नोट -भारत की आजादी में शहीद हुए वीरांगना/जवानो के बारे में यदि आपके पास कोई जानकारी हो तो कृपया उपलब्ध कराने का कष्ट करे . जिसे प्रकाशित किया जा सके इस देश की युवा पीढ़ी कम से कम आजादी कैसे मिली ,कौन -कौन नायक थे यह जान सके । वैसे तो यह बहुत दुखद है कि भारत की आजादी में कुल कितने क्रान्तिकारी शहीद हुए इसकी जानकार भारत सरकार के पास उपलब्ध नही है। और न ही भारत सरकार देश की आजादी के दीवानो की सूची संकलन करने में रूचि दिखा रही जो बहुत ही दुर्भाग्य पूर्ण है।
1857 का स्वाधीनता संग्राम भले ही सफल न हुआ हो; पर उसने सिद्ध कर दिया कि देश का कोई भाग ऐसा नहीं है, जहां स्वतन्त्रता की अभिलाषा न हो तथा लोग स्वाधीनता के लिए मर मिटने का तैयार न हों।
मध्य प्रदेश में इंदौर और उसके आसपास का क्षेत्र मालवा कहलाता है। 1857 में यह पूरा क्षेत्र अंग्रेजों के विरुद्ध दहक रहा था। यहां का महिदपुर सामरिक दृष्टि से बहुत महत्वपूर्ण क्षेत्र था। इसलिए अंग्रेजों ने यहां छावनी की स्थापना की थी, जिसे ‘यूनाइटेड मालवा कांटिनजेंट, महिदपुर हेडक्वार्टर’ कहा जाता था।
इंदौर में नागरिकों ने जुलाई 1857 में जैसा उत्साह दिखाया था, उसका प्रभाव महिदपुर छावनी के सैनिकों पर भी साफ दिखाई देता था। वे एकांत में इस बारे में उग्र बातें करते रहते थे। यह देखकर अंग्रेजों ने बड़े अधिकारियों तथा अपने खास चमचों को सावधान कर दिया था।
छावनी में भारतीय सैनिकों के कमांडर शेख रहमत उल्ला तथा उज्जैन स्थित सिंधिया के सरसूबा आपतिया की सहानुभूति क्रांतिकारियों के साथ थी। महिदपुर के अमीन सदाशिवराव की भूमिका भी इस बारे में उल्लेखनीय है। उन्होंने क्रांति के लिए बड़ी संख्या में सैनिकों की भर्ती की तथा उन्हें हर प्रकार का सहयोग दिया। अंग्रेज चौकन्ने तो थे; पर उन्हें यह अनुमान नहीं था कि अंदर ही अंदर इतना भीषण लावा खौल रहा है।
8 नवम्बर, 1857 को निर्धारित योजनानुसार प्रातः 7.30 बजे दो हजार क्रांतिकारियों ने ऐरा सिंह के नेतृत्व में मारो-काटो का उद्घोष करते हुए महिदपुर छावनी पर हमला बोल दिया। इन सशस्त्र क्रांतिवीरों में उज्जैन व खाचरोद की ओर से आये मेवाती सैनिकों के साथ ही महिदपुर के नागरिक भी शामिल थे। यह देखकर छावनी में तैनात देशप्रेमी सैनिक भी इनके साथ मिल गये।
अंग्रेज अधिकारी सावधान तो थे ही, अतः भीषण युद्ध छिड़ गया; पर भारतीय सैनिकों का उत्साह अंग्रेजों पर भारी पड़ रहा था। कई घंटे के संग्राम में डा0 कैरी, लेफ्टिनेंट मिल्स, सार्जेण्ट मेजर ओ कॉनेल तथा मानसन मार डाले गये। मेजर टिमनिस की पत्नी को उसके दर्जी ने अपनी झोंपड़ी में छिपा लिया, इससे उसकी जान बच गयी। इस युद्ध में भारतीय वीरों का पलड़ा भारी रहा। जो अंग्रेज अधिकारी बच गये, उन्हें इंदौर के महाराजा तुकोजीराव होल्कर ने शरण देकर उनके भोजन तथा कपड़ों का प्रबन्ध किया।
परन्तु संगठन एवं कुशल नेतृत्व के अभाव, अधूरी योजना तथा समय से पूर्व ही विस्फोट हो जाने के कारण 1857 का यह स्वाधीनता संग्राम सफल नहीं हो सका। धीरे-धीरे अंग्रेजों ने फिर से सभी छावनियों पर कब्जा कर लिया। जिन सैनिकों ने अत्यधिक उत्साह दिखाया था, उन्हें नौकरी से हटा दिया। कुछ को जेलों में ठूंस दिया तथा बहुतों को फांसी पर लटकाकर पूरे देश में एक बार फिर से आतंक एवं भय का वातावरण बना दिया।
महिदपुर के इस संघर्ष में यद्यपि जीत भारतीय पक्ष की हुई और अंग्रेजों को मैदान छोड़कर भागना पड़ा; पर अंग्रेजो की तरह ही बड़ी संख्या में भारतीय सैनिक भी वीरगति को प्राप्त हुए। आगे चलकर इस युद्ध के लिए वातावरण बनाने में मुख्य भूमिका निभाने वाले अमीन सयाजीराव भी गिरफ्तार कर लिये गये। अंग्रेजों ने उन्हें देशभक्ति का श्रेष्ठतम पुरस्कार देते हुए सात जनवरी, 1858 को तोप के सामने खड़ाकर गोला दाग दिया।
वीर अमीन सयाजीराव की देह एवं रक्त का कण-कण उस पावन मातृभूमि पर छितरा गया, जिसकी पूजा करने का उन्होंने व्रत लिया था।
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अभी थोड़े समय पहले अहिंसा और बिना खड्ग बिना ढाल वाले नारों और गानों का बोलबाला था ! हर कोई केवल शांति के कबूतर और अहिंसा के चरखे आदि में व्यस्त था लेकिन उस समय कभी इतिहास में तैयारी हो रही थी एक बड़े आन्दोलन की ! इसमें तीर भी थी, तलवार भी थी , खड्ग और ढाल से ही लड़ा गया था ये युद्ध ! जी हाँ, नकली कलमकारों के अक्षम्य अपराध से विस्मृत कर दिए गये वीर बलिदानी जानिये जिनका आज बलिदान दिवस ! आज़ादी का महाबिगुल फूंक चुके इन वीरो को नही दिया गया था इतिहास की पुस्तकों में स्थान ! किसी भी व्यक्ति के लिए अपने मुल्क पर मर मिटने की राह चुनने के लिए सबसे पहली और महत्वपूर्ण चीज है- जज्बा या स्पिरिट। किसी व्यक्ति के क्रान्तिकारी बनने में बहुत सारी चीजें मायने रखती हैं, उसकी पृष्ठभूमि, अध्ययन, जीवन की समझ, तथा सामाजिक जीवन के आयाम व पहलू। लेकिन उपरोक्त सारी परिस्थितियों के अनुकूल होने पर भी अगर जज्बा या स्पिरिट न हो तो कोई भी व्यक्ति क्रान्ति के मार्ग पर अग्रसर नहीं हो सकता। देश के लिए मर मिटने का जज्बा ही वो ताकत है जो विभिन्न पृष्ठभूमि के क्रान्तिकारियों को एक दूसरे के प्रति, साथ ही जनता के प्रति अगाध विश्वास और प्रेम से भरता है। आज की युवा पीढ़ी को भी अपने पूर्वजों और उनके क्रान्तिकारी जज्बे के विषय में कुछ जानकारी तो होनी ही चाहिए। आज युवाओं के बड़े हिस्से तक तो शिक्षा की पहुँच ही नहीं है। और जिन तक पहुँच है भी तो उनका काफी बड़ा हिस्सा कैरियर बनाने की चूहा दौड़ में ही लगा है। एक विद्वान ने कहा था कि चूहा-दौड़ की सबसे बड़ी दिक्कत यह है कि व्यक्ति इस दौड़ में जीतकर भी चूहा ही बना रहता है। अर्थात इंसान की तरह जीने की लगन और हिम्मत उसमें पैदा ही नहीं होती। और जीवन को जीने की बजाय अपना सारा जीवन, जीवन जीने की तैयारियों में लगा देता है। जाहिरा तौर पर इसका एक कारण हमारा औपनिवेशिक अतीत भी है जिसमें दो सौ सालों की गुलामी ने स्वतंत्र चिन्तन और तर्कणा की जगह हमारे मस्तिष्क को दिमागी गुलामी की बेड़ियों से जकड़ दिया है। आज भी हमारे युवा क्रान्तिकारियों के जन्मदिवस या शहादत दिवस पर ‘सोशल नेट्वर्किंग साइट्स’ पर फोटो तो शेयर कर देते हैं, लेकिन इस युवा आबादी में ज्यादातर को भारत की क्रान्तिकारी विरासत का या तो ज्ञान ही नहीं है या फिर अधकचरा ज्ञान है। ऐसे में सामाजिक बदलाव में लगे पत्र-पत्रिकाओं की जिम्मेदारी बनती है कि आज की युवा आबादी को गौरवशाली क्रान्तिकारी विरासत से परिचित करायें ताकि आने वाले समय के जनसंघर्षों में जनता अपने सच्चे जन-नायकों से प्ररेणा ले सके। आज हम एक ऐसी ही क्रान्तिकारी साथी का जीवन परिचय दे रहे हैं जिन्होंने जनता के लिए चल रहे संघर्ष में बेहद कम उम्र में बेमिसाल कुर्बानी दी।
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