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महर्षि उद्दालक ऋषि की तपस्थली है मनोरमा

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गोण्डा जनपद के इटियाथोक का मनोरमा मदिर व गौतम वंश के महान उन्नायक अरूणि उद्दालक ऋषि व मनोरमा नदी के उद्गम से अस्तित्व समाप्त होने तक सम्पूर्ण वृतान्त

सरस्वती जी ब्रह्मा जी के चेहरे से उत्पन्न हुई थीं। इस कारण उन्हे ब्रह्मा जी की पुत्री कहा जाता है। बाद में ब्रह्मा जी ने उन्हे बताया था कि वह विद्वानों की जिह्वा , पृथ्वीलोक पर नदी बनकर तथा स्वयं ब्रह्मा जी के साथ रह सकती हैं। ब्रह्म पुराण के अध्याय 43 के अनुसार सरस्वती जी ने ब्रह्मा जी की तीनों शर्तो को स्वीकार कर लिया था और तदनुरूप् रहना शुरू कर दिया था।
               
उत्तर प्रदेश के गोण्डा जिले में उत्तर दिशा में राप्ती व बूढ़ी राप्ती तथा दक्षिण में घाघरा नदी बहती हैं। इनके बीच में अनेक छोटी नदियां बहती है। राप्ती के दक्षिण सूवावान उसके दक्षिण कुवानो फिर क्रमशः विसुही, मनवर, टेहरी,सरयू तथा घाघरा बहती है। गोण्डा जिला मुख्यालय से 19 किमी. की दूरी पर इटिया थोक नामक जगह स्थित है। यहां उद्दालक ऋषि का आश्रम मनोरमा मंदिर तथा तिर्रे नामक एक विशाल सरोवर है। इस स्थान की उत्पत्ति महाभारत के शल्य पर्व अध्याय 38 श्लोक 25 व अध्याय 33 तथा पुरानिक इनसाइक्लोपीडिया पृ. 84 में वर्णित है। अयोदधौम्य गौतम वंश के एक प्राचीन ऋषि थे। इनके तीन प्रमुख शिष्य थे- अरूणि, उपमन्यु तथा वेद। अरूणि पांचाल देश में रहते थे। एक दिन गुरू ने खेत बांधने के लिए भेजा था। इसे वह स्वय टूटे बंाध की जगह लेटकर रोका था। इस पर प्रसन्न होकर गुरू ने अपने शिष्य का नाम उद्दालक रख दिया था। पहले उन्हे अरूणि उद्दालक कहा जाता था बाद में उद्दालक ही कहा जाने लगा। उपमन्यु उनका दूसरा शिष्य कुएं में गिर गया था। उसने भी अपनी परीक्षा में सफलता प्राप्त  कर लिया था।   

उद्दालक ऋषि ने अपने यज्ञ स्थल पर सरस्वती नदी को प्रकट होने की इच्छा की थी। पुरानिक इनसाइक्लोपीडिया पृ. 48, 803 के अनुसार ऋषि के प्रभाव को देखते हुए सरस्वती नदी वहां प्रकट हुई थी। ऋषि ने मनोरमा नाम दिया था। यह भी कहा जाता है कि तिर्रे तालाब के पास उन्होंने अपने नख से एक रेखा खीचंकर गंगा का आहवान किया तो गंगा सरस्वती ( मनोरमा ) नदी के रूप में अवतरित हुई थीं। सरस्वती नदी को ब्रह्मा के चेहरे से उत्पन्न होने के कारण ब्रह्मा की पुत्री भी कहा जाता है।उन्होंने ब्रहमाजी से अपना नाम पूछा तो ब्रह्मा जी ने बताया था- तुम्हारा नाम सरस्वती है। तुम तीन जगह रह सकती हो- 1. विद्वानों के जिह्वा के अग्रभाग पर तुम नृत्य करोगी। 2. पृथ्वी लोक में नदी के रुप समाज का कल्याण करोगी। 3. मेरे साथ निवास करोगी। सरस्वती ने इन शर्तों को स्वीकार कर लिया था।

