नोट -भारत की आजादी में शहीद हुए वीरांगना/जवानो के बारे में यदि आपके पास कोई जानकारी हो तो कृपया उपलब्ध कराने का कष्ट करे . जिसे प्रकाशित किया जा सके इस देश की युवा पीढ़ी कम से कम आजादी कैसे मिली ,कौन -कौन नायक थे यह जान सके । वैसे तो यह बहुत दुखद है कि भारत की आजादी में कुल कितने क्रान्तिकारी शहीद हुए इसकी जानकार भारत सरकार के पास उपलब्ध नही है। और न ही भारत सरकार देश की आजादी के दीवानो की सूची संकलन करने में रूचि दिखा रही जो बहुत ही दुर्भाग्य पूर्ण है।
महाराणा संग्राम सिंह (राणा सांगा)’ 12 अप्रैल 1484 को मालवा में मेवाड़ के सूर्यवंशी सिसोदिया राजकुल में राणा सांगा का जन्म हुआ।1507-1508 में राणा सांगा अपने पिता राणा रायमल के उत्तराधिकारी बने। इनका विवाह रानी कर्णावती से हुआ।राणा ने अपने शासन काल में निम्नलिखित युद्ध लड़े।
’ईडर के युद्ध् (1514)’
ईडर राजस्थान-गुजरातसीमा पर स्थित राठौड़ों की गद्दी थी जिसके उत्तराधिकारी रायमल थे पर भारमल उस पर अवैध रूप से काबिज था।राणा ने भारमल को पराजित कर रायमल को ईडर की कमान दिलाई।भारमल हार कर मदद के लिए गुजरात के सुल्तान मुजफ्फर के पास चला गया।ईडर की गद्दी के लिए तीसरे युद्ध में महाराणा की सेना का सामान सुल्तान मुजफ्फर द्वारा भेजे गए सैन्य अधिकारी जाहिर-उल-मुल्क से हुआ। युद्ध में जाहिर मारा गया और सुल्तान की फौज राजपूतों के आगे ज्यादा देर ना टिकी और भाग खड़ी हुई।बौखलाहट में सुल्तान अपने खास योद्धा नुसरत-उल-मुल्क को भेजता है, रायमल उसे भी पराजित कर देते हैं।
’खतौली का युद्ध 1518’
विदेशी आततायी इब्राहिम लोधी से मातृभूमि को मुक्त कराने निकली राणा की सेना ने कई ठिकानों पर कब्जे शुरू कर दिए जिसकी खबर लोधी को जब लगी तो उसने मेवाड़ के लिए कूच किया। महाराणा भी अपनी सेना के साथ उसका मुकाबला करने निकल पड़े। दोनों का आमना सामना खतौली में हुआ।निर्भीक राजपूतों के आगे सुल्तान की फौज 5 घण्टों से ज्यादा नहीं टिकी, इब्राहिम लोधी अपनी सेना के साथ भाग खड़ा हुआ। एक लोधी शहजादा बन्दी भी बनाया गया।इस युद्ध में महाराणा की बाँह कट गयी एवं एक पैर सदा के लिए बेकारहो गया।
’धौलपुर का युद्ध 1519’
इस युद्ध में राणा के साथ थे राव विरमदेव मेड़ता, रतन सिंह चुंडावत, माणिकचन्द्र चैहान, चन्द्रभान चैहान, रावल उदय सिंह, राणा अज्ज, राव रामदास, गोकलदास परमार, रावल उदय सिंह वगारी, मेदिनी राय।खतौली की हार का बदला लेने के लिए इस बार पूरी तैयारी के साथ आया था इब्राहिम लोधी। पर रणभूमि में लोधी की फौज यूँ बिखरी जैसे किसी वृक्ष की सूखी पत्तियां हों।राणा की सेना का सामना मियाँ माखन, खान फुरात, हाजी खान, दौलत खान, अल्लाहदद खान एवं यूसुफ खान की हजारों की फौज से हुआ। पर कुछ ही देर में राजपूतों की तलवारों में वो रक्तपात मचाया कि सुल्तान की सेना भागने को मजबूर हो गयी। राणा की सेना में सुल्तान की फौज को बयाना तक धकेल दिया।हुसैन खान ने दिल्ली में मुस्लिम दरबारियों पर कटाक्ष करते हुए कहा कि ष्सैकड़ों दफा लानत है कि 30,000 की फौज चंद राजपूतों से हार गयीष्इस युद्ध के बाद मालवा जिस पर मुहम्मद शाह काबिज था, उस पर राणा का आधिपत्य हो गया।
