेटे हुए है। युगों-युगों से ऋषि-मुनियों के तप व वैराग्य का साक्षी रहा यह स्थल अपने अतीत की गौरव गाथा खुद बयां करता है। यह ऐतिहासिक मंदिर उत्तर भारत में नेपाल सीमा से सटे बलरामपुर जिले के जनपद मुख्यालय से लगभग तीस किलोमीटर तुलसीपुर तहसील के सूर्या (सिरिया) नदी के तट पर पाटन गांव में स्थित है। ग्राम पंचायत देवीपाटन में प्राकृतिक छटा के बीच स्थित माँ पाटेश्वरी देवी का यह मंदिर हजारों वर्षो से भक्तों के आस्था व विश्वास का केन्द्र बना हुआ है। विश्व प्रसिद्ध मंदिर को कई पौराणिक कथाओं के साथ सिद्धपीठ होने का गौरव प्राप्त है। यहां देश-विदेश से आने वाले भक्तों का तांता बारह महीने लगा रहता है। साल में दो बार चैत्र व शारदीय नवरात्र पर यहां विशेष उत्सव के साथ मेला लगा रहता है। इस समय माता के दर्शनार्थियों व उनके आशीषाभिलासियों की विशाल भीड़ रहती है।

51 शक्तिपीठों में से एक
मां सती और सीता की शक्तियों से परिपूर्ण देवीपाटन मंदिर अपने गौरवमयी इतिहास को समेटे हुए है। लोगों की श्रद्धा है कि यहां विद्यमान सूर्यकुंड, त्रेतायुग से जल रहा अखंड धूना व अखंड ज्योति में माँ दुर्गा के शक्तियों का वास है और इतिहास गवाह है कि सिद्ध रत्‍‌ननाथ (नेपाल) व गुरु गोरखनाथ को सिद्धि भी यहीं प्राप्त हुई थी। कण-कण में देवत्व का वास होने से इस मंदिर पर देश-विदेश (विशेष रूप से नेपाल) से लाखों श्रद्धालु मनोकामना पूर्ण करने के लिए अनुष्ठान व्रत एवं पूजन करते हैं। वर्तमान समय में माँ पाटेश्वरी देवी का यह मंदिर 51 शक्तिपीठों में से एक है। इसका अपना एक विशेष महत्व है। कन्या कुमारी से लेकर बंगाल, बिहार सहित पड़ोसी देश नेपाल तक के श्रद्धालु अपनी मनोकामना पूरी करने के लिए इस मंदिर पर अपना मत्था टेकने आते हैं। मंदिर पर मुख्यतः प्रसाद के रूप में चुनरी, नारियल आदि चढ़ाया जाता है। मन्दिर की विशिष्टता की ही वजह से इसे देवी पाटन के नाम से भी जाना जाता है।

देवी का प्रतिमा
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पाटेश्वरी मंदिर के अंत:कक्ष: में कोई प्रतिमा नहीं है। वरन् चांदी जड़ित गोल चबूतरा है, जिस पर कपडा बिछा रहता है। उसी के ऊपर ताम्रछत्र है। जिस पर पूरी दुर्गा सप्तसती के श्लोक अंकित है। उसके नीचे अनेक रजत छत्र है। वहां घी की अखण्ड दीपज्योति जलती रहती है। मंदिर की परिक्रमा में मातृ्गणों के यंत्र विधमान है। मंदिर के उत्तर में सूर्यकुण्ड है, जहां रविवार को षोडशोपचार पूजन करने से कुष्ठरोग का निवारण होता है। तथा अखण्ड धूनी भी जलती रहती है। देवीपाटन मंदिर में शैलपुत्री, ब्रह्मचारिणी, चन्द्रघंटा, कूष्मांडा, स्कन्दमाता, कात्यायनी, कालरात्रि, महागौरी तथा सिद्धीदात्री नौ दुर्गा की प्रतिमायें स्थापित है। इस शक्तिपीठ में स्थापना काल से ही दीपक प्रज्ज्वलित हो रहा है जिसे अखण्ड ज्योति कहा जाता है। शारदीय नवरात्रि के प्रथम दिन से ही पड़ोसी देश नेपाल व देश के कई क्षेत्रों से आये देवीभक्त नारियल, चुनरी, लावा, नथुनी, सिन्दूर , मांगटीका, चूड़ी, बिछिया, पायल, कपूर, धूप, लौंग, इलाइची, पुष्प, चरणामृत और प्रमुख रुप से रोट का प्रसाद चढाकर माँ का श्रृंगार करने के साथ हवन पूजन वैदिक रीति से करते हैं। वर्तमान में नाथ सम्प्रदाय के मंहथ योगी कौसलेन्द्रनाथ जी महाराज यहां के महंत व व्यवस्थापक है।