इटियाथोक के पास स्थित उद्यालक के आश्रम के पास एक विशाल मेले का आयोजन किया जाता है। जहां विशाल संख्या में श्रद्धालु पवित्र सरोवर तथा मनोरमा नदी में स्नान करते हैं तथा सौकड़ों दुकाने दो दिन पहले से ही सज जाती हैं। चीनी की मिठाई, गट्टा, बरसोला तथा जिलेबी आदि यहां की मुख्य मिष्ठान हैं। उद्दालक के दो सन्तानें बतायी जाती है। पुत्र श्वेतकेतु और पुत्री सुजाता। श्वेतकेतु ब्रह्म विद्या में निपुण थे। उद्दालक के शिष्य कहोड़ से सुजाता की शादी हुई थी। इस दम्पति से अष्टावक्र नामक विद्वान पुत्र उत्पन्न हुआ था। 

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एक अन्य उल्लेख में आया है कि उद्दालक ऋषि के पुत्र नचिकेता ने मनवर नदी से थोड़ी दूर तारी परसोइया नामक स्थान पर ऋषियों एवं मनीषियों को नचिकेता पुराण सुनाया था। नचिकेता पुराण में मनोरमा महात्म्य का वर्णन इस प्रकार किया है-

अन्य क्षेत्रे कृतं पापं काशी क्षेत्रे विनश्यति।
काशी क्षेत्रे कृतं पापं प्रयाग क्षेत्रे विनश्यति।
प्रयाग क्षेत्रे कृतं पापं  मनोरमा  विनश्यति।
मनोरमा कृतं पापं   वज्रलेपो   भविष्यति।।

पुराणों में इसे सरस्वती की सातवीं धारा भी कहा गया है। मूल सरस्वती अपने वास्तविक स्वरूप को खोकर विलुप्त हो चुकी हैं, परन्तु मनोरमा के रूप में आज भी हम लोगों को अपना स्वरूप दिखलाकर दर्शन कराती हैं। इसके नाम के बारे में यह जनश्रुति है कि जहां मन रमे वही मनोरमा होता है। जहां मन का मांगा वर मिले उसे ही मनवर कहा जाता है। चूंकि ऋषि के मन के संकल्प व इच्छा की पूर्ति करते हुए सरस्वती जी ने यहां अवतरण किया था। इसलिए उनका मनोरमा व मनवर नाम पूर्णतः उनके अवतरण की घटना की पुष्टि भी करता है। इसकी पवित्र धारा मखोड़ा धाम से बहते हुए ण् आगे जाती है। गोण्डा के तिर्रेताल से निकलने वाली यह नदी बस्ती जिले की सीमा पर सीकरी जंगल के सहारे पूर्व दिशा में अनियमित धाराओं के रूप में बहती है। गोण्डा के चिगिना में नदी तट पर राजा देवी बक्स सिंह का बनवाया प्रसिद्ध मन्दिर स्थित है। 

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गोण्डा परगना और मनकापुर परगना के बीच कुछ दूर यह पूर्व दिशा में बहने के बाद यह बस्ती जिले के परशुरामपुर विकास खण्ड के समीप बस्ती जिले में प्रंवेश करती है। इसके दोनों तरफ प्रायः जंगल व झाड़ियां उगी हुई हैं। बिंदिया नगर के पास इसमे मंद मंद बहने वाली चमनई नामक एक छोटी नदी मिल जाती है। यहां यह पूर्व के बजाय दक्षिण की ओर बहना शुरू कर देती है। जो मनकापुर और महादेवा परगना का सीमांकन भी करती है। इस मिलन स्थल से टिकरी जंगल के सहारे यह दक्षिण पश्चिम पर चलती है। यह नदी दलदली तथा गच के पौधों से युक्त रहा करती है। ये दोनो नदियां नबाबगंज उत्तरौला मार्ग को क्रास करती हैं जहां इन पर पक्के पुल बने है। इसकी एक अलग धारा छावनी होकर रामरेखा बनकर सरयू या घाघरा में मिलकर तिरोहित हो जाती है। और मूल धारा अमोढा परगना के बीचोबीच परशुरामपुर, हर्रैया, कप्तानगंज , बहादुरपुर एवं कुदरहा आदि विकासखण्डों तथा नगर पूर्व एवं पश्चिम नामक दो परगनाओं से होकर बहती हुई गुजरती है। यह हर्रैया तहसील के बाद बस्ती सदर तहसील के महुली के पश्चिम में लालगंज में पहुचकर कुवानो नदी में मिलकर तिरोहित हो जाती है।