’गागरोन का युद्ध 1519’
राणा सांगा द्वारा मेदिनी राय को दी गयी जागीर पर धीरे-धीरे महमूद खिलजी काबिज होने लगा। राणा ने उसे सबक सिखाने की ठान ली औरयुद्ध के लिए चित्तौड़ से कूच किया, उनके साथ राव विरमदेव थे। राणाऔर राव का सामना हुआ महमूद खिलजी और आसिफ खान से। राजपूतों के आक्रमण से खिलजी की विशाल सेना में हाहाकार मच गयी। उसके लगभग सभी प्रमुख सैन्य अधिकारी मारे गए और तकरीबन सारी सेना का सर्वनाश हो गया। आसिफ खान का पुत्र मारा गया और महमूद खिलजी को बन्दी बना लिया गया।लेकिन परंपरागत राजपूती उदारता का परिचय देते हुए राणा ने उसे मुक्त किया एवं सम्मान सहित उसका राज्य लौटा दिया पर खिलजी ने राणा की अधीनता स्वीकार करते हुए नजराने के रूप में अपना पुश्तैनी रत्न-जड़ित मुकुट और कमरबन्द राणा को दे दिया।इतिहासकार अबू फजल ने राणा की सतत प्रशंसा की।
’गुजरात का युद्ध 1520’
ईडर की कमान वापस राव रायमल को दिलाने एवं मुस्लिम सुल्तान से गुजरात को मुक्त कराने राणा ने युद्ध का ऐलान किया।राणा अत्यंत महत्वाकांक्षी थे, हिन्दू राष्ट्र की स्थापना उनका उद्देश्य था।कहा जाता है कि निजाम-उल-मुल्क के सामने भरे दरबार में एक बार किसी भाटध्चारण ने राणा की बहादुरी और उदारता की भूरि-भूरि प्रशंसा की जिससे खिन्न हो कर निजाम उल मुल्क ने राणा के लिए अपमानजनक शब्द कहे, इस उद्दंडता की सजा राणा निजाम को देना चाहते थे।युद्ध का आवाह्न कर राणा ने गुजरात की ओर कूच की। मुजफ्फर शाह को जैसे ही इसकी भनक लगी वो राणा का सामना किये बगैर किवाम उल मुल्क को अहमदाबाद का राजपाल बना कर मुहम्मदाबाद भाग गया।महाराणा 40000 घोड़ों और पैदल सैनिकों के साथ वागड़ पहुँचे, वहाँरावल उदय सिंह डूंगरपुर 5000 सैनिकों समेत उनके साथ हो लिए, रावविरमदेव मेड़तिया 5000 सैनिकों के साथ आये और राव गंगा ने अपने पुत्रों को 7000 सैनिकों के साथ भेजा।राणा तेजी से ईडर पहुँचे, निजाम उल मुल्क राणा के आने की सूचना पाकर अपनी डींगें भूलकर हिम्मतनगर की ओर भागा। राणा ने ईडर की कमान वापस रायमल के हाथों में दी और निजाम उल मुल्क की तलाश में निकले,राणा ने हिम्मतनगर गढ़ की घेराबन्दी करा दी, भीषण रक्तपात हुआ, इस दौरान राणा की सेना के एक शीर्ष अधिकारी डूँगर सिंह चैहान गंभीर रूप से घायल हो गए। राजपूतों ने गढ़ की सारी मुस्लिम सेना का वध करदिया पर मुबारिज उल मुल्क बच निकला। वह किले के साथ बहती हुई नदी के किनारे पर रुका, उसके साथ सुल्तान द्वारा भेजा हुआ सैन्य दस्ता था।