पौराणिक कथाएँ
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भगवान श्रीराम और देवी सीता
पाटेश्वरी देवी के नाम से विख्यात इस मंदिर का इतिहास रोचकता व चमत्कारों से भरा है। लोकश्रुति के अनुसार त्रेतायुग में भगवान श्रीराम अपनी अर्धांगिनी देवी सीता को राक्षस रावण के संहार के बाद जब अयोध्या लाये तो उन्हें पुन: अग्नि परीक्षा देनी पड़ी। हालांकि लंका में ही उन्होंने अग्नि में प्रवेश कर परीक्षा दे दी थी। सीता को काफ़ी दु:ख हुआ। माता सीता ने अपनी माता धरती से विनय किया कि यदि वह वास्तव में सती हैं तो यहीं धरती फट जाएं एवं धरती माता उन्हें अपने में समाहित कर लें। इतना कहते ही ज़मीन फट गयी और एक सिंहासन पर बैठकर धरती माँ पाताल लोक से ऊपर आयीं। अपनी धरती माँ के साथ सीता जी भी पाताल लोक चली गयीं। इसलिए इस स्थान का नाम पातलेश्वरी देवी पड़ा, जो कालांतर में पाटेश्वरी देवी नाम से विख्यात हुआ। इस तरह देवीपाटन सिद्ध योगपीठ तथा शक्तिपीठ दोनों है। इसी गर्भगृह पर माता का भव्य मंदिर बना हुआ है। आज भी मंदिर में पाताल तक सुरंग बताई जाती है, जो चांदी के चबूतरे के रूप में दृष्टिगत है। गर्भगृह के ऊपर माँ पाटेश्वरी की प्रतिमा व चांदी का चबूतरा के साथ कई रत्नजडित छतर है और ताम्रपत्र पर दुर्गा सप्तशती अंकित है। प्रसाद पहले इसी चबूतरे पर चढ़ाया जाता था लेकिन सुरक्षा की दृष्टि से अब प्रसाद बाहर चढ़ाया जाता है। चबूतरे के पास एक भव्य दुर्गा प्रतिमा स्थापित है।

महादेवी सती और भगवान शंकर
वहीं शास्त्रों में उल्लिखित स्कंद पुराण के अनुसार एक बार महादेवी सती के पिता दक्ष प्रजापति ने अपने यज्ञ में सभी देवी-देवताओं को आमंत्रित किया था, लेकिन सती के पति भगवान शंकर को आमंत्रित नहीं किया। शिव के मना करने पर महादेवी सती इस यज्ञ में भाग लेने पहुंची लेकिन इस यज्ञ में भगवान शिव का उचित स्थान न देखकर क्रोधित हो उठी और अपने मायके में धधकती हवन कुंड में कूद कर अपने प्राण त्याग दिये। यह सूचना शिव को मिलते ही सती के मोह से आकुल हो उठे और उन्होंने दक्ष प्रजापति के घर पहुंचकर वहां यज्ञ को विध्वंस कर दिया। भगवान शंकर उनके मृत शरीर को कंधे पर लेकर तीनों लोकों में विचरण करने लगे और सती के शव को लेकर आकाश में तांडव नृत्य करने लगे। जिससे सृष्टि का संतुलन बिगड़ने लगा। सभी देवी-देवता यह देखकर घबरा गये और उन्हें लगा कि अब प्रलय हो जायेगी। सभी देवता व ऋषि व्याकुल होकर भगवान विष्णु से प्रार्थना की कि शिव का क्रोध शांत करें। तब भगवान विष्णु ने लोकहित में अपने सुदर्शन चक्र से सती के अंगों को 51 भागों में काटकर शिव से अलग कर उनके मोह को शान्त किया। इस दौरान महादेवी सती के कटे अंग व वस्त्र जिन-जिन स्थानों पर गिरे, उन्हें सिद्ध शक्तिपीठ माना गया। इस तरह 51 शक्तिपीठ हैं। लेकिन उपवस्त्रों, उपांगों और आभूषणों के गिरने के स्थानों को मिलाकर ऐसे स्थानों की संख्या 108 है। उन्हीं शक्ति पीठों में से यह एक है। देवीपाटन मंदिर में सती का बायां कंधा वस्त्र (वाम स्कंध वस्त्र) सहित गिरा था, जो सिद्ध शक्तिपीठ कहलाया। इस बात की पुष्टि शास्त्र में उल्लिखित इस श्लोक से होती है -