उद्दालक, उपनिषद् युग के श्रेष्ठ तत्ववेत्ताओं में मूर्धन्य चिंतक थे। ये गौतम गोत्रीय अरुणि ऋषि के पुत्र थे और इसीलिए 'आरुणि' के नाम से विशेष प्रख्यात हैं। ये महाभारत में धौम्य ऋषि के शिष्य तथा अपनी एकनिष्ठ गुरुसेवा के निमित्त आदर्श शिष्य बतलाए गए हैं। (महाभारत, आदिपर्व)।

प्रायः माना जाता है कि ग्रीक सन्त थेल्स (७६ ईसापूर्व) विज्ञान के अग्रदूत थे। किन्तु प्रसिद्ध इतिहासकार देबीप्रसाद चट्टोपाध्याय ने सिद्ध किया है कि वास्तव में थेल्स नहीं बल्कि उद्दालक प्रथम चिन्तक थे जिन्होने ज्ञान प्राप्ति के लिए प्रयोग की आवश्यकता का प्रतिपादन किया था।

गुरुभक्त आरुणि
ऋषि धौम्य के आश्रम में कई छात्र रहते थे। वह उन्हें पूरी तत्परता से पढ़ाते, साथ ही उनकी कड़ी परीक्षा भी लेते रहते थे। इन परीक्षाओं में अलग-अलग कसौटियां तय की जातीं और देखा जाता कि विद्यार्थी सीखी गई विद्या और गुरु के प्रति कितना निष्ठावान है।

एक दिन मूसलाधार वर्षा हो रही थी। गुरु ने अपने एक छात्र आरुणि से कहा, 'बेटा! खेत की मेड़ टूट जाने से पानी बाहर निकला जा रहा है, सो तुम जाकर मेड़ बांध आओ।' आरुणि तत्काल उठ खड़ा हुआ और खेत की ओर चल दिया। पानी का बहाव तेज था। आरुणि ने मिट्टी जमाने की कोशिश की पर बहाव रुका नहीं। कोई उपाय न देख आरुणि उस स्थान पर लेट गया। इस प्रकार उसने पानी को रोक दिया मगर बहाव और वर्षा के वेग से वह बेहोश हो गया। बहुत रात बीत जाने पर भी जब वह न लौटा तो धौम्य को चिंता हुई। वह खेत पर उसे ढूंढने पहुंचे। देखा तो आरुणि पानी को रोके मेड़ के पास लेटा था। देखते ही गुरुजी भावविभोर हो गए।

आरुणि के विचार
आरुणि के अध्यात्म विचारों का विस्तृत विवेचन छांदोग्य तथा बृहदारण्यक उपनिषदों में बड़े रोचक ढंग से किया गया है। तत्ववेत्ताओं के इतिहास में आरुणि का पद याज्ञवल्क्य के ही समकक्ष माना जाता है जो इनके शिष्य होने के अतिरिक्त उपनिषत्कालीन दार्शनिकों में नि:संशय सर्वश्रेष्ठ माने जाते हैं।

मनोवैज्ञानिक तथ्यों के विषय में आरुणि की मान्यता है कि निद्रा का मुख्य हेतु 'श्रम' है और निद्रा की दशा में जीव आत्मा के साथ ऐक्य धारण कर लेता है (छांदोग्य ६.८.१)। मृत्युकालीन चेतना के विषय में आरुणि का कथन है कि जब मनुष्य मरता है, तब उसकी वाक्मन में अंतर्लीन हो जाती है; अनंतर मन प्राण में, प्राण तेज में तथा अंत में तेज देवता में अंतर्लीन हो जाता है (छां. ६.१५)। इस सिद्धांत को याज्ञवल्क्य ने यहीं से ग्रहण कर विस्तार से प्रतिपादित किया है।

