नोट -भारत की आजादी में शहीद हुए वीरांगना/जवानो के बारे में यदि आपके पास कोई जानकारी हो तो कृपया उपलब्ध कराने का कष्ट करे . जिसे प्रकाशित किया जा सके इस देश की युवा पीढ़ी कम से कम आजादी कैसे मिली ,कौन -कौन नायक थे यह जान सके । वैसे तो यह बहुत दुखद है कि भारत की आजादी में कुल कितने क्रान्तिकारी शहीद हुए इसकी जानकार भारत सरकार के पास उपलब्ध नही है। और न ही भारत सरकार देश की आजादी के दीवानो की सूची संकलन करने में रूचि दिखा रही जो बहुत ही दुर्भाग्य पूर्ण है।
इनका इतिहास बहुत कम पढने को मिलेगा आपको। असल में इनके इतिहास को वो कलमकार लिख भी नहीं सकते हैं, जो देश की आजादी की वजह सिर्फ अहिंसा को ही बताते हैं। 4 फरवरी.. बलिदान दिवस है, उस महायोद्धा का जिनके दोनों हाथो में तलवार थी और सामने एक साथ कई विधर्मी । फिर भी तलवार तब तक चली जब तक उनकी सांस चली और न सिर्फ मुगल सेना बल्कि उनका साथ दे रहे कुछ गद्दार भी हैरान रह गये थे ये देख कर कि मातृभूमि का प्रेम किसी के लिए प्राणों से भी बढ़ कर है । भारत में साहस और शौर्य की कहानियों की वैसे कमी नहीं है, ये वो कहानियां है जिसको हमारे पूर्वज अपने रक्त की धार से लिख कर गये हैं। ये कहानियां हमारे लिए धरोहर हैं। लेकिन कुछ साजिशो के चलते हम में से तमाम उसको सहेज कर नहीं रख पाए। आप एक कहानी को खोजने की कोशिश करेंगे तो आपको एक नहीं बल्कि हजारों कहानियां मिल जायेंगी। सबसे बड़ी बात यह है कि यह कहानियां भी ऐसी-वैसी नहीं होगी बल्कि ऐसे शौर्य की यह कहानियां होती हैं कि पढ़कर मरता इंसान भी जीवित हो सकता है।
आज मैं आपको एक ऐसे ही एक वीर और बहादुर योद्धा तानाजी मालुसरे जी की कहानी बताती हूँ । वैसे महाराष्ट्र के लोग तो इस नाम से वाकिफ होंगे, किन्तु इस नाम से पूरे भारत को वाकिफ होना चाहिए। तो आइये जानते हैं वीर तानाजी मालुसरे की पूरी कहानी और इतना तो निश्चित है कि इस कहानी को पढ़ने के बाद आप अपने गौरवशाली पूर्वजो को एक बार फिर से याद करेगे और उन साजिशकर्ताओं पर भी आक्रोश आएगा, जिन्होंने कुछ लोगों की चाटुकारिता के चक्कर में ऐसे वीरों को विस्मृत कर दिया। सिंहगढ़ का नाम आते ही छत्रपति शिवाजी के वीर सेनानी तानाजी मालसुरे की भी याद आती है। तानाजी ने उस दुर्गम कोण्डाणा दुर्ग को जीता, जो ‘वसंत पंचमी’ पर उनके बलिदान का अर्घ्य पाकर ‘सिंहगढ़’ कहलाया। छत्रपति शिवाजी महराज को एक बार सन्धिस्वरूप 23 किले मुगलों को देने पड़े थे। इन किलो में से कोण्डाणा सामरिक दृष्टि से बहुत महत्त्वपूर्ण था। एक बार माँ जीजाबाई ने शिवाजी को कहा कि प्रातःकाल सूर्य भगवान को अर्घ्य देते समय कोण्डाणा पर फहराता हरा झण्डा आँखों को बहुत चुभता है।