राणा ने उन पर आक्रमण कर दिया, सुल्तान की फौज भाग छूटी और उल मुल्क अहमदनगर की ओर भागा। ब्रिटिश प्रशासक एलेग्जेंडर फोर्ब्स लिखते हैं, ष् इस्लाम के व्यूह को राजपूतों के रोष ने ध्वस्त कर दिया, सुल्तान की सेना के कई शीर्ष अधिकारी मारे गए, मुबारिज उल मुल्क गंभीर रूप से घायल होगया,उनके हाथी छीन लिए गए..फौज में हाहाकार मच गयी। राणा ने वाडनगर के ब्राह्मणों को छोड़ दिया, विसलनगर के राजपाल हातिम खान का वध किया। जब राणा ने देखा की सुल्तान अब वापस नहीं आएगा और बड़बोले निजाम उल मुल्क को भी उसकी उद्दंडता का अच्छा सबक मिल गया है तो वे चित्तौड़ लौट गये।
’खानवा का युद्ध 1527’
बाबर ने उत्तर भारत में भयंकर लूटपाट मचाई, कई निर्दोष हिंदुओं की निर्मम हत्या की। राणा ने हिन्दू राष्ट्र की स्थापना और और राष्ट्र को विदेशी आक्रमणकारियों से मुक्त कराने के उद्देश्य सेबाबर के विरुद्ध युद्ध का आवाह्न किया और बाबर को देश छोड़ने का आदेश दिया।पानीपत की लड़ाई के बाद बाबर जान चुका था कि राणा उसके लिए बहुत बड़ा खतरा थे। राणा ने आगरा की ओर कूच किया,बाबर ने धौलपुर, ग्वालियर और बयाना की ओर सैन्य टुकड़ियां भेजीं।इधर राणा के नेतृत्व में सभी राजपूत राजघराने एक हुए (जालोर, सिरोही, हाड़ौती,डूँगरपुर, धुआंधार, आमेर, मारवाड़, चन्देरी-मालवा) मेवात के मैड़ राजपूत भी राणा के साथ थे। राजपूतों की आक्रामकता और वीरता सुप्रसिद्ध थी, बाबर की सेना में भय व्याप्त था। बाबर नेराज्य की सारी मदिरा बहा दी, और सैनिकों को किसी भी प्रकार का नशाकरने से मना कर दिया ताकि युद्ध के दौरान वो कमजोर न पड़ें। बाबर ने अपनी फौज को राणा के विरुद्ध युद्ध को जिहाद बताया और दरबारियों एवं सैनिकों से कुरांन की कसमें खिलवायीं।
युद्ध -16 मार्च, 1527 फतेहपुर सीकरी के निकट खानवा।
बाबर ने रण क्षेत्र का बारीकी से निरीक्षण किया एवं योजनाबद्ध तरीके से व्यूह रचा, बंदूकधारियों एवं तोपों को स्थापित किया।यूँ तो राणा सांगा ने कई युद्ध लड़े थे और सभी जीते थे, पर वो परम्परागत तरीके से जीते युद्ध थे। राणा ने हमला बोला, जब राणा कीसेना बाबर द्वारा रचित व्यूह में फंस गई तब बाबर ने तोपों और बंदूकों से हमला करवाया। भीषण रक्तपात हुआ। अनेक राजपूत वीरगति को प्राप्त हुए, राणा गंभीर रूप से घायल हुए। 30 जनवरी 1528 को राणा ने देह त्याग दी, अखण्ड हिन्दू राष्ट्र का उनका स्वप्न उन्हीं के साथ चला गया। अंत समय में उनके शरीर पर 80 घाव थे। एक हाथ, एक पैर और एक आँख खो कर इस महाबली योद्धा ने बाबर जैसे शक्तिशाली सुल्तान से लोहा लिया और दिल्ली की सल्तनत हिला कर रख दी। अपने पूरे शासन काल में राणा ने सभी युद्ध जीते। तमाम इतिहासकारों का कहना है कि अगर बाबर के पास वो आधुनिक तोपें और बंदूकें ना होतीं तो वो राणा और राजपूतों की तलवारों को कभी पराजित नहीं कर पाता। राणा के साथ एक युग का अंत हुआ,उन जैसा महाबली कुशल सुशासक योद्धा दुबारा नहीं जन्मा। मातृभूमि की लिए अपने प्राणों की आहुति देने वाले इस शूरवीर को कोटि-कोटि नमन एवं श्रद्धांजलि।