'पटेन सहित: स्कन्ध:, पपात यत्र भूतले।
तत्र पाटेश्वरी नाम्ना, ख्यातिमाप्ता महेश्वरी।।'

दानवीर कर्ण
एक अन्य पौराणिक कथा के अनुसार माँ पाटेश्वरी के इस पावन पीठ का इतिहास महाभारत काल से जुड़ा है। मान्यता के अनुसार दानवीर कर्ण ने भगवान परशुराम से इसी स्थान पर स्थित पवित्र सरोवर में स्नान कर शास्त्र विद्या की शिक्षा ली थी।

इतिहास
यह स्थल कई महापुरुषों की कर्मस्थली का साक्षी भी है। मंदिर के इतिहास के अनुसार भगवान परशुराम ने यहीं तपस्या की थी। द्वापर युग में सूर्यपुत्र कर्ण ने भी यहीं भगवान परशुराम से दिव्यास्त्रों की दीक्षा ली थी। कहते हैं कर्ण मंदिर के उत्तर स्थित सूर्यकुड में प्रतिदिन स्नान कर उसी जल से देवी की आराधना करते थे। वही परंपरा आज भी चली आ रही है। इस मंदिर का जीर्णोद्धार राजा कर्ण ने कराया था। औरंगजेब ने अपने सिपहसालार मीर समर को इसे नष्ट और भ्रष्ट करने का जिम्मा सौंपा था, जो सफल नहीं हो सका और देवी प्रकोप का शिकार हो गया। उसकी समाधि मंदिर के पूरब में आज भी अवस्थित है। जनश्रुति के अनुसार सम्राट विक्रमादित्य ने प्राचीन मंदिर का जीर्णोद्वार कराया था, जिसे औरंगजेब ने ध्वस्त कर दिया था। तदनंतर नए मंदिर का निर्माण हुआ। कहते है, कि कर्ण ने यहां परशुराम से ब्रह्मास्त प्राप्त किया था। गुरु गोरक्षनाथ व पीर रत्ननाथ ने इसी स्थल पर सिद्धि प्राप्त कर आगे चलकर नाथ सम्प्रदाय के प्रणेता बने। सिद्ध शक्तिपीठ देवीपाटन में शिव कि आज्ञा से महायोगी गोरखनाथ ने पाटेश्वरी पीठ की स्थापना कर माँ की आराधना तथा योगसाधना की थी। ऐसा उल्लेख देवीपाटन के एक शिलालेख से मिलता है।

