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26 नवम्बर – बलिदान दिवस अमर क्रांतिवीर अशोक नंदी, अलीपुर बमकांड के इस क्रांतिवीर ने आज ही के दिन त्याग दिया था शरीर

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नोट -भारत की आजादी में शहीद हुए वीरांगना/जवानो के बारे में यदि आपके पास कोई जानकारी हो तो कृपया उपलब्ध कराने का कष्ट करे . जिसे प्रकाशित किया जा सके इस देश की युवा पीढ़ी कम से कम आजादी कैसे मिली ,कौन -कौन नायक थे यह जान सके । वैसे तो यह बहुत दुखद है कि भारत की आजादी में कुल कितने क्रान्तिकारी शहीद हुए इसकी जानकार भारत सरकार के पास उपलब्ध नही है। और न ही भारत सरकार देश की आजादी के दीवानो की सूची संकलन करने में रूचि दिखा रही जो बहुत ही दुर्भाग्य पूर्ण है। 

 न्याय को प्रायः अन्धा कहा जाता है, क्योंकि वह निर्णय करते समय केवल कानून को देखता है, व्यक्ति को नहीं। पर अंग्रेजी राज में कभी-कभी न्यायाधीश भी अन्धों की तरह व्यवहार करते थे। क्रांतिवीर अशोक नंदी को इसका दुष्परिणाम अपने प्राण देकर चुकाना पड़ा।
अशोक नंदी एक युवा क्रांतिकारी थे। जिनको अग्रेज सरकार ने 26 नवम्बर, 1909 उनको सजा हुई। देखने में वो दुबले पतले तथा अत्यन्त सुंदर थे.. पर उसके दिल में देश को स्वाधीन कराने की आग जल रही थी। इसीलिए वो क्रांतिकारी दल में शामिल होकर बम बनाने लगे। एक बार पुलिस ने बम फैक्ट्री पर छापा मारा, तो वह पकड़े गए. उन्हें जेल में बंद कर ‘अलीपुर बम कांड’ के अन्तर्गत मुकदमा चलाया गया। ब्रिटिश पुलिस ने में मौजूद थे भारत के कई गुलाम .. उन्होंने इस वीर को पकड़वाने में सहायता की .. क्रांतिकारी सावधानी रखते हुए बम की सारी सामग्री एक ही जगह नहीं बनाते थे। इससे विस्फोट होने के साथ ही अन्य कई तरह के खतरे भी थे। जहां से अशोक नंदी पकड़े गए, वहां बम का केवल एक भाग ही बनता था। इस आधार पर वकीलों ने बहस कर उसे निर्दोष सिद्ध करा दिया।
पर दूसरे मुकदमे में उसे सात वर्ष के लिए अंदमान जेल का दंड दिया गया। अशोक के परिजनों ने इसके विरुद्ध उच्च न्यायालय में अपील की। इसलिए उसे अंदमान भेजना तो स्थगित हो गयाय पर जेल में उसे अमानवीय परिस्थितियों में रखा गया। इससे वह जोड़ों की टी.बी. से ग्रस्त हो गए. उच्च न्यायालय में कोलकाता के प्रसिद्ध देशभक्त वकील श्री चितरंजन दास ने अशोक नंदी का मुकदमा लड़ा। चितरंजन दास जी की योग्यता की देश भर में धाक थी। उन्होंने न्यायाधीश से अशोक नंदी की जमानत का आग्रह करते हुए कहा कि एक मुकदमे में वह निर्दोष सिद्ध हो चुका है। दूसरे पर उच्च न्यायालय में विचार हो रहा है। फिर उसका स्वास्थ्य भी बहुत खराब है। अतः  उसे जमानत पर जेल से छोड़ देना चाहिए।
पर न्यायाधीश ने इन तर्कों को नहीं सुना। उसने अपील ठुकराते हुए कहा कि अभियुक्त को दुमंजिले अस्पताल के हवादार कमरे में रखा गया है। उसका इलाज भी किया जा रहा है। इतनी अच्छी सुविधाएं उसे अपने घर में भी नहीं मिलेंगी। अतः उसे जमानत पर नहीं छोड़ा जा सकता। अब श्री चितरंजन दास ने अशोक नंदी के पिताजी को सुझाव दिया कि वे बंगाल के गवर्नर महोदय के पास जाकर अपनी बात कहें। यदि वे चाहें, तो अशोक की जमानत हो सकती है। मरता क्या न करताय अशोक के पिताजी ने गवर्नर महोदय के पास जाकर प्रार्थना की। उनका दिल न्यायाधीश जैसा कठोर नहीं था। उन्होंने प्रार्थना स्वीकार कर ली।
अब न्यायालय के सामने भी उसे छोड़ने की मजबूरी थी। 26 नवम्बर, 1909 को न्यायाधीश ने अशोक नंदी को निर्दोष घोषित कर रिहाई के कागजों पर हस्ताक्षर कर दिये। पर मुक्ति के कागज लेकर जब पुलिस और अशोक के परिजन जेल पहुंचे, तो उन्हें पता लगा कि वह तो इस जीवन से ही मुक्त होकर वहां जा चुका है, जहां से कोई लौटकर नहीं आता।  इस प्रकार न्यायालय की कठोर प्रक्रिया ने एक 19 वर्षीय, तपेदिक के रोगी, युवा क्रांतिवीर को जेल के भीतर ही प्राण देने को बाध्य कर दिया। 
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अभी थोड़े समय  पहले अहिंसा और बिना खड्ग बिना ढाल वाले नारों और गानों का बोलबाला था ! हर कोई केवल शांति के कबूतर और अहिंसा के चरखे आदि में व्यस्त था लेकिन उस समय कभी इतिहास में तैयारी हो रही थी एक बड़े आन्दोलन की ! इसमें तीर भी थी, तलवार भी थी , खड्ग और ढाल से ही लड़ा गया था ये युद्ध ! जी हाँ, नकली कलमकारों के अक्षम्य अपराध से विस्मृत कर दिए गये वीर बलिदानी  जानिये जिनका आज बलिदान दिवस ! आज़ादी का महाबिगुल फूंक चुके इन वीरो को नही दिया गया था इतिहास की पुस्तकों में स्थान !  किसी भी व्यक्ति के लिए अपने मुल्क पर मर मिटने की राह चुनने के लिए सबसे पहली और महत्वपूर्ण चीज है- जज्बा या स्पिरिट। किसी व्यक्ति के क्रान्तिकारी बनने में बहुत सारी चीजें मायने रखती हैं, उसकी पृष्ठभूमि, अध्ययन, जीवन की समझ, तथा सामाजिक जीवन के आयाम व पहलू। लेकिन उपरोक्त सारी परिस्थितियों के अनुकूल होने पर भी अगर जज्बा  या स्पिरिट न हो तो कोई भी व्यक्ति क्रान्ति के मार्ग पर अग्रसर नहीं हो सकता। देश के लिए मर मिटने का जज्बा ही वो ताकत है जो विभिन्न पृष्ठभूमि के क्रान्तिकारियों को एक दूसरे के प्रति, साथ ही जनता के प्रति अगाध विश्वास और प्रेम से भरता है। आज की युवा पीढ़ी को भी अपने पूर्वजों और उनके क्रान्तिकारी जज्बे के विषय में कुछ जानकारी तो होनी ही चाहिए। आज युवाओं के बड़े हिस्से तक तो शिक्षा की पहुँच ही नहीं है। और जिन तक पहुँच है भी तो उनका काफी बड़ा हिस्सा कैरियर बनाने की चूहा दौड़ में ही लगा है। एक विद्वान ने कहा था कि चूहा-दौड़ की सबसे बड़ी दिक्कत यह है कि व्यक्ति इस दौड़ में जीतकर भी चूहा ही बना रहता है।  अर्थात इंसान की तरह जीने की लगन और हिम्मत उसमें पैदा ही नहीं होती। और जीवन को जीने की बजाय अपना सारा जीवन, जीवन जीने की तैयारियों में लगा देता है। जाहिरा तौर पर इसका एक कारण हमारा औपनिवेशिक अतीत भी है जिसमें दो सौ सालों की गुलामी ने स्वतंत्र चिन्तन और तर्कणा की जगह हमारे मस्तिष्क को दिमागी गुलामी की बेड़ियों से जकड़ दिया है। आज भी हमारे युवा क्रान्तिकारियों के जन्मदिवस या शहादत दिवस पर ‘सोशल नेट्वर्किंग साइट्स’ पर फोटो तो शेयर कर देते हैं, लेकिन इस युवा आबादी में ज्यादातर को भारत की क्रान्तिकारी विरासत का या तो ज्ञान ही नहीं है या फिर अधकचरा ज्ञान है। ऐसे में सामाजिक बदलाव में लगे पत्र-पत्रिकाओं की जिम्मेदारी बनती है कि आज की युवा आबादी को गौरवशाली क्रान्तिकारी विरासत से परिचित करायें ताकि आने वाले समय के जनसंघर्षों में जनता अपने सच्चे जन-नायकों से प्ररेणा ले सके। आज हम एक ऐसी ही क्रान्तिकारी साथी का जीवन परिचय दे रहे हैं जिन्होंने जनता के लिए चल रहे संघर्ष में बेहद कम उम्र में बेमिसाल कुर्बानी दी।    

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