तत्वज्ञान के विषय में आरुणि के सिद्धांत को हम 'प्रत्ययवादी' अद्धैत का नाम दे सकते हैं, क्योंकि इनकी दृष्टि में अद्वैत ही एकमात्र सत् तथा तथ्य है। आरुणि के सिद्धांत का शंखनाद है तत्वमसि वाक्य जिसे इन्होंने अपने पुत्र श्वेतकेतु को अनेक मनोरंजक दृष्टांत के द्वारा समझाया तथा प्रमाणित किया। 'इदं सर्व तत् सत्यं स आत्मा तत्त्वमसि श्वेतकेतो'-आरुणि के अद्वैतवाद का यह महनीय मंत्र है (छां. ६.११,१२)। मूल तत्व 'सत्' रूप है, असद्रूप नहीं, क्योंकि असत् से किसी भी प्रकार की उत्पत्ति नहीं हो सकती। यह सत् अपने में से पहले अग्नि को, पीछे जल को तथा अंत में पृथ्वी को इसी क्रम से उत्पन्न करता है। सृष्टि का यह 'त्रिवृत्करण' तत्व आरुणि का स्वोपज्ञ सिद्धांत है। विश्व के प्रत्येक द्रव्य में ये तीनों तत्व विद्यमान रहते हैं। सब पदार्थ असत् हैं। पदार्थों अपेक्षा तत्वों (पृथ्वी, जल, तेज) की सत्यता सर्वथा मान्य है और इन तत्वों की अपेक्षा सत्यतर है वह सत् जो इनका मूल कारण है (छां. ६.३-४)। यह सत् विश्व के समस्त प्रपंचों में अनुस्यूत तथा आधारस्थानीय सूक्ष्म तत्व है (छां ६.१२)। इसका पूर्ण ज्ञान आचार्य के द्वारा दी गई शिक्षा के द्वारा और श्रद्धा के द्वारा प्राप्त किया जा सकता है। 'आचार्यवान् पुरुषो वेद' =गुरु के द्वारा उपदिष्ट पुरुष ही परम तत्व को जानता है; आरुणि का यह उपदेश गुरुतत्व की आधारशिला है। आत्मा विश्व के प्रत्येक पदार्थ में उसी प्रकार व्याप्त रहता है, जिस प्रकार उस जल के प्रत्येक कण में लवण व्याप्त रहता है जिसमें वह डाला जाता है (छां. ६.१३)। उद्दालक आरुणि का यह अध्यात्मदर्शन आत्मा की अद्वैतता तथा व्यापकता का पूर्ण परिचायक है।

पौराणिक स्थलः-

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मखौड़ा धाम:-


पौराणिक संदर्भ में एक उल्लेख मिलता है कि एक बार उत्तर कोशल में सम्पूर्ण भारत के ऋषि मुनियों का सम्मेलन हुआ था। इसकी अगुवाई ऋष् िउद्दालक ने की थी । वे सरयू नदी क उत्तर पश्चिम  दिशा में टिकरी बन प्रदेश में तप कर रहे थे। यही उनकी तप स्थली थी। पास ही मखौड़ा नामक स्थल भी था। मखौड़ा ही वह स्थल हैं जहां गुरू वशिष्ठ की सलाह से तथा श्रृंगी ऋषि की मदद से राजा दशरथ ने पुत्रेष्ठि यज्ञ करवाया था। जिससे उन्हें रामादि चार पुत्र पैदा हुए थे। उस समय मखौड़ा के आस पास कोई नदी नहीं थी। यज्ञ के समय मनोरमा नदी का अवतरण कराया गया था। वर्तमान समय में यह धाम बहुत ही उपेक्षित है। मन्दिर जीर्ण शीर्ण अवस्था में हैं। नदी के घाट टूटे हुए हैं। 84 कोसी परिक्रमा पथ पर होने के बावजूद इसका जीर्णोद्धार नहीं हो पा रहा है।

श्रृंगीनारी आश्रमः- 


महर्षि विभाण्डक के पुत्र ऋषि श्रृंगी का श्रृंगीनारी आश्रम भी यही पास ही में है ,जहां त्रेता युग में ऋषि श्रृंगी ने तप किष्या था। वे देवी के उपासक थे। इस कारण इस स्थान को श्रृंगीनारी कहा गया है। यह भी कहा जाता है कि श्रृंगी ऋषि ने सरस्वती देवी का आह्वान मनोरमा के नाम से किया था। इससे वहां मनोरमा नदी की उत्पत्ति हुई थी। यहां हर मंगल को मेला लगता है। यहां दशरथ की पुत्री शान्ता देवी तथा ऋषि का मंदिर व समाधियां बनी है। आषाढ माह के अन्तिम मंगलवार को यहां बुढवा मंगल का मेला लगता है। माताजी को हलवा और पूड़ी का भोग लगाया जाता है। मां शान्ता यहां 45 दिनों तक तप किया था। वह ऋषि के साथ यहां से जाने को तैयार नहीं हुई और यही पिण्डी रूप में यही स्थाई रूप से जम गई थीं।