भारत-नेपाल की मित्रता
देवीपाटन मंदिर भारत-नेपाल के बीच मित्रता को न केवल सतत अक्षुण्ण बनाये हुए है, वरन् उसे प्रगाढ़ बनाये रखने में महती भूमिका निभाता है। नेपाल के दांग-चोघड़ा मठ में स्थापित पीर रत्ननाथ को सिद्धि भी देवीपाटन में मिली थी। भगवान शिव के अवतार के रूप में अवतरित गुरु गोरक्षनाथ के शिष्य रत्ननाथ के दो मठ थे। रत्ननाथ की तपस्या से खुश होकर माँ साक्षात् प्रकट हुई और वर मांगने के लिए कहा तो पीर रत्ननाथ ने उनसे यही वर मांगा कि उनकी पूजा इस मठ में भी हो। माँ दुर्गा ने उनको ऐसा ही आशीर्वाद दिया। देवीपाटन मंदिर में नेपाल से पीर रत्ननाथ की शोभायात्रा प्रत्येक वासंती नवरात्र की पंचमी को यहां पहुंचती है और पांच दिन तक वहां से आये पुजारियों द्वारा मंदिर में पूजा के साथ-साथ रत्ननाथ की भी पूजा की जाती है। इस दौरान मंदिर में लगे घंटे आदि नहीं बजाये जाते हैं। रत्ननाथ की पूजा में शामिल होने के लिए भारत और नेपाल के हजारों श्रद्धालु भी इस अवसर पर मौजूद रहते हैं।

कहते है, देवीपाटन नेपाल के सिद्ध योगी बाबा रतननाथ की शक्ति उपासना का स्थल है। जहां वे प्रतिदिन योगशक्ति से नेपाल के दांग पहाडी से आकर महामाया पाटेश्वरी की पूजा करते थें। अब उनकी भी पूजा यहां पर होती है। ऐसा माना जाता है, कि चैत्र शुक्ल पंचमी से एकादशी तक बाबा रतननाथ पाटन में अप्रत्यक्ष रुप से मौजूद रहते है। नवरात्रों में यहां भव्य मेला लगता है, और इसमें भक्त उनके अपार सौन्दर्य से सम्मोहित हो भव बंधन से मुक्त हो जाते है।

नवरात्र में
अपनी मनोवांछित फल प्राप्ति की अभिलाषा श्रद्धालुओं को बरबस ही यहां खींच लाती है। माँ दुर्गा की आराधना और भक्ति के लिए शारदीय नवरात्र सबसे उपयुक्त माना जाता है। यही कारण है कि श्रद्धा की जब धारा फूटती है तब आदि शक्ति माँ पाटेश्वरी के दर्शन पूजन के लिए बासंतीय नवरात्र में लगने वाले एक माह के मेले में मंदिर देवीपाटन में लाखों की भीड़ उमड़ पड़ती है। नवरात्र के प्रथम दिन से ही देवीपाटन मंदिर पर भीड़ होने लगती है, जो नवरात्र के अंतिम दिन तक रहता है। उत्तर भारत के इस सबसे बड़े मेले में देश-विदेश के लाखों श्रद्धालु आते रहते हैं और उनकी मनोकामना भी पूर्ण होती है। यही नहीं इसी नवरात्र के पंचमी तिथि को प्रत्येक वर्ष नेपाल से आने वाले सिद्ध रत्ननाथ की शोभा यात्रा लोगों के आकर्षण का केन्द्र होती है। मंदिर व्यवस्थापक विधायक महंत कौशलेन्द्र नाथ योगी ने बताया कि यह सिद्ध शक्तिपीठ है, यहां सच्चे मन से आने वाले भक्तों की मनोकामना माँ पाटेश्वरी पूरा करती हैं। इस स्थल पर लाखों भक्तगण अपने संतानों की दीर्घायु, सुरक्षा व दैवीय प्रकोप आदि से बचने के लिए उनका मुण्डन, अन्नप्रासन, यज्ञोपवीत व अक्षरारंभ संस्कार सहित अन्य संस्कार यही कराते हैं तथा नौ दिन उपवास व व्रत रखकर दुर्गा सप्तशती का पाठ, श्रीमद् देवी भागवत कथा का श्रवण करने के उपरांत यज्ञशाला में हवन कर अपना अनुष्ठान पूरा करते हैं। उन्होंने बताया कि माँ दुर्गा की आराधना व अनुष्ठान के लिए मंदिर देवीपाटन भक्तों के लिए काफ़ी महत्व रखता है। श्रद्धालु सुबह तीन बजे से ही पंक्तिबद्ध होकर माँ पाटेश्वरी के दर्शन करने के लिए अपनी बारी की प्रतीक्षा करते हैं।

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