विशेष यह भी जाने
अभी थोड़े समय पहले अहिंसा और बिना खड्ग बिना ढाल वाले नारों और गानों का बोलबाला था ! हर कोई केवल शांति के कबूतर और अहिंसा के चरखे आदि में व्यस्त था लेकिन उस समय कभी इतिहास में तैयारी हो रही थी एक बड़े आन्दोलन की ! इसमें तीर भी थी, तलवार भी थी , खड्ग और ढाल से ही लड़ा गया था ये युद्ध ! जी हाँ, नकली कलमकारों के अक्षम्य अपराध से विस्मृत कर दिए गये वीर बलिदानी जानिये जिनका आज बलिदान दिवस ! आज़ादी का महाबिगुल फूंक चुके इन वीरो को नही दिया गया था इतिहास की पुस्तकों में स्थान ! किसी भी व्यक्ति के लिए अपने मुल्क पर मर मिटने की राह चुनने के लिए सबसे पहली और महत्वपूर्ण चीज है- जज्बा या स्पिरिट। किसी व्यक्ति के क्रान्तिकारी बनने में बहुत सारी चीजें मायने रखती हैं, उसकी पृष्ठभूमि, अध्ययन, जीवन की समझ, तथा सामाजिक जीवन के आयाम व पहलू। लेकिन उपरोक्त सारी परिस्थितियों के अनुकूल होने पर भी अगर जज्बा या स्पिरिट न हो तो कोई भी व्यक्ति क्रान्ति के मार्ग पर अग्रसर नहीं हो सकता। देश के लिए मर मिटने का जज्बा ही वो ताकत है जो विभिन्न पृष्ठभूमि के क्रान्तिकारियों को एक दूसरे के प्रति, साथ ही जनता के प्रति अगाध विश्वास और प्रेम से भरता है। आज की युवा पीढ़ी को भी अपने पूर्वजों और उनके क्रान्तिकारी जज्बे के विषय में कुछ जानकारी तो होनी ही चाहिए। आज युवाओं के बड़े हिस्से तक तो शिक्षा की पहुँच ही नहीं है। और जिन तक पहुँच है भी तो उनका काफी बड़ा हिस्सा कैरियर बनाने की चूहा दौड़ में ही लगा है। एक विद्वान ने कहा था कि चूहा-दौड़ की सबसे बड़ी दिक्कत यह है कि व्यक्ति इस दौड़ में जीतकर भी चूहा ही बना रहता है। अर्थात इंसान की तरह जीने की लगन और हिम्मत उसमें पैदा ही नहीं होती। और जीवन को जीने की बजाय अपना सारा जीवन, जीवन जीने की तैयारियों में लगा देता है। जाहिरा तौर पर इसका एक कारण हमारा औपनिवेशिक अतीत भी है जिसमें दो सौ सालों की गुलामी ने स्वतंत्र चिन्तन और तर्कणा की जगह हमारे मस्तिष्क को दिमागी गुलामी की बेड़ियों से जकड़ दिया है। आज भी हमारे युवा क्रान्तिकारियों के जन्मदिवस या शहादत दिवस पर ‘सोशल नेट्वर्किंग साइट्स’ पर फोटो तो शेयर कर देते हैं, लेकिन इस युवा आबादी में ज्यादातर को भारत की क्रान्तिकारी विरासत का या तो ज्ञान ही नहीं है या फिर अधकचरा ज्ञान है। ऐसे में सामाजिक बदलाव में लगे पत्र-पत्रिकाओं की जिम्मेदारी बनती है कि आज की युवा आबादी को गौरवशाली क्रान्तिकारी विरासत से परिचित करायें ताकि आने वाले समय के जनसंघर्षों में जनता अपने सच्चे जन-नायकों से प्ररेणा ले सके। आज हम एक ऐसी ही क्रान्तिकारी साथी का जीवन परिचय दे रहे हैं जिन्होंने जनता के लिए चल रहे संघर्ष में बेहद कम उम्र में बेमिसाल कुर्बानी दी।
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