पंन्डूलघाटः- 


यह महाभारतकालीन स्थल है । यहां अपने बनवास के समय पाण्डवों ने विश्राम किया था।पहले यहां विशाल टीला हुआ करता था जो नदी क कटान तथा सिंचाई विभाग द्वारा बंधा बनवाने से नष्ट हो गया । पाण्डव आख्यान के आधार पर पण्डूल घाट में चैत शुक्ला नवमी को विशाल मेले का आयोजन किया जाता है। पास ही में झुंगीनाथ का एतिहासिक शिव मंदिर पर शिवरात्रि में विशाल मेला लगता है। यहां लक्ष्मीनारायण तथा दुर्गा मंदिर भी स्थित है। 


हर्रैया तहसील के मखौड़ा सिंदुरिया मैरवा, श्रृंगीनारी, टेढ़ा घाट, सरौना ज्ञानपुर ओझागंज , पंडूलघाट , कोटिया आदि होकर यह आगे बढती है। इसे सरयू का एक शाखा भी कही जाती है। अवध क्षेत्र के 84 कोसी परिक्रमा पथ पर इस नदी के तट के मखौड़ा तथा श्रृंगीनारी आदि भी आते हैं। मनोरमा नदी के तटों पर अनेक सरोवर तथा मन्दिर आज भी देखे जा सकते हैं। किसी समय में यहां पूरा का पूरा जल भरा रहता था। यह नदी बहुत ही शालीन नदी के रूप में जानी जाती है। यह अपने तटों को सरयू तथा राप्ती जैसे कटान नहीं करती है। इससे बस्ती जिले के दक्षिणी भाग में सिंचाई की जाती रही है।

ताम्रपाषाणकालीन नरहन संस्कृति के स्थल:-


ऐतिहासिक एवं पुरातात्विक अवशेष इस नदी के तलहटी में ज्यादा सुरक्षित पाये गये है। गुलरिहा घाट, तेंदुवा , गोभिया , मदाही , बनवरिया घाट तहसील हर्रैया में तथा लालगंज, गेरार व चन्दनपुर तहसील बस्ती में ताम्र पाषाणकालीन नरहन संस्कृति के अवशेष वाले स्थल हैं। यहां काले व लाल पात्र ,लाल पात्र, उत्तरी काले चमकीले पात्र तथा धूसर पात्र आदि प्राप्त हुए हैं। इसके अलावा आज भी इस नदी को आदर के साथ पूजा जाता है। लालगंज मे जहां यह कुवानों में मिलकर खत्म हो जाती है वहां भी चैत शुक्ला पूर्णिमा को विशाल मेले का आयोजन किया जाता है।

शुंग व कुषाणकालीन स्थलः-  


हर्रैया का अजनडीह, अमोढ़ा, इकवार, उज्जैनी, बकसरी, बइरवा घाट, पकरी चैहान या पण्डूलघाट ,पिंगेसर तथा अन्य अनेक स्थलों से शुंग व कुषाण काल के पुरातात्विक प्रमाण तथा अनेक पात्र परम्पराये प्राप्त हुई है।

स्वतंत्रता आन्दोलन स्थलः- 

मनोरमा की शाखा रामरेखा के तट पर स्थित छावनी तथा मूल मनोरमा तट पर बहादुरपुर विकासखण्ड में स्थित महुआडाबर नामक गांवों में 1857 का स्वतंत्रता आन्दोलन का विगुल फूंका गया था। बाद में इस क्षेत्र की चेतना को देखते हुए अगे्रजों ने 1865 में बस्ती को जिला घोषित कर स्थिति को नियंत्रण किया था।

वर्तमान समय में गोण्डा से लेकर लालगंज तक यह एक गन्दे नाले का रूप ले रखा है। जल प्रदूषण के कारण इसका रंग मटमैला हो गया है। इसके अस्तित्व पर खतरे के बादल मंड़रा रहे हैं। जहां इसकी धारा मन्द हो गई है वहां इसका स्वरूप विल्कुल बदल गया है। चांदी की तरह चमकने वाला धवल जल आज मटमैला नाला जैसा बन गया है। इस नदी की महत्ता को दर्शाने के लिए उत्तर प्रदेश सरकार के कैविनेट मंत्री श्री राज किशोर सिंह जिनका यह चुनाव क्षेत्र भी है, के नेतृत्व में मनोरमा महोत्सव का आयोजन करती है। यह उत्सव हर्रैया तहसील परिसर में सर्दियों में मनाया जाता हैं। केवल शिवाला घाट की सफाई हो पाती हैं। अन्य घाट व नदी पहले जैसी ही सूखी तथा रोती हुई ही दिखाई देती है। कोई अधिकारी उन तक झाकने तक नहीं जाता। यदि दोनो जिलों के तहसील के राजस्व अधिकारियो तथा नदी के दोनो तरफ स्थित प्रधान व पंचायत अधिकारियो व सरकारी व निजी विद्यालयों के अध्यापकों की मीटिंग व कार्यशाला आयोजित किया जाता तो अपेक्षाकृत अधिक कामयाबी मिलती। यद्यपि मनवर की महत्ता विषयक कुछ वार्ताये तो की जाती है। पर्यावरण व जल संरक्षण आदि विषयों पर गोष्ठी का आयेजन किया जाता है परन्तु आपेक्षित परिणाम दिखाई नहीं पड़ता है।
                 

यह आश्चर्य की बात है कि हजारों वर्षों से कल कल करके बहने वाली इस क्षेत्र की बड़ी व छोटी नदियांे का अस्तित्व एकाएक समाप्त होने लगा है। पर्यावरणवेत्ता इसके अनेक कारण बतलाते है। जलवायु में परिवर्तन, मानवीय हस्तक्षेप, नदियों के पानी को बांध बनाकर रोकना, बनों का अंधाधुंध कटाई, गलेसियरों का सिकुड़ना आदि कुछ एसे भौगोलिक कारण है जिस पर यदि तत्काल ध्यान ना दिया गया तो यह नदी भी इतिहास की वस्तु हो जाएगी। नदियों में वैसे जल कम आ रहा है। इनमें मानवीय हस्तक्षेप को तो जन जागरूकता तथा सरकारी प्रयास के कम किया जा सकता है। आज सबसे ज्यादा मानवीय प्रदूषण इसके विलुप्त होने का कारण बना हुआ है। इसमें डाले जा रहे गन्दे व प्रदूषित पानी न केवल इसके अस्तित्व को अपितु इससे सदियों से पल रहे जीव जन्तुओं व वनस्पतियों के लिए भी खतरा बन रहे हैं। नदी के तटो पर भूमिगत श्रोतों का दोहन होने से भी इसके लिए पानी जमाकर साल भर अनवरत बहने में कठिनाई आती है। यह इस क्षेत्र के निवासियों के लिए भी शुभ संकेत नहीं है।
 

नेशनल ग्रीन ट्रिब्यूनल को और सतर्कता के साथ नई प्राकृतिक श्रोतों की सुरक्षा के लिए प्रभावी कदम उठाना चाहिए। नदी के धाटियों में अंधाधुध कटान से बचाया जाना चाहिए तथा वरसात के पहले इसमें जमीं हुई सिल्ट को निकालने का भी प्रयत्न किया जाना चाहिए। इतना ही नहीं इन नदियों को परिवहन के साधन के रूप में विकसित किया जाना चाहिए। इससे इसके जल की संरक्षा होगी और इसके अवैेध गतिविधियों पर नजर भी रखी जा सकेगी। नदियों का जल गर्मियों में पम्पिंग सेट से निकालने की मनाही होनी चाहिए। इस पर सदा निगाह रखी जानी चाहिए कि इसका अवैध दोहन व उत्खनन न हो सके। 


 लेखक -डा. राधे श्याम द्विवेदी

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