नोट -भारत की आजादी में शहीद हुए वीरांगना/जवानो के बारे में यदि आपके पास कोई जानकारी हो तो कृपया उपलब्ध कराने का कष्ट करे . जिसे प्रकाशित किया जा सके इस देश की युवा पीढ़ी कम से कम आजादी कैसे मिली ,कौन -कौन नायक थे यह जान सके । वैसे तो यह बहुत दुखद है कि भारत की आजादी में कुल कितने क्रान्तिकारी शहीद हुए इसकी जानकार भारत सरकार के पास उपलब्ध नही है। और न ही भारत सरकार देश की आजादी के दीवानो की सूची संकलन करने में रूचि दिखा रही जो बहुत ही दुर्भाग्य पूर्ण है।
रामफल मंण्डल का जन्म 06 अगस्त 1924-शहादत 23 अगस्त 1943 को हुआ था। द्वितीय विश्वयुद्ध के समय 8 अगस्त 1942 को आरम्भ किया गया था। यह एक आन्दोलन था जिसका लक्ष्य भारत से ब्रितानी साम्राज्य को समाप्त करना था। यह आंदोलन महात्मा गांधी द्वारा अखिल भारतीय कांग्रेस समिति के मुम्बई अधिवेशन में शुरू किया गया था। यह भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के दौरान विश्वविख्यात काकोरी काण्ड के ठीक सत्रह साल बाद 9 अगस्त सन 1942 को गांधीजी के आह्वान पर समूचे देश में एक साथ आरम्भ हुआ। यह भारत को तुरन्त आजाद करने के लिये अंग्रेजी शासन के विरुद्ध एक सविनय अवज्ञा आन्दोलन था। शहीद रामफल मंडल के नेत्रित्व में सीतामढ़ी में भारत छोड़ो आन्दोलन उग्र और तेज होता देख आन्दोलन को दबाने के लिए अंग्रेजों द्वारा सीतामढ़ी में गोली कांड हुआ जिसमे बच्चे, बूढ़े और औरतों को निशाना बनाया गया।
24 अगस्त 1942 को बाजपट्टी चैक हजारों लोगों की भीड़ लाठी, डंडा, भाला, फरसा, गड़ासा इत्यादि के साथ दरोगा का इंतजार करने लगी, लेकिन इसकी भनक दरोगा को लग गई । वह सीतामढ़ी के तत्कालीन एसडीओ को सूचना देते हुए लौट गया । जिसके बाद एसडीओ इंस्पेक्टर, हवलदार, चपरासी एवं चालक समेत बाजपट्टी पहुँचे, लेकिन उग्र भीड़ के सामने उनकी एक न चली । रामफल मंडल ने गड़ासे के एक ही वार में एसडीओ का सर कलम कर दिया और इंस्पेक्टर को भी मौत के घाट उतार दिया । शेष 2 सिपाही को भीड़ ने मौत की नींद सुला दी । चालक फरार हो गया और सीतामढ़ी मैजिस्ट्रेट के सामने कोर्ट में बयान दिया । सभी जगह ‘इन्कलाब जिंदाबाद’, ‘भारत माता की जय’ एवं ‘वन्दे मातरम्’ का नारा गूंजने लगा। अंग्रेज पदाधिकारी भागने लगे। सार्वजानिक स्थलों पर तिरंगा झंडा फहराने लगा । रामफल मंडल अपनी गर्ववती पत्नी जगपतिया देवी को नेपाल के लक्ष्मिनिया गाँव में में सुरक्षित रख दिया। वहीँ पर 15 सितम्बर 1942 ई. को जगपतिया देवी ने एक पुत्र को जन्म दिया, जो विभिन्न झंझावातों से जूझते हुए आठ महीने बाद मौत को गले लगा लिया
चालक के बयान के बाद रामफल मंडल, बाबा नरसिंह दास, कपिल देव सिंह, हरिहर प्रसाद समेत 4 हजार लोगों के खिलाप हत्या का मुकदमा दर्ज किया गया। रामफल मंडल के घर में आग लगा कर जमीन को जोत दिया गया। उनके ऊपर 5000 रु. का इनाम घोषित किया गया। नेपाल में बड़े भाई के ससुराल में अपनी धर्मपत्नी को रखने के बाद रामफल मंडल, ससुराल वालों के लाख मना कंरने के बावजूद अपने घर लौट आये। गाँव के लोगों ने उन्हें कहा, पुलिस तुम्हे खोज रही है, तुम पुनः नेपाल भाग जाओ। लेकिन आजादी के मतवाले रामफल मंडल लोगों से कहते थे कि एसडीओ एवं पुलिस को मारा हूँ अभी और अंग्रेजी सिपाही को मारने के बाद जेल जाऊंगा। भारत की आजादी के लिए मुझे फांसी भी मंजूर है। आप लोग मेरे परिवार को देखते रहिएगा। इसी बिच दफादार शिवधारी कुंवर को रामफल मंडल के आने की सुचना मिल गई। वह रामफल मंडल का मित्र था। इनाम के लालच में उसने छल से चिकनी दृ चुपड़ी बातों में फंसा कर रात में नशा खिला दिया। नशे की हालत में जब वे बेहोस थे अंग्रेजी पुलिस उनका गठीला एवं लम्बा शरीर देखकर डर गये, उसने बेहोशी की अवस्था में हीं दोनों हाथ एवं पैरों को जंजीर से बांध कर गिरफ्तार किया।
रामफल मंडल एवं अन्य आरोपियों को भागलपुर सेन्ट्रल जेल भेज दिया गया। उसी जेल में मुजफ्फरपुर के जुब्बा सहनी भी अंग्रेज पदाधिकारियों के हत्या के आरोप में बंद थे। दिनांक 15 जुलाई 1943 को कांग्रेस कमेटी बिहार प्रदेश में रामफल मंडल एवं अन्य के सम्बन्ध में एसडीओ इंस्पेक्टर एवं अन्य पुलिस कर्मियों की हत्या के आरोपो पर चर्चा हुआ। बिहार प्रदेश कांग्रेस कमिटी, पटना के आग्रह पर गाँधी जी ने रामफल मंडल एवं अन्य आरोपियों के बचाव पक्ष में क्रांतिकारियों का मुकदमा लड़ने वाले देश के जाने - माने बंगाल के वकील सी.आर. दास और पी.आर. दास, दोनों भाई को भेजा। रामफल मंडल सहित एनी आरोपियों के खिलाप 473/1942 के तहत मुकदम्मा दर्ज किया गया। वकील महोदय ने रामफल मंडल को सुझाव दिया कि कोर्ट में जज के सामने आप कहेंगे कि मैंने हत्या नहीं की। तीन दृ चार हजार लोगों में किसने मारा मै नहीं जानता।
दिनांक 12 अगस्त 1943 ई. को भागलपुर में जज सी.आर. सेनी के कोर्ट में प्रथम बहस हुई। जब जज महोदय ने रामफल मंडल से पूछा दृ रामफल क्या एस. डी. ओ. हरदीप नारायण सिंह का खून तुमने किया है ? तो उन्होंने कहा दृ हाँ हुजूर पहल फरसा हमने हीं मारा। अन्य लोगों ने हत्या से इंकार कर दिया। बहस के बाद वकील साहब रामफल मंडल पर बिगड़े तो उन्होंने कहा साहब हमसे झूठ नहीं बोला जाता है। गडबडा गया है, अब ठीक से बोलूँगा। पुनः अगले दिन दिनांक 13 अगस्त 1943 ई. को बहस के दौरान जज महोदय ने पूछा - रामफल क्या एस. डी. ओ. का खून तुमने किया है, तो उन्होंने कहा, हाँ हुजूर पहल फरसा हमने हीं मारा। पुनरू वकील महोदय झल्लाकर उन्हें डांटे और बोले अंतिम बहस में अगर तुमने झूठ नहीं बोला तो तुम समझो। रामफल मंडल बोले साहब इस बार नहीं गड़बड़ायेगा। तीसरी बहस के दौरान जज महोदय ने पूछा - रामफल क्या एस. डी. ओ. का खून तुमने किया है, उन्होंने कहा दृ हाँ हुजूर पहल फरसा हमने हीं मारा। इस प्रकार लगातार तीन दिनों तक बहस चलती रही लेकिन रामफल मंडल ने वकीलों के लाख समझाने के बावजूद भी झूठ नहीं बोले। सायद वे सरदार भगत सिंह के फांसी के समय दिए गये वाक्यों को आत्मसात किये थे कि विचारों की शान पर इन्कलाब धार तेज होती है इन्कलाब तभी जिन्दा रह सकता है, जब विचार जिन्दा रहेगा। एक रामफल मंडल के मरने के बाद, हजारों, लाखों रामफल मंडल पैदा होकर भारत माता को अंग्रेजी दासता से मुक्त कराएँगे।
जज सी. आर. सेनी. ने रामफल मंडल को फांसी तथा अन्य आरोपियों को उम्रकैद की सजा सुनाई। फांसी देने से कुछ मिनट पहले जेलर ने पूछा दृ तुम्हारी अंतिम इच्छा क्या है , उन्होंने कहा कि मेरी अंतिम इच्छा है कि अंग्रेज हमारे देश को छोर कर चले जाएँ, और भारत माता को गुलामी की जंजीरों से मुक्त कर समस्त भारत को स्वतंत्र कर दें। भादो का महिना पहला मलमास, दिन रविवार 23 अगस्त 1943 की सुबह भागलपुर सेन्ट्रल जेल में 19 वर्ष 17 दिन अवस्था में उन्हें फांसी दे दी गई। उन्होंने हँसते, हँसते फांसी के फंदे को गले लगाया और आजाद भारत के निर्माण में अपना नाम शहीदों की सूचि में दर्ज करा कर महत्वपूर्ण योगदान दिया।
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अभी थोड़े समय पहले अहिंसा और बिना खड्ग बिना ढाल वाले नारों और गानों का बोलबाला था ! हर कोई केवल शांति के कबूतर और अहिंसा के चरखे आदि में व्यस्त था लेकिन उस समय कभी इतिहास में तैयारी हो रही थी एक बड़े आन्दोलन की ! इसमें तीर भी थी, तलवार भी थी , खड्ग और ढाल से ही लड़ा गया था ये युद्ध ! जी हाँ, नकली कलमकारों के अक्षम्य अपराध से विस्मृत कर दिए गये वीर बलिदानी जानिये जिनका आज बलिदान दिवस ! आज़ादी का महाबिगुल फूंक चुके इन वीरो को नही दिया गया था इतिहास की पुस्तकों में स्थान ! किसी भी व्यक्ति के लिए अपने मुल्क पर मर मिटने की राह चुनने के लिए सबसे पहली और महत्वपूर्ण चीज है- जज्बा या स्पिरिट। किसी व्यक्ति के क्रान्तिकारी बनने में बहुत सारी चीजें मायने रखती हैं, उसकी पृष्ठभूमि, अध्ययन, जीवन की समझ, तथा सामाजिक जीवन के आयाम व पहलू। लेकिन उपरोक्त सारी परिस्थितियों के अनुकूल होने पर भी अगर जज्बा या स्पिरिट न हो तो कोई भी व्यक्ति क्रान्ति के मार्ग पर अग्रसर नहीं हो सकता। देश के लिए मर मिटने का जज्बा ही वो ताकत है जो विभिन्न पृष्ठभूमि के क्रान्तिकारियों को एक दूसरे के प्रति, साथ ही जनता के प्रति अगाध विश्वास और प्रेम से भरता है। आज की युवा पीढ़ी को भी अपने पूर्वजों और उनके क्रान्तिकारी जज्बे के विषय में कुछ जानकारी तो होनी ही चाहिए। आज युवाओं के बड़े हिस्से तक तो शिक्षा की पहुँच ही नहीं है। और जिन तक पहुँच है भी तो उनका काफी बड़ा हिस्सा कैरियर बनाने की चूहा दौड़ में ही लगा है। एक विद्वान ने कहा था कि चूहा-दौड़ की सबसे बड़ी दिक्कत यह है कि व्यक्ति इस दौड़ में जीतकर भी चूहा ही बना रहता है। अर्थात इंसान की तरह जीने की लगन और हिम्मत उसमें पैदा ही नहीं होती। और जीवन को जीने की बजाय अपना सारा जीवन, जीवन जीने की तैयारियों में लगा देता है। जाहिरा तौर पर इसका एक कारण हमारा औपनिवेशिक अतीत भी है जिसमें दो सौ सालों की गुलामी ने स्वतंत्र चिन्तन और तर्कणा की जगह हमारे मस्तिष्क को दिमागी गुलामी की बेड़ियों से जकड़ दिया है। आज भी हमारे युवा क्रान्तिकारियों के जन्मदिवस या शहादत दिवस पर ‘सोशल नेट्वर्किंग साइट्स’ पर फोटो तो शेयर कर देते हैं, लेकिन इस युवा आबादी में ज्यादातर को भारत की क्रान्तिकारी विरासत का या तो ज्ञान ही नहीं है या फिर अधकचरा ज्ञान है। ऐसे में सामाजिक बदलाव में लगे पत्र-पत्रिकाओं की जिम्मेदारी बनती है कि आज की युवा आबादी को गौरवशाली क्रान्तिकारी विरासत से परिचित करायें ताकि आने वाले समय के जनसंघर्षों में जनता अपने सच्चे जन-नायकों से प्ररेणा ले सके। आज हम एक ऐसी ही क्रान्तिकारी साथी का जीवन परिचय दे रहे हैं जिन्होंने जनता के लिए चल रहे संघर्ष में बेहद कम उम्र में बेमिसाल कुर्बानी दी।
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