छत्रपति शिवाजी महराज ने सिर झुकाकर कहा दृ माँ, आपकी इच्छा मैं समझ गया। शीघ्र ही आपका आदेश पूरा होगा। कोण्डाणा को जीतना आसान ना था, पर शिवाजी राजे के शब्दकोष में असम्भव शब्द नहीं था। उनके पास एक से एक साहसी योद्धाओं की भरमार थी। वे इस बारे में सोच ही रहे थे कि उनमें से सिरमौर तानाजी मालसुरे दरबार में आये। शिवाजी ने उन्हें देखते ही कहा दृ तानाजी, आज सुबह ही मैं आपको याद कर रहा था। माता की इच्छा कोण्डाणा को फिर से अपने अधीन करने की है। तानाजी ने ‘जो आज्ञा’, राजमाता की इच्छा जरूर पूरी होगी, कहकर उन्होंने सिर झुका शिवाजी महाराज को प्रणाम किया और वापस चल दिये। यद्यपि तानाजी उस समय अपने पुत्र रायबा के विवाह का निमन्त्रण शिवाजी महाराज को देने के लिए आये थे, पर उन्होंने मन ही मन में कहा। पहले कोण्डाणा विजय, फिर रायबा का विवाह य ष्पहले देश, फिर घरष्। और इसके लिए वे योजना बनाने में जुट गये।
4 फरवरी, 1670 की रात्रि इसके लिए निश्चित की गयी। कोण्डाणा पर मुगलों का सेनापति 1,500 सैनिकों के साथ तैनात था। तानाजी ने अपने भाई सूर्याजी और 500 वीर सैनिकों को साथ लिया। दुर्ग के मुख्य द्वार पर कड़ा पहरा रहता था। पीछे बहुत घना जंगल और ऊँची पहाड़ी थी। पहाड़ी से गिरने का अर्थ था निश्चित मृत्यु। अतः इस ओर सुरक्षा बहुत कम रहती थी। तानाजी ने इसी मार्ग को चुना। रात में वे सैनिकों के साथ पहाड़ी के नीचे पहुँच गये। उन्होंने ‘यशवन्त’ नामक गोह को ऊपर फेंका। उसकी सहायता से कुछ सैनिक बुर्ज पर चढ़ गये। उन्होंने अपनी कमर में बँधे रस्से नीचे लटका दिये। इस प्रकार 300 सैनिक ऊपर आ गये। शेष 200 ने मुख्य द्वार पर मोर्चा लगा लिया।
ऊपर पहुँचते ही असावधान अवस्था में खड़े सुरक्षा सैनिकों को तानाजी द्वारा यमलोक पहुँचा दिया गया। इस पर शोर मच गया। मुगल सेनापति और उसके साथी भी तलवारें लेकर भिड़ गये। इसी बीच तानाजी ने सूर्याजी को आज्ञा दी कि वो जाकर मुख्य द्वार खोलकर शेष सैनिकों को अन्दर आने दे, तब तक वो खुद इन मुगल सैनिकों को रोकते हैं। सूर्याजी ने मुख्य द्वार को अन्दर से खोल दिया। इससे शेष सैनिक भी अन्दर आ गये और पूरी ताकत से युद्ध होने लगा। यद्यपि तानाजी इन मुगल सैनिकों से लड़ते-लड़ते बहुत अधिक घायल हो गये थेय पर फिर भी उनकी इच्छा मुगलों के सेनापति को अपने हाथों से दण्ड देने की थी। और जैसे ही वह दिखायी दिया, तानाजी उस पर कूद पड़े। दोनों में भयानक संग्राम होने लगा। तानाजी पहले से ही बहुत घायल थे, फिर भी उन्होंने उस मुगल सेनापति को कड़ी टक्कर दी। मुगल सेनापति से लड़ते लड़ते तानाजी की ढाल कट गयी। इस पर तानाजी हाथ पर कपड़ा लपेट कर लड़ने लगेय पर अन्ततः तानाजी लड़ते-लड़ते वीरगति को प्राप्त हुए।
यह देख मामा शेलार ने अपनी तलवार के भीषण वार से मुगल सेनापति को यमलोक पहुँचा दिया। तानाजी तब तक धरती माता की गोद में सो गये थे । जब छत्रपति शिवाजी महराज को यह समाचार मिला, तो उन्होंने भरे गले से कहा-गढ़ तो आया, पर मेरा सिंह चला गया। तब से इस किले का नाम ‘सिंहगढ़’ हो गया। किले के द्वार पर तानाजी की भव्य मूर्ति तथा समाधि निजी कार्य से देशकार्य को अधिक महत्त्व देने वाले उस वीर की सदा याद दिलाती है।
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अभी थोड़े समय पहले अहिंसा और बिना खड्ग बिना ढाल वाले नारों और गानों का बोलबाला था ! हर कोई केवल शांति के कबूतर और अहिंसा के चरखे आदि में व्यस्त था लेकिन उस समय कभी इतिहास में तैयारी हो रही थी एक बड़े आन्दोलन की ! इसमें तीर भी थी, तलवार भी थी , खड्ग और ढाल से ही लड़ा गया था ये युद्ध ! जी हाँ, नकली कलमकारों के अक्षम्य अपराध से विस्मृत कर दिए गये वीर बलिदानी जानिये जिनका आज बलिदान दिवस ! आज़ादी का महाबिगुल फूंक चुके इन वीरो को नही दिया गया था इतिहास की पुस्तकों में स्थान ! किसी भी व्यक्ति के लिए अपने मुल्क पर मर मिटने की राह चुनने के लिए सबसे पहली और महत्वपूर्ण चीज है- जज्बा या स्पिरिट। किसी व्यक्ति के क्रान्तिकारी बनने में बहुत सारी चीजें मायने रखती हैं, उसकी पृष्ठभूमि, अध्ययन, जीवन की समझ, तथा सामाजिक जीवन के आयाम व पहलू। लेकिन उपरोक्त सारी परिस्थितियों के अनुकूल होने पर भी अगर जज्बा या स्पिरिट न हो तो कोई भी व्यक्ति क्रान्ति के मार्ग पर अग्रसर नहीं हो सकता। देश के लिए मर मिटने का जज्बा ही वो ताकत है जो विभिन्न पृष्ठभूमि के क्रान्तिकारियों को एक दूसरे के प्रति, साथ ही जनता के प्रति अगाध विश्वास और प्रेम से भरता है। आज की युवा पीढ़ी को भी अपने पूर्वजों और उनके क्रान्तिकारी जज्बे के विषय में कुछ जानकारी तो होनी ही चाहिए। आज युवाओं के बड़े हिस्से तक तो शिक्षा की पहुँच ही नहीं है। और जिन तक पहुँच है भी तो उनका काफी बड़ा हिस्सा कैरियर बनाने की चूहा दौड़ में ही लगा है। एक विद्वान ने कहा था कि चूहा-दौड़ की सबसे बड़ी दिक्कत यह है कि व्यक्ति इस दौड़ में जीतकर भी चूहा ही बना रहता है। अर्थात इंसान की तरह जीने की लगन और हिम्मत उसमें पैदा ही नहीं होती। और जीवन को जीने की बजाय अपना सारा जीवन, जीवन जीने की तैयारियों में लगा देता है। जाहिरा तौर पर इसका एक कारण हमारा औपनिवेशिक अतीत भी है जिसमें दो सौ सालों की गुलामी ने स्वतंत्र चिन्तन और तर्कणा की जगह हमारे मस्तिष्क को दिमागी गुलामी की बेड़ियों से जकड़ दिया है। आज भी हमारे युवा क्रान्तिकारियों के जन्मदिवस या शहादत दिवस पर ‘सोशल नेट्वर्किंग साइट्स’ पर फोटो तो शेयर कर देते हैं, लेकिन इस युवा आबादी में ज्यादातर को भारत की क्रान्तिकारी विरासत का या तो ज्ञान ही नहीं है या फिर अधकचरा ज्ञान है। ऐसे में सामाजिक बदलाव में लगे पत्र-पत्रिकाओं की जिम्मेदारी बनती है कि आज की युवा आबादी को गौरवशाली क्रान्तिकारी विरासत से परिचित करायें ताकि आने वाले समय के जनसंघर्षों में जनता अपने सच्चे जन-नायकों से प्ररेणा ले सके। आज हम एक ऐसी ही क्रान्तिकारी साथी का जीवन परिचय दे रहे हैं जिन्होंने जनता के लिए चल रहे संघर्ष में बेहद कम उम्र में बेमिसाल कुर्बानी